देश में खरीफ सीजन में ली जाने वाली फसलों में प्रमुख रूप से धान की खेती होती है. दुनियाभर में की जाने वाली धान की खेती का तकरीबन 22 फीसदी हिस्सा भारत अकेले ही पैदा करता है. धान ही एकमात्र ऐसी फसल है, जिसे भारत में ली जाने वाली फसलों में सब से ज्यादा पानी की जरूरत होती है. धान में जितना पानी जरूरी है, उतना ही जरूरी इस में खरपतवार प्रबंधन, खाद उर्वरक प्रबंधन सहित इस के कीट और बीमारियों का प्रबंधन भी.

धान की खेती करने वाले किसान नर्सरी डालने से ले कर कटाई तक अगर सतर्कता न बरतें, तो उन्हें धान में कीट और बीमारियों के चलते भारी नुकसान भी उठाना पड़ता है. वैसे तो धान की फसल में कई तरह के कीट और बीमारियों का प्रकोप दिखाई देता है, जो धान की फसल को पूरी तरह से बरबाद कर देता है. लेकिन इन्हीं बीमारियों में एक खैरा ऐसी बीमारी है, जो पौध की बढ़ोतरी को पूरी तरह से प्रभावित कर देती है. ऐसी दशा में धान की फसल का उत्पादन पूरी तरह से घट जाता है.

धान में लगने वाली खैरा बीमारी जिंक यानी जस्ता की कमी की वजह से होती है. इस बीमारी को पहली बार साल 1996 उत्तर प्रदेश के तराई एरिया में देखा गया, जिस की पहचान कृषि वैज्ञानिक यशवंत लक्ष्मण नेने द्वारा की गई थी. उन्होंने पाया कि इस रोग के प्रभाव में आ कर धान की फसल की बढ़वार रुक गई थी.

यह है पहचान
धान की फसल को प्रभावित करने वाली खैरा बीमारी जिंक की कमी से होती है. धान की फसल में खैरा बीमारी की पहचान करना बेहद आसान है. नर्सरी में रोपी गई धान की पौध में यह छोटेछोटे चकत्ते के रूप में दिखाई पड़ती है. इस बीमारी के प्रभाव में आने के बाद धान की पत्तियों पर हलके पीले रंग के धब्बे बन जाते हैं, जो बाद में कत्थई रंग में बदल जाते हैं. इस के बाद इस की पत्तियां मुरझा जाती हैं और मृत हो जाती हैं. इस से धान के पौध में बौनापन आ जाता है और उत्पादन काफी कम हो जाता है.

खैरा बीमारी की चपेट में आने के बाद धान के पौध की जड़ें भी कत्थई रंग की हो जाती हैं. यह बीमारी पहले खेत के किसी एक सिरे से शुरू होती है और देखते ही देखते पूरी फसल को अपनी चपेट में ले लेती है. अगर बारिश कम हुई है और धूप तेज हो, तो यह बीमारी और भी घातक हो जाती है.

खैरा बीमारी की चपेट में आने के बाद फसल में दाने कम बनते हैं या बनते ही नहीं हैं. इस बीमारी की चपेट में आने के बाद फसल उत्पादकता लगभग 30 से 40 फीसदी तक घट जाती है. इसलिए फसल में बीमारी का प्रकोप होने ही न पाए. किसानों को नर्सरी डालने के समय से ही इस के प्रबंधन पर विशेष ध्यान देने की जरूरत होती है.

खैरा बीमारी से बचाव के लिए करें यह तैयारी

धान की फसल को खैरा बीमारी से बचाव के लिए रोपाई के पूर्व ही जब किसान खेत की तैयारी कर रहे हों, तो 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से जिंक का प्रयोग करना चाहिए. अगर धान की फसल में खैरा बीमारी का प्रकोप दिखाई पड़े तो प्रति हेक्टेयर की दर से 5 किलोग्राम जिंक सल्फेट और 25 किलोग्राम चूने को 600 से 700 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए. अगर बुझा हुआ चूना न मिल पाए, तो उस की जगह पर जिंक सल्फेट के साथ 2 फीसदी यूरिया का इस्तेमाल करना चाहिए.

खैरा बीमारी से बचाव के लिए डाली गई नर्सरी डालने के 10 दिनों के बाद पहला, 20 दिन बाद दूसरा छिड़काव करना चाहिए. किसान जब धान की फसल रोप चुके हों तो फसल रोपाई के 15 से 30 दिनों में तीसरा छिड़काव करना न भूलें.

धान की फसल में खैरा बीमारी से बचाव के लिए एक ही फसल में धान की फसल की रोपाई बारबार नहीं करनी चाहिए. ऐसा करने से मिट्टी में जिंक की कमी हो जाती है. इसलिए धान की फसल लेने के बाद उस खेत में उड़द या अरहर की खेती करने से जिंक की कमी दूर हो जाती है.

इस के अलावा धान की कई ऐसी उन्नत किस्में विकसित की गई हैं, जो खैरा बीमारी रोधी है. इसलिए इन किस्मों को उगाने पर जोर देना चाहिए. खेत में रासयनिक खाद के उपयोग में कमी ला कर जैविक खादों का उपयोग करना चाहिए.

पौधों के लिए जिंक का महत्व इसलिए है जरूरी

धान की फसल के लिए जिंक एक महत्वपूर्ण पोषक तत्व है. यह पौधे के लिए क्लोरोफिल उत्पादन को बढ़ाने में मदद करता है, जिस से पौधों को पर्याप्त भोजन मिलने में मदद मिलती है.

धान के लिए जिन 8 सूक्ष्म पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है, उस में जिंक सब से महत्वपूर्ण तत्व है. पौधों को जिंक की बहुत कम मात्रा की जरूरत होती है, लेकिन यह पौधे के विकास के लिए बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है.

जिंक पौधे में एंजाइमों को सक्रिय कर देता है, जो प्रोटीन संश्लेषण में मददगार होते हैं. अगर पौधे में जिंक की कमी हो जाए, तो इस से पौधे का रंग पीला पड़ जाता है. साथ ही, जिंक पौधे को ठंड का सामना करने में मदद करने के साथ ही पौध की रक्षा प्रणाली को भी मजबूत करता है.

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