पिछले कुछ सालों में केंद्र और राज्य सरकारों ने बागबानी को बढ़ावा देने के लिए नीतियां बनाई हैं और बजट जारी किए हैं. सरकारी एजेंसियां जो ग्रामीण विकास के लिए जिम्मेदार हैं, उन्हें इस दिशा में काम करने का लक्ष्य दिया गया है. धीरेधीरे किसानों की समझ में भी आने लगा है कि जिस बागबानी से वे लाभ ले रहे हैं, उस की देखभाल करने के लिए अब नए तौरतरीकों का इस्तेमाल करना चाहिए.

बागबानी के मामले में भारत का दुनिया में दूसरा स्थान है. आम, केला, पपीता, काजू, आलू, भिंडी व सुपारी आदि के मामले में भारत पहले नंबर पर है. ग्रामीण इलाकों में बागबानी ही किसानों की निश्चित आय का जरीया है.

खेतीबारी से होने वाली आमदनी की भागीदारी 50 फीसदी से भी नीचे चली गई है, जबकि बागबानी से होने वाली आमदनी कृषि क्षेत्र की कुल आमदनी की 33 फीसदी हो गई है. इन आंकड़ों से पता चलता है कि किसानों की निर्भरता खेती के बजाय बागबानी पर तेजी से बढ़ रही है और किसान बागबानी के माध्यम से ज्यादा लाभ कमा रहे हैं.

भले ही कृषि अर्थव्यवस्था में बागबानी ने बढ़त बना ली है, लेकिन अभी भी इस का अर्थशास्त्र उतना सरल नहीं है. बागबानी के क्षेत्र में आ रही परेशानियां, शोध की धीमी रफ्तार, कीटनाशकों की बढ़ती कीमत और अन्य देशों के मुकाबले बागबानी की उत्पादकता को चर्चा का विषय नहीं माना जा रहा है.

किसानों की जीवनशैली सुधारने में बागबानी ने बहुत योगदान दिया है. लेकिन बागबानी की सफलता के साथसाथ कहीं न कहीं इस में नुकसान भी है, जैसे ज्यादा उत्पादन होने पर फलों की कीमतों में गिरावट होना.

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