सरसों को मुख्य रूप से खाद्य तेल के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. सरसों की खेती उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, बिहार, ओडिशा वगैरह राज्यों में खासी मात्रा में की जाती है. छत्तीसगढ़ में भी सरसों की खेती की अपार संभावनाएं हैं.

सरसों की खेती मुख्य रूप से छत्तीसगढ़ के पहाड़ी क्षेत्र बस्तर और सरगुजा व मैदानी भाग में दुर्ग, राजनांदगांव, बिलासपुर व कवर्धा जिलों में सफलतापूर्वक की जा सकती है. सरसों की खेती में रोग प्रबंधन का सही तरीका अपना कर ज्यादा उत्पादन ले सकते हैं.

सरसों के खास रोग

श्वेत गेरुआ या ह्वाइट रस्ट रोग : यह क्रुसीफेरी का प्रमुख रोग है. इस रोग के कारण सरसों की खेती में पैदावार में कमी आ जाती है.

लक्षण : यह रोग बोआई के 30 से 40 दिनों के बाद सब से पहले पत्तियों पर दिखाई देता है. इस रोग के लक्षण सब से पहले पत्तियों पर हलके हरे से चकत्तों के रूप में शुरू होते हैं और कुछ ही समय में ये चकत्ते दूध के समान सफेद फुंसियों जैसे बन जाते हैं, जिन का आकार 1-2 एमएम होता है जो बाद में आपस में मिल कर बड़े चकत्ते का रूप ले लेते हैं.

फुंसियां पत्तियों की निचली सतह पर बिखरी हुई होती हैं. ऊपरी सतह पर फुंसियों के ठीक विपरीत उसी आकार के पीले धब्बे बनते हैं, जिस के कारण रोग आसानी से पहचाना जा सकता है.

जब रोग का संक्रमण तने के सहारे पूर्ण अवस्था में होता है तब यह दैहिक होता है और इस के कारण तना मोटा और फूल जाता है. संक्रमित फूल गुच्छे के रूप में बदल जाता है. इस रोग के कारण 60 फीसदी तक नुकसान हो जाता है.

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