रबी तिलहन फसलों में सरसों का प्रमुख स्थान है. यह ब्रौसीकेसी कुल का पौधा है. इसे 4 समूहों में बांटा जाता है: चारा, वनस्पतियां, शाकभाजी और तिलहन.

सरसों की खेती व यूरोप के ऐसे शीतोष्ण व गरम शीतोष्ण इलाकों में की जाती है जहां ग्रीष्म और शीतकाल दोनों ही तरह की किस्में उगाई जाती हैं.

आमतौर पर भारतीय उपमहाद्वीप के उपोष्ण कटिबंधीय इलाकों में इस की कारोबारी लैवल पर खेती की जाती है. इस समय दुनियाभर में तकरीबन 30 से ज्यादा देशों में इस की खेती की जाती है.

भारत में इसे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा वगैरह राज्यों में उगाया जाता है. वैसे, केरल को छोड़ सभी राज्यों में सरसों की खेती की जाती है. सरसों के साथ तमाम तरह के खरपतवार उग आते हैं जो सरसों के उत्पादन और गुणवत्ता पर बुरा असर डालते हैं.

एक अनुमान के मुताबिक, सरसों की फसल में खरपतवारों के उगने के चलते 20-70 फीसदी तक उपज में कमी आ जाती है. खरपतवार न केवल फसल को उपलब्ध होने वाले पोषक तत्त्वों को चट कर जाते हैं, बल्कि हमारी जमीन से पानी को भी सोख लेते हैं. इस वजह से फसल की बढ़वार और उत्पादन पर काफी बुरा असर डालते हैं.

खास खरपतवार

सरसों के साथ 2 तरह के खरपतवार उगते हैं. घास जाति के खरपतवार, जैसे जंगली जई, कनूकी, दूब वगैरह. चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार, जैसे प्याजी, सेंजी, बथुआ, खातुआ, जंगली पालक, जंगली धनिया, चटरीमटरी, हिरणखुरी, कृष्णनील, कंडाई, सत्यानाशी वगैरह.

सरसों (Mustard)

खरपतवारों का एकीकृत प्रबंधन

सरसों में खरपतवार प्रबंधन बहुत ही कारगर साबित हुए हैं. सरसों के साथ उगे खरपतवारों के प्रबंधन के लिए अनेक विधियों का इस्तेमाल किया जाता है.

निवारण : इस विधि में वे सभी काम शामिल हैं जिन को समय पर अपनाने से खेत में खरपतवारों को पनपने से रोका जा सकता है. इन का इस्तेमाल कर के किसान अपनी फसल को खरपतवाररहित उगा सकते हैं.

इन कामों को अपनाने में मेहनत व पैसे की जरूरत नहीं होती है. वे प्रमुख काम हैं, जैसे प्रमाणित व खरपतवाररहित बीजों का इस्तेमाल, सड़ीगली गोबर की खाद या कंपोस्ट का इस्तेमाल, बोआई के समय इस्तेमाल किए जाने वाले खेती के औजारों के इस्तेमाल से पहले अच्छी तरह से साफसफाई, सिंचाई के जरीए नालियों में उगे खरपतवारों का नियंत्रण वगैरह.

यांत्रिक विधि : निराईगुड़ाई कर के खरपतवारों के नियंत्रण करने का सदियों पुराना तरीका है, जो आज भी कारगर है. खरपतवारों को सुगमता से नष्ट किया जा सकता है. चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों को कल्टीवेटर चला कर खत्म किया जा सकता है.

निराईगुड़ाई से न केवल खरपतवारों को नियंत्रित किया जाता है, बल्कि पौधों की जड़ों को हवापानी भी मिलता है. साथ ही, मिट्टी में नमी बनी रहती है जिस से ज्यादा उत्पादन मिलता है.

आमतौर पर सरसों में 2 बार निराईगुड़ाई सही होती है जो बोआई के 2 और 5 हफ्ते बाद करनी चाहिए लेकिन निराईगुड़ाई हर जगह संभव नहीं है. मिश्रित खेती में तो यह बिलकुल भी संभव नहीं है.

दूसरी ओर मजदूरों के न मिलने और ज्यादा मजदूरी भी इस काम में रुकावट माने जाते हैं. फसल के अंदर एक से ज्यादा बार उगने व अलगअलग खरपतवारों के चलते कई बार निराईगुड़ाई करनी पड़ती है. इस वजह से फसल उत्पादन की लागत में बढ़ोतरी हो जाती है. ऐसी अवस्था में खरपतवारनाशकों का इस्तेमाल कर सुगमता से खरपतवारों पर नियंत्रण पाया जा सकता है.

रासायनिक प्रबंधन : परीक्षणों से पता चला है कि घास प्रजाति वाले खरपतवारों को आईसोप्रोटुरौन, प्यूपा पावर या टोपिक खरपतवारनाशक का 30-35 दिन बाद छिड़काव कर नियंत्रित किया जा सकता है.

फसल बोआई के तुरंत बाद पेंडीमिथेलिन 30 ईसी की 1.25 से 1.50 लिटर मात्रा को इस्तेमाल करना चाहिए. इस का छिड़काव करने के समय खेत में सही नमी का होना बेहद जरूरी है.

ज्यादातर तिलहनी फसलें बारिश पर निर्भर होती हैं. ऐसी स्थिति में खेत की ऊपरी सतह सूखी रहती है इसलिए जमीन पर डाले जाने वाले खरपतवारनाशकों की सिफारिश नहीं की जाती है क्योंकि सूखी जमीन में ये खरपतवारनाशक प्रभावशाली नहीं पाए जाते हैं.

ऐसी अवस्था में पेंडीमिथेलिन 30 ईसी की 1.25 से 1.50 लिटर मात्रा को बोआई से 7-10 दिन पहले डाल कर मिट्टी में मिलाने से बहुत से खरपतवार नष्ट हो जाते हैं.

जहां तक संभव हो, निराईगुड़ाई का तरीका ही अपनाएं. इन तरीकों को अपनाने से बीज की क्वालिटी बरकरार रहती है. साथ ही, फसल की पैदावार भी बढ़ जाती है.

मरगोजा परजीवी खरपतवार : लोकल भाषा में मरगोजा को रूखड़ी, खुंबी, गुल्ली वगैरह नामों से भी जाना जाता है. यह खरपतवार सरसों की खेती के लिए काफी नुकसानदायक है. इस खरपतवार की समस्या उन इलाकों में ज्यादा है, जहां पर सरसों की खेती हलकी रेतीली बालू जमीन में की जाती है.

मरगोजा खरपतवार एकवार्षिक पौधा है, जिस का फैलाव बीज द्वारा होता है. इस के बीज बहुत ही सूक्ष्म, अंडाकार, गहरे भूरेकाले रंग के होते हैं. इसे नंगी आंखों से देख पाना काफी मुश्किल है. इस की बीज उत्पादन और अंकुरण कूवत ज्यादा होती है.

इस बात का अनुमान इस से भी लगाया जा सकता है कि इस का एक पौधा 1-2 लाख बीज बनाने की कूवत रखता है. आमतौर पर जमीन में इस का बीज 10-15 साल तक पड़े रहने के बावजूद फिर से उग सकता है.

आमतौर पर यह देखा गया है कि खरपतवार जनवरी माह के आखिर तक जमीन के अंदर रह कर ही सरसों की फसल को नुकसान पहुंचाता है और फरवरी महीने में सही तापमान मिलने पर 7-10 दिन बाद फूल निकल आते हैं. फूल आने के 7-8 दिन बाद बीजों का बनना शुरू हो जाता है.

सरसों के पकने से पहले ही इस के बीज पक कर खेत में बिखर जाते हैं. कभीकभी सरसों की अगेती बोई गई फसल में 40-60 दिन बाद भी इस के पौधे दिखाई देते हैं.

दूसरे गैरपरजीवी खरपतवारों की अपेक्षा मरगोजा खरपतवार पर नियंत्रण पाने में काफी मुश्किल होती है इसलिए हमें ऐसे खरपतवारनाशक बिखेरने की जरूरत है जो सरसों की फसल को नुकसान पहुंचाए बिना इस से जुड़े परजीवी खरपतवारों को नियंत्रित कर सकें.

चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिक इस से होने वाले नुकसान और रोकथाम के लिए पिछले 14 सालों से अनुसंधान का काम कर रहे हैं.

परीक्षणों के आधार पर यह पता चला है कि जिस खरपतवारनाशी से मरगोजा का नियंत्रण किया जा सकता है, यदि उस खरपतवारनाशी का सही समय और सही मात्रा में उपयोग न किया जाए तो इस से सरसों की फसल को काफी नुकसान होने की संभावना बनी रहती है.

कृषि वैज्ञानिकों द्वारा किए गए शोध से यह नतीजा निकलता है कि ग्लाईफोसेट नामक खरपतवारनाशक की 25 मिलीलिटर मात्रा प्रति एकड़ बोआई के 30 दिन बाद व 50 मिलीलिटर मात्रा प्रति एकड़ बोआई के 55-60 दिन बाद डेढ़ सौ लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करने से मरगोजा का 60-90 फीसदी तक नियंत्रण होता है.

ध्यान रखें कि छिड़काव के समय या बाद में सही नमी का होना बेहद जरूरी है. इस के लिए छिड़काव से 2-3 दिन पहले या बाद में सिंचाई जरूर करें.

नोट : सुबह के समय जब पत्तों पर ओस या नमी हो, तब छिड़काव करें. दूसरा, छिड़काव करते समय ध्यान रखें कि स्प्रे फूलों पर न गिरे.

मरगोजा से बचाव के लिए सरसों के शुद्ध बीजों का इस्तेमाल करें. हमेशा प्रमाणित बीज ही बोएं. सरसों की फसल को हलकी रेतीली जमीन में न उगाएं, क्योंकि ऐसी जमीन में सरसों उगाने से मरगोजा का प्रकोप ज्यादा होता है.

सरसों (Mustard)

सरसों को सफेद रोली रोग से बचाएं

सरसों या राया में सफेद रोली रोग ‘एल्ब्यूगो’ नामक कवक से होता है. जड़ को छोड़ कर पौधे के सभी हिस्सों पर रोग के लक्षण दिखाई देते हैं. सब से पहले पत्तियों और तनों पर फफोले बनते हैं. ये फफोले उभरे हुए, चमकीले सफेद, गोल होते हैं. बड़े होने पर इन की बाहरी त्वचा फट जाती है, भीतर से कवक के बीजाणुओं का समूह पाउडर के रूप में निकलता है.

तनों और पुष्पक्रमों पर रोग का पूरा असर होता है. उत्तकों के ज्यादा बढ़ने से पुष्प अंग फूल जाते हैं. फलियों की जगह पर गुच्छे नजर आते हैं. सरसों की पैदावार में भारी कमी आती है.

रोकथाम

* फसल में ज्यादा सिंचाई न करें, जरूरत के मुताबिक ही सिंचाई करें.

* बारबार एक ही खेत में सरसों की फसल न उगाएं यानी फसल चक्र अपनाएं.

* साफ बीज का इस्तेमाल करें.

* बोआई से पहले बीजों को एपरौन 35 एसडी 6 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज से उपचारित करें.

* फल पर रोग के लक्षण दिखाई देते ही रिडोमिल एमजेड 0.2 फीसदी या मेंकोजेब 0.2 फीसदी का छिड़काव. 2 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल कर करें.

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