भारत में बड़े पैमाने पर खेती की जाती है. जमीन उपजाऊ व किसान मेहनती हैं. पैदावार भी भरपूर होती है. बावजूद इस के ज्यादातर किसानों की माली हालत खराब है. दरअसल, जब मौसमी फसलें पक कर बाजार में आती हैं, तो आवक बढ़ने से उपज की कीमतें गिर जाती हैं. ऐसे में फायदा तो दूर, लागत भी मुश्किल से निकल पाती है. इस से नजात पाने के लिए खेती से कमाई के नए तरीके खोजने जरूरी हैं.
किसान नई तकनीक सीख कर फल, सब्जी, दलहन, तिलहन व अनाज की फसलों में से ज्यादातर की प्रोसेसिंग व डब्बाबंदी गांव में रह कर ही कर सकते हैं. कुछ किसान बजाय मंडी में अपनी उपज बेचने के सीधे बड़ी मिलों को बेच देते हैं, ताकि उन्हें ज्यादा कीमत मिले. बेशक यह तरीका कारगर है, लेकिन अब दाल, तेल व चावल आदि प्रोसेसिंग की मिनी मिलें आ गई हैं. किसान उन्हें लगा कर खुद भी आसानी से प्रोसेसिंग कर सकते हैं.
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद और वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद, सीएसआईआर दिल्ली के रिसर्च सैंटरों से मिनी मिलों व मशीनों की जानकारी हासिल की जा सकती है. रही बात तैयार माल को बेचने की, तो जब किसान अपनी उपज को कच्चे माल की तरह बेच लेते हैं, तो तैयार माल को भी बेचा जा सकता है. जिला उद्योग केंद्र, ग्रामोद्योग बोर्ड व खादी आयोग आदि भी प्रचार, नुमाइश करने व माल बिकवाने में काफी मदद करते हैं, लिहाजा उन से तालमेल बनाने की जरूरत है.
उत्पाद अनेक
आटा, मैदा, सूजी, दलिया, खील, बिस्कुट, ब्रेड, तेल, अचार, चटनी, मुरब्बा, जैम, जैली, टौफी, जूस, शरबत, चिप्स, बडि़यां, पापड़, नमकीन, पिसे मसाले, क्रीम, दही, पनीर, खोया, घी, मक्खन, कैचप व सास, आदि तमाम पैकेटबंद चीजें हमारे देश में बन और बिक रही हैं. अपनी कूवत व काबलीयत के मुताबिक उत्पाद बनाए व बेचे जा सकते हैं. जो भी उपज ज्यादा हो और बाजार में उस की कीमत वाजिब न मिल रही हो, तो उसी की प्रोसेसिंग की जा सकती है.
कीमत बढ़ाएं
सदियों से खेती बोआई से कटाई तक की हद में रही है, लेकिन अब खेती की लगातार बढ़ती लागत व घटते मुनाफे ने किसानों को खेती के सहायक धंधे करने के लिए सोचने पर मजबूर कर दिया है. साथ ही बेवजह के नुकसान घटाने की गरज से खेती के माहिर वैज्ञानिकों ने पोस्ट हारवेस्ट टैक्नोलौजी यानी कटाई के बाद की तकनीक अपनाने और वैल्यू एडीशन करने यानी उपज की कीमत बढ़ाने पर जोर दिया है.
उपज की कीमत बढ़ाने के लिए उसे बेहतर बनाया जाता है. उपज कोई भी हो कटाई के कुछ समय बाद ही वह नमी, फफूंदी, चूहे व कीड़ों आदि के कारण खराब होने लगती है. लिहाजा, धुआं दे कर या कीट व फफूंदनाशक दवाएं रख कर उसे महफूज किया जाता है. ठीक इसी तरह फूड प्रासेसिंग में भी होता है. खानेपीने की चीजों को लंबे समय तक महफूज बनाए रखने के लिए उन में प्रिजरविंग एजेंट यानी परिरक्षक डाले जाते हैं.
फलसब्जियों को सुखा कर या उन का अचार आदि डाल कर टिकाऊ बनाने का काम सदियों से घरों में औरतें बखूबी करती रही हैं. यह बात अलग है कि उन के तौरतरीके अलग होते थे. गौरतलब है कि पुराने जमाने में खानेपीने की चीजों को सड़ने से बचाने के लिए रासायनिक प्रिजर्वेटिव नहीं थे. लिहाजा मेवों, मसालों, फलों व सब्जियों को धूप, हवा या छाया में सुखा कर, जमा व बोतलबंदी कर टिकाऊ बनाया जाता था.
टिकाऊ बनाना
फलों व सब्जियों से बनी खानेपीने की चीजों को लंबे वक्त तक टिकाऊ बनाने के लिए कुदरती तरीकों का इस्तेमाल हमारे देश में सदियों से होता रहा है. पुराने जमाने में खानेपीने की चीजों को लंबे समय तक महफूज रखने के लिए नमक, शक्कर, शहद, लौंग, नीबू, अजवायन, दालचीनी व सिरका आदि का इस्तेमाल कुदरती प्रिजर्वेटिव्स के तौर पर किया जाता था, ताकि फफूंदी न लगे.
इन घरेलू नुसखों के इस्तेमाल से सामान व सेहत दोनों के खराब होने की आशंका नहीं होती. दादीनानी अपने घरेलू नुसखों के बलबूते ही अचार, चटनी, मुरब्बे, बड़ी व पापड़ आदि बहुत सी चीजों को टिकाऊ बना कर लंबे वक्त तक खाने लायक बनाए रखती थीं.
प्रिजर्वेटिव्स
फूड प्रोसेसिंग के काम में प्रिजर्वेटिव्स यानी टिकाऊ बनाए रखने वाले कैमिकल्स का इस्तेमाल बहुत अहम होता है. तुरंत व तेज असरकारी नए रासायनिक प्रिजर्वेटिव्स खानेपीने की चीजों को खराब होने से बचाने में कारगर हैं, लेकिन इन के इस्तेमाल में सावधानी बरतना बहुत जरूरी है.
यही वजह है कि दुनिया भर के मुल्कों में इन के इस्तेमाल के मानक तय किए गए हैं. जागरूक ग्राहक कैमिकल रहित खाद्य उत्पाद खरीदने को तरजीह देते हैं. लिहाजा, औरगैनिक फार्मिंग की तरह जल्द ही प्रिजर्वेटिव्स रहित खाद्य उत्पादों का बाजार भी बहुत तेजी से बढ़ेगा.
अब खानपान में जागरूकता बहुत तेजी से बढ़ रही है. ज्यादातर ग्राहक हैल्दी फूड्स की तलाश में रहते हैं. वे इस बात पर भी गौर करते हैं कि माल की क्वालिटी कैसी है? उस के अंदर क्याक्या चीजें शामिल हैं. बहुत सी नामी कंपनियां रंग व रसायन के बगैर टमाटर सास व फलों के जूस आदि उत्पाद बना कर ऊंची कीमतों पर बेच रही हैं. आगे ऐसे उत्पादों की मांग और बढ़ेगी, लिहाजा, किसान इस से फायदा उठा सकते हैं.
फूड प्रोसेसिंग के लिए प्रिजर्वेटिव्स यानी परिरक्षकों की पूरी जानकारी होना बेहद जरूरी है. प्रिजर्वेटिव्स खानेपीने की चीजों को टिकाऊ बना कर खराब होने से रोकते हैं. सोडियम बैंजोएट, बैंजोइक एसिड व लैक्टिक एसिड आदि कई तरह के प्रिजर्वेटिव्स अब आसानी से बाजार में मिलते हैं व धड़ल्ले से इस्तेमाल होते हैं.
तालीम
राज्यों के उद्यान एवं फल सरंक्षण विभाग, ग्रामोद्योग बोर्ड, खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग, कृषि विश्वविद्यालयों के प्रसार विभाग या फूड प्रोसेसिंग की किसी निजी इकाई में काम कर के खाद्य प्रसंस्करण का काम सीखा जा सकता है. सीखने के बाद गांव में ही अपनी इकाई लगाई जा सकती है.
फूड प्रोसेसिंग इकाई लगाने व चलाने से पहले लाइसैंस व छूट आदि की जानकारी जिला उद्योग केंद्र या ग्रामोद्योग के दफ्तर से हासिल कर सकते हैं. तैयार उत्पादों की क्वालिटी को हमेशा उम्दा और कीमतें वाजिब बनाए रखने का ध्यान जरूर रखें, ताकि बाजार में दिग्गजों के बीच ठहरा जा सके व ग्राहकों के दिलों में आसानी से जगह बनाई जा सके. पहले छोटे पैमाने पर काम शुरू कर के बाद में उसे बढ़ाया जा सकता है.
मेरठ में अचार, चटनी व मुरब्बे जैसे करीब 50 उत्पाद बना रहे गृहउद्योग तृप्ति फूड्स की शुरुआत में नीबू का सिर्फ 12 बोतल स्क्ैवश बना कर बेचा गया था. उस की क्वालिटी व वाजिब कीमत का असर यह हुआ कि खूब मांग बढ़ी व काम बहुत तेजी से बढ़ा. इस उद्यमी का मानना है कि इस काम में ईमानदारी ही तरक्की की बुनियाद है. मसलन, अनानास की चटनी में वे कभी भी कच्चे पपीते व एसेंस की मिलावट नहीं करते.
प्रोसेसिंग के काम में पैकेजिंग की भी बहुत अहमियत होती है. आजकल पैकिंग की दुनिया में बहुत तेजी से बदलाव हुए हैं. मसलन, टीन के डब्बों व कांच की बोतलों जैसी पुरानी पैकिंगों में माल तैयार करने वाले निर्माता अब बहुत कम रह गए हैं. अब पौलीपैक, पाउचपैक, अल्यूमिनियम पैक, प्लास्टिक पैक व टैट्रा पैक ज्यादा दिखाई देते हैं. प्रोसेसिंग का काम शुरू करने से पहले यह तय करना बेहद जरूरी है कि तैयार माल की पैकिंग कैसी होगी? अब हर तरह की पैकिंग की छोटीबड़ी, मैनुअल व आटोमैटिक मशीनें देश में असानी से मिलने लगी हैं. जरूरत हिचक छोड़ कर मन बनाने व आगे आ कर पहल करने की है.