धान एक खाद्यान्न फसल है. इस का उपयोग अकसर सभी देशों मे किया जाता है. दुनिया के कुल धान उत्पादन का 90 फीसदी उत्पादन और उपयोग ‘एशिया’ में किया जाता है. धान का उत्पादन समुद्र की तलहेटी से ले कर मैदानी भागों और पहाड़ की चोटियों तक में किया जाता है.

धान फसल की एक खास खूबी यह है कि इसे हर तरह के वातावरण में उगाया जा सकता है, जैसे वर्षा आधारित क्षेत्र, सूखा प्रभावित क्षेत्र, बाढ़ग्रस्त क्षेत्र, लवणीय और क्षारीय प्रतिकूल परिस्थितियों में.

वर्तमान में धान की फसल में ठहराव सा आ गया?है, जबकि आबादी दिनोंदिन बढ़ रही है. भविष्य में धान में आत्मनिर्भरता बनाए रखने के लिए हमें हर साल 20 लाख टन ज्यादा धान पैदा करना होगा. उन्नतशील और संकर बीजों के इस्तेमाल एकीकृत पोषक व कीटनाशी प्रबंधन से भी उत्पादन में बहुत ही कम बढ़ोतरी मुमकिन है.

धान हमारी जरूरत है. हमारे सीमित विकल्पों से ज्यादा उत्पादन केवल धान की ‘श्रीपद्धति’ अपना कर ही हासिल किया जा सकता है क्योंकि इस तकनीक को अपना कर धान का उत्पादन 10-12 टन प्रति हेक्टेयर बढ़ाया जा सकता है.

श्रीपद्धति यानी सिस्टम औफ राइस इंटेसीफिकेशन : इस पद्धति को मेडागास्कर सिस्टम के नाम से भी जाना जाता है. भारत में यह पद्धति साल 2002-03 में दक्षिणी भारत (कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, त्रिपुरा) वगैरह राज्यों के किसानों द्वारा अपनाई गई. अब इस का चलन भारत के दूसरे धान उत्पादक राज्यों में तेजी से बढ़ रहा है.

इस तकनीक में बीज, खाद, पानी, कीट, रोगनाशक व खरपतवारनाशकों का खेती में कम मात्रा में इस्तेमाल कर के उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है. परीक्षणों से पता चला है कि धान के पौधों से अच्छी क्वालिटी वाली ज्यादा उपज लेने के लिए इन बिंदुओं पर ध्यान दिया जाए:

* प्रति पौध शाखाओं की तादाद ज्यादा हो.

* बालियों की लंबाई ज्यादा हो.

* प्रति बाली दानों की तादाद ज्यादा हो.

* दानों का?भाग ज्यादा हो.

* जड़ों का विकास ज्यादा हो ताकि पौधों का विकास और बढ़वार हो सके.

श्रीपद्धति की प्रबंधन विधियां

किसानों की जानकारी के लिए श्रीपद्धति की प्रबंधन विधियों को अपना कर धान की बेहतर क्वालिटी वाली भरपूर उपज ली जा सकती है.

जमीन का चयन : धान उगाने के लिए ऐसी जमीन जहां पानी न भरे, जमीन समतल हो. साथ ही, लवणीय या क्षारीय जमीन नहीं होनी चाहिए. इसलिए जमीन का चयन करते समय इन बातों का ध्यान रखें:

लवणीय या क्षारीय जमीन : अगर जमीन लवणीय या क्षारीय है तो श्रीपद्धति को नहीं अपनाना चाहिए क्योंकि ऐसी जमीन की ऊपरी सतह पर लवण होते हैं, जो धान के पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं.

इस पद्धति में जमीन का समतल होना बहुत ही जरूरी है, क्योंकि ऐसी जमीन में पानी जमा नहीं होता. साथ ही, सही विधि से सिंचाई प्रबंधन यानी पानी को बाहर निकाला जा सकता है.

मिट्टी उर्वरता : इस पद्धति में कार्बनिक पदार्थ व जैविक खादों का इस्तेमाल उर्वरकों से ज्यादा मात्रा में किया जाता है. कार्बनिक पदार्थ न केवल मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाने में मददगार होते हैं, बल्कि मिट्टी में मौजूद फायदेमंद सूक्ष्म जीवों के भोजन के रूप में भी काम आता है.

ये सूक्ष्म जीव मिट्टी में मौजूद पोषक तत्त्वों को पौधों की उपलब्ध अवस्था में परिवर्तित करने में सहायक होते?हैं, जिस की वजह से अधिक फसल उत्पादन हासिल होता है. इन विधियों का उपयोग कर के जमीन में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा में बढ़ोतरी की जा सकती है.

गोबर की खाद : श्रीपद्धति द्वारा धान उत्पादन के लिए गोबर की खाद का उपयोग जरूरी है. इस के लिए कम से कम 6 टन प्रति एकड़ गोबर की खाद का उपयोग करना चाहिए.

हरी खाद का उपयोग : हरी खाद जमीन की उर्वराशक्ति बढ़ाने में सहायक होती है. अगर हरी खाद के रूप में ढैंचा या सनई का इस्तेमाल किया जाना हो तो उसे खेत में 45-50 दिन या 50 फीसदी फूल आने की अवस्था में मिट्टी में भलीभांति पलट दें. इस प्रकार हरी खाद के विगलन के बाद धान की पौध की रोपाई की जा सकती है.

बीज दर : पौधों के बीच की दूरी ज्यादा कर के बीज  दर को आसानी से कम किया जा सकता है. साथ ही, स्वस्थ पौध लगाने से कीट व रोगों का प्रकोप कम होगा. साथ ही, ज्यादा उत्पादन हासिल होगा.

पौध रोपण : जब पौध में 2 पत्तियां निकल आएं यानी 8-10 दिन की हो जाएं, तब उन की रोपाई शाम के समय करनी चाहिए. इस विधि में पौध की रोपाई सावधानी से करते हैं, ताकि पौधे ज्यादा स्वस्थ और उपजाऊ हों.

पौधे से पौधे की दूरी : इस तकनीक में पौधों के बीच की दूरी सामान्य प्रचलित विधियों की अपेक्षा ज्यादा रखते हैं ताकि पौधों को हवा सही से मिल सके, साथ ही, सूरज की रोशनी भी सुगमता से मिल सके ताकि ज्यादा शाखाओं का उत्पादन हो सके. पौधों के बीच की दूरी ज्यादा होने से पौधे की जड़ों का विकास समुचित ढंग से हो पाएगा, जिस से पौधे ज्यादा स्वस्थ होंगे.

जैविक खादों का इस्तेमाल : जमीन में जैविक खादों का इस्तेमाल कर के न केवल पोषक तत्त्वों की भरपाई होती है, बल्कि लाभदायक सूक्ष्म जीवों की तादाद में भी बढ़ोतरी होती है, जो जमीन और फसल दोनों की उत्पादन क्षमता को बढ़ाने में सहायक होते हैं.

नर्सरी की तैयारी : इस पद्धति में नर्सरी की तैयारी करने के लिए किसी भी उन्नतशील या संकर किस्म का बीज इस्तेमाल किया जा सकता है. नर्सरी में केवल कार्बनिक पदार्थ या हरी खाद का ही इस्तेमाल करें.

क्यारियां तैयार करना: क्यारियां 1-2 मीटर चौड़ी और लंबाई उपलब्ध जगह के आधार पर रखें. क्यारियों के किनारे दोनों ओर की मिट्टी निकाल कर नाली बनाएं और निकाली गई मिट्टी को?क्यारियों में डाल कर 12-15 सैंटीमीटर ऊपर उठे स्तर की बनाएं. इस प्रकार 2 किलोग्राम बीज द्वारा एक एकड़ क्षेत्र की पौध तैयार की जा सकती है. एक एकड़ क्षेत्र के लिए 400 वर्गफुट की नर्सरी तैयार करते हैं.

खेत की तैयारी: सामान्य धान की फसल के समान श्रीपद्धति में खेत की तैयारी की जाती है. खेत को सूखी व पानी भर कर दोनों तरह की दशाओं में तैयार किया जा सकता है किंतु बिना पडलिंग वाले खेत में खरपतवार नियंत्रण के लिए मार्कर चलाना सुगम होगा क्योंकि रोपाई से पहले खेत में मार्कर चलाने और सही जल प्रबंधन के लिए खेत का समतल होना बहुत जरूरी है.

पौधे और पंक्ति की दूरी : श्रीपद्धति में पौधों और पंक्ति की दूरी का खास महत्त्व है. इस पद्धति में पौधे और पंक्ति की दूरी तकरीबन 25 सैंटीमीटर × 25 सैंटीमीटर रखते हैं. इस पद्धति में 16 पौधे प्रति वर्गमीटर रखते हैं, जबकि साधारण धान पद्धति में प्रति वर्गमीटर 33-40 थाले लगाते हैं व 1 थाले में 4-5 पौधे होते हैं. ज्यादा उपजाऊ जमीन में दूरी तकरीबन 30 सैंटीमीटर × 30 सैंटीमीटर तक रख सकते हैं.

मार्कर का उपयोग: श्रीपद्धति में 25 सैंटीमीटर × 25 सैंटीमीटर की दूरी पर निशान लगाते हैं, जिस के लिए विभिन्न प्रकार के मार्करों का इस्तेमाल किया जाता है. ये मार्कर लकड़ी या लोहे के बने होते हैं. मुख्य रूप से 8 पंक्तियों के रोलर वर्ग की पंक्ति बनाते हैं. प्रत्येक 2 मीटर के बाद 30-32 सैंटीमीटर का अंतराल रखें, ताकि पानी न भरे. पौधे को हवा भी आसानी से मिल सके. पौधे कीट व रोगों से सुरक्षित रहें, साथ ही निराईगुड़ाई सुगमता से हो सके. रोपाई के एक दिन पहले मार्कर लगाएं ताकि समय की बचत की जा सके.

खाद और उर्वरक प्रबंधन

श्रीपद्धति में कार्बनिक पदार्थ व जैविक खादों का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करते हैं. इस पद्धति से धान उत्पादन के लिए खेत की तैयारी के समय 6 टन गोबर की खाद या कंपोस्ट खाद व 300 किलोग्राम अजोला प्रति एकड़ का इस्तेमाल करते हैं.

उच्च गुणवत्ता वाली अच्छी उपज में मिट्टी जांच के आधार पर 50 फीसदी उर्वरकों का इस्तेमाल सही रहता है. मिट्टी जांच न किए जाने की दशा में 24 किलोग्राम नाइट्रोजन, 12 किलोग्राम फास्फोरस, 8 किलोग्राम पोटाश और 10 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति एकड़ उपयोग करें.

रोपाई के पहले फास्फोरस, पोटाश व जिंक सल्फेट की पूरी मात्रा डालें, जबकि नाइट्रोजन की मात्रा को 3 भागों में बांट कर 25 फीसदी रोपाई के समय, 50 फीसदी कल्ले फूटते समय और 25 फीसदी पुष्प गुच्छ निकलते समय डालें. ऐसा करने से अधिक उत्पादन मिलेगा.

रोपाई: श्रीपद्धति में रोपाई के लिए 8-10 दिन की पौध का उपयोग करना चाहिए. साथ ही, पौध की जड़ों को नर्सरी से निकालते समय और खेत में रोपाई करते समय किसी तरह का नुकसान नहीं होना चाहिए. ऐसा करने से पौध के जमाव व वृद्धि में सुगमता रहती है. श्रीपद्धति में पौध छोटी होती है इसलिए लोहे की पट्टी द्वारा मिट्टी के साथ 10.0-12.5 सैंटीमीटर गहराई से सावधानीपूर्वक निकालें.

पौधे को निकालने के तुरंत बाद आधे घंटे के अंदर मार्कर द्वारा लगाए गए निशानों पर रोपाई करें. ऐसा करने से पौधे सूखते नहीं हैं और जल्दी ही स्थापित हो जाते हैं.

रोपाई विधि: धान की सामान्य प्रचलित विधियों में पौध रोपाई ‘यू’ आकार में करते हैं, जिस के चलते पौधों को जमाने में मुड़ने या सीधा होने में समय लगता है, जबकि श्रीपद्धति में पौध लगाने से जड़ों की दिशा ‘एल’ आकार में रखते?हैं. इस प्रकार पौध रोपाई 25 सैंटीमीटर × 25 सैंटीमीटर की दूरी पर 2-3 सैंटीमीटर गहराई से अंगूठे और अनामिका उंगली की सहायता से 1-1 पौध बीज चोल और मिट्टी सहित प्रति थाले में रोपते हैं.

इस विधि से रोपाई करने से पौधों को रोशनी, हवा व पोषक तत्त्व आसानी से और जल्दी मिल जाते हैं. इस वजह से पौधों का जमाव व बढ़ोतरी भी जल्दी हो जाती है. पौधों की रोपाई के बाद उसी दिन या दूसरे दिन हलकी सिंचाई जरूर करें, ताकि पौधे अच्छी तरह से जम सकें.

जल प्रबंधन : धान की खेती की प्रचलित विधियों में खेत में पानी भरा रहता है, जिस के चलते पौधों की जड़ों का सही विकास नहीं हो पाता है, क्योंकि पानी भरे रहने से हवा ठीक से नहीं पहुंच पाती है जबकि श्रीपद्धति में पानी का भरा होना जरूरी नहीं है क्योंकि इस विधि में जमीन को नम कर के रखते हैं. मिट्टी में हलकी दरारें पड़ने पर ही सिंचाई करते हैं.

खेत को समतल करने के बाद छोटीछोटी क्यारियों में बांट लेते हैं, ताकि सिंचाई करने में आसानी रहे. क्यारियों में सिंचाई अंतिम छोर की क्यारी से शुरू करें और हर क्यारी का चौथाई भाग सिंचित होते ही क्यारी को बंद कर दें. इस तरह पानी की मात्रा को कम किया जा सकता है. धान में पुष्प गुच्छ बनने की अवस्था तक तकरीबन 2.5 सैंटीमीटर पानी भरा रहना चाहिए. इस पानी को खेत से तब ही निकालें, जब धान की फसल में 70 फीसदी तक दाने कठोर हो जाएं.

खरपतवार प्रबंधन : श्रीपद्धति में धान की फसल में पानी शुरू से खड़ा न रहने के चलते खरपतवारों का प्रकोप ज्यादा होता है इसलिए पौध की रोपाई के 10 दिन बाद 3-4 बार ‘कोनो वीडर’ चला कर खरपतवारों को खेत के अंदर ही दबा कर हरी खाद के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है. वीडर चलाने से हवा के बहाव में बढ़ोतरी होती है. हरी खाद के रूप में इस्तेमाल करने से लाभकारी सूक्ष्म जीवाणुओं की क्रियाशीलता व पोषक तत्त्वों के स्तर में बढ़ोतरी होती है. इस वजह से फसल का उत्पादन अधिक मिलता है.

कीट व रोग प्रबंधन : श्रीपद्धति में कीट व रोगों का प्रकोप साधारण प्रचलित विधियों की अपेक्षा कम होता है क्योंकि पंक्तियों और पौधों की दूरी ज्यादा होने के चलते हवा और रोशनी का संचार सुगमता से हो जाता है. इस वजह से कीट व रोगों के पनपने के लिए अनुकूल वातावरण नहीं मिल पाता है. साथ ही, जैविक खादों के इस्तेमाल से पौध अधिक स्वस्थ रहते हैं, फिर भी अगर इन कीटों का प्रकोप हो जाए तो जैविक विधि से फसल संरक्षण करना चाहिए.

रोग पर काबू पाने के लिए 1 लिटर गौमूत्र, 1 किलोग्राम गोबर, 250 ग्राम गुड़ को 10 लिटर पानी में घोल कर 24 घंटे तक रखें. इस के बाद उसे छान कर इस घोल की 1 लिटर मात्रा ले कर उसे 10 लिटर पानी में मिला कर पर्णीय छिड़काव करें. इस घोल को एक माह तक महफूज रख सकते हैं.

कटाई और मड़ाई : जब फसल के दाने पक जाएं और थोड़े हरे हों, तब कटाई कर लेनी चाहिए. समय पर कटाई करने से दानों के झड़ने की समस्या से बचा जा सकता है. अगर कंबाइन से कटाई करनी हो तो दानों में 14 फीसदी नमी होनी चाहिए.

कटाई के एक दिन बाद मड़ाई कर लेनी चाहिए. इस के बाद दानों को छाया में सुखा कर नमी को 12 फीसदी तक आने दीजिए. ऐसा करने से चावल कम टूटते हैं और क्वालिटी भी सही बनी रहती है.

धान की श्रीपद्धति के फायदे

* श्रीपद्धति में धान की सामान्य प्रचलित विधियों की अपेक्षा कम बीज (2 किलोग्राम प्रति एकड़) लगता है साथ ही, पानी की कम खपत होती है.

* इस पद्धति में जैविक खादों के इस्तेमाल व पंक्ति व पौधों की आपसी दूरी ज्यादा रखने से कीट व रोगों का प्रकोप कम होता है.

* इस पद्धति से उत्पादित धान की फसल धान की सामान्य विधियों की तुलना में 7-15 दिन पहले पक कर तैयार हो जाती है.

* धान की सामान्य प्रचलित विधियों की अपेक्षा इस पद्धति से ज्यादा उपज मिलती है.

* इस विधि द्वारा उत्पादित धान के दानों की क्वालिटी और स्वाद उत्तम होते हैं.

* इस विधि द्वारा लागत को कम कर के ज्यादा आमदनी हासिल की जा सकती है.

* कैमिकलों के कम इस्तेमाल से उत्पादित धान के लिए ज्यादा लाभकारी होता है.

* इस विधि को अपना कर छोटे किसान भी प्रति इकाई उत्पादन हासिल कर सकते हैं. इसलिए उन्हें श्रीपद्धति को अपनाना चाहिए.

नर्सरी की क्यारियां इस तरह तैयार करें

पहली परत : 2.5 सैंटीमीटर मोटी गोबर की गलीसड़ी खाद या कंपोस्ट खाद.

दूसरी परत : 3.7 सैंटीमीटर मोटी भुरभुरी मिट्टी.

तीसरी परत : 2.5 सैंटीमीटर मोटी गोबर की सड़ीगली गोबर की खाद या कंपोस्ट खाद.

चौथी परत: 6.7 सैंटीमीटर मोटी भुरभुरी मिट्टी.

सभी चारों परतों को भलीभांति मिलाएं. नर्सरी की क्यारियों के चारों तरफ बांस की पुआल वगैरह पदार्थों को लगा कर नम मिट्टी को क्यारी में गिरने से रोकते हैं.

बीज बोने की विधि : बोने से पहले बीज को 12 घंटे तक पानी में भिगोते हैं, उस के बाद उन्हें एक गीली बोरी में डाल कर 24 घंटे तक किसी गड्ढे में उत्तम अंकुरण के लिए दबा देते हैं. जब इन बीजो से रंग की जड़ें विकसित होने लगें तब उन्हें रोप दें.

नर्सरी की क्यारी में 2.5-5.0 सैंटीमीटर की ऊंचाई तक कार्बनिक खाद को फैला कर 2 किलोग्राम अंकुरित बीजों को समान रूप से बिखेर कर उस के ऊपर कार्बनिक खाद की हलकी परत बिछा देते हैं, ताकि बीजों को पक्षियों, सूरज की तेज रोशनी, बारिश वगैरह से बचाया जा सके.

हर दिन सुबहशाम नर्सरी में पानी का छिड़काव नियमित रूप से करें. पानी का छिड़काव करने के लिए फव्वारे का इस्तेमाल करें. इस तरह 10-12 दिन में 2 पत्तियां निकलने पर पौध खेत में रोपाई के लिए तैयार हो जाती है, पर कुछ इलाकों में कम तापमान के चलते पौध ठीक तरह से तैयार नहीं हो पाती है, ऐसी जगहों पर 15 दिन की पौध की रोपाई करनी चाहिए.

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