केकरोल यानी ककोरा, खेक्सा एक बहुवर्षीय कद्दूवर्गीय फसल है. इस के पौधे हिमालय की निचली पहाडि़यों, मध्य प्रदेश, झारखंड की राजगिरी पहाडि़यों, महाराष्ट्र, असम और पश्चिम बंगाल में जंगली पौधों के रूप में उगते हैं. इस के फलों को सब्जी के लिए इस्तेमाल किया जाता है. उत्तरी भारत में इस के फल जुलाई से अक्तूबर तक मौजूद रहते हैं. केकरोल में काफी मात्रा में प्रोटीन व विटामिन पाए जाते हैं.
जलवायु : केकरोल गरम व नम जलवायु की फसल है. इस फसल को कम से कम 25-30 डिगरी सेल्सियस तापमान की जरूरत रहती है.
जमीन का चयन : केकरोल एक सख्त फसल है. इसे हर तरह की जमीन में उगाया जा सकता है. इस फसल को उगाने के लिए अच्छे जल निकास वाली दोमट जमीन जिस का पीएच मान 6-7 के बीच हो, अच्छी मानी जाती है.
खेत की तैयारी : केकरोल की अच्छी पैदावार लेने के लिए खेत की तैयारी बहुत जरूरी है. पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से 20-25 सेंटीमीटर गहरी करनी चाहिए. इस के बाद 2-3 बार देशी हल या कल्टीवेटर से जुताई करते हैं. हर जुताई के बाद पाटा लगा कर खेत को समतल करते हैं. आखिरी जुताई के समय गोबर की सड़ी खाद या कंपोस्ट खाद खेत में जरूर मिला देनी चाहिए.
पौधे से पौधे व लाइन से लाइन की दूरी : इस फसल के लिए पौधे से पौधे की दूरी 90-100 सेंटीमीटर रखते हैं और लाइन से लाइन की दूरी भी 90-100 सेंटीमीटर रखते हैं. इसी के आधार पर खेत में थालों का निर्माण किया जाता है. यदि हर पौधे की दूरी 1 मीटर हो और हर लाइन का फासला भी 1 मीटर हो तो इसी आधार पर हमें खेतों में गड्ढों की तैयारी करनी चाहिए. इस तरह 1 हेक्टेयर खेत में 10000 गड्ढे खोदे जा सकते हैं.
यदि यह दूरी कम की जाए तो और ज्यादा गड्ढे खोदने पड़ेंगे. यदि पौधों व लाइनों की दूरी 1 मीटर से ज्यादा रखते हैं, तो गड्ढे कम खोदने पड़ेंगे. पौधों की संख्या पक्की करने के बाद हमें 45×45×45 सेंटीमीटर आकार के गड्ढे खोदने चाहिए. गोबर की सड़ी खाद, नीम की खली, नाइट्रोजन व अन्य उर्वरक मिट्टी में मिला कर गड्ढों की भराई करें.
इस के बाद गड्ढों के आधार पर ही नालियां भी बनाएं. गड्ढों को इस तरह भरा जाता है कि वे अपनी जगह से थोड़े उठे हों, जिस से सिंचाई के बाद बैठी हुई मिट्टी खेत के स्तर से ऊपर रहे. सिंचाई के 3-4 दिनों बाद खेत की अच्छी तरह गुड़ाई कर देते हैं. इस तरह खेत की तैयारी पूरी हो जाती है.
बोआई का समय : मैदानी इलाकों में इस की गांठदार जड़ों की बोआई का सही समय गरमी की फसल के लिए फरवरीमार्च और बारिश की फसल के लिए सितंबरअक्तूबर होता है. फरवरीमार्च में बोई गई फसल के लिए सिंचाई जरूरी है. इस की फसल को पानी की कमी नहीं होनी चाहिए. दोनों मौसमों में पानी ज्यादा होने पर फसल मर जाती है, इसलिए जल निकासी की सही व्यवस्था होनी चाहिए.
बोआई/रोपाई : केकरोल के बीजों को फसल से इकट्ठा करने के बाद एकदम उन की बोआई नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इस के बीज 5-6 महीने तक सूखी दशा में रहते हैं. वैसे 1 हेक्टेयर खेत की बोआई के लिए 3-5 किलोग्राम बीज की जरूरत पड़ती है. बोने से पहले बीजों को 24 घंटे के लिए 0.2 फीसदी कार्बेंडाजिम के घोल में भिगो लेना चाहिए. इस से बीजों का उपचार होता है.
इस के बीज करेले के बीजों की तरह कड़े होते हैं, इसलिए बीजों को भिगोना बहुत जरूरी है. बीज भिगो कर बोने से अंकुरण अच्छा होता है. यदि इन्हें बिना भिगोए बोते हैं, तो ये जमीन में काफी समय तक पड़े रहते हैं. यदि बीजों द्वारा फसल की बोआई करते हैं, तो फसल में फल आने में 2-3 साल लग जाते हैं. इस तरह की फसल में 50 फीसदी मादा और 50 फीसदी नर बेलें उगती हैं. हर थाले में 9-10 बीजों को बोना चाहिए. उगने के बाद 4-5 पौधे हर थाले में छोड़ने की जरूरत होती है.
जड़कंदों की बोआई : इस फसल के जड़कंद सूखी हालत में नहीं रहते और इन से स्वस्थ पौधे जल्दी उग आते हैं. फसल की अच्छी पैदावार के लिए नर व मादा जड़ों को अलगअलग करना चाहिए. फसल उगाने के लिए 1:9 के अनुपात में नर व मादा जड़ों को लिया जाता है. ये जड़कंद कम से कम 2-3 साल पुरानी फसल से लेने चाहिए.
इन्हें फूलों के निकलने पर और फल लगने से पहचाना जाता है, क्योंकि फल हमेशा मादा पौधों पर ही लगते हैं. औसतन जड़कंदों के वजन के आधार पर 80 से 120 ग्राम के जड़कंदों को ही फसल के लिए लेना चाहिए. जड़कंदों का वजन यदि 200 ग्राम के करीब हो, तो उन्हें काट कर भी बोया जा सकता है, लेकिन ध्यान रहे कि हर जड़कंद के कटे भाग में 2 आंखें जरूर हों. कटे जड़कंदों को 0.2 फीसदी डाइथेन एम 45 और सैराडिक्स बी नंबर 1 पाउडर से उपचारित करना चाहिए. उस के बाद उन्हें छाया में सुखाना चाहिए. जड़कंदों को तैयार खेत के थालों में सीधे बोया जा सकता है. हर थाले में कम से कम 4 मादा और 1 नर जड़कंद की रोपाई करते हैं.
खाद और उर्वरक : केकरोल एक बहुवर्षीय पौधा है, जो कई सालों तक फल देता है. इस फसल की रोपाई उस खेत में करनी चाहिए, जिस में ज्यादा कार्बनिक जीवाश्म की मात्रा मौजूद हो. इस तरह के खेतों में इस फसल की बढ़ोतरी जल्दी होती है. इस की अच्छी पैदावार के लिए पहले साल 20-25 टन गोबर की सड़ी खाद या कंपोस्ट खाद प्रति हेक्टेयर की दर से जुताई के दौरान देनी चाहिए. इस फसल को पहले साल 30 किलोग्राम नाइट्रोजन, 30 किलोग्राम फास्फोरस और 30 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देने की जरूरत होती है.
नाइट्रोजन की आधी मात्रा गड्ढे भरते समय देनी चाहिए और बाकी आधी मात्रा जब फसल 30-35 दिनों की हो जाए तो टापड्रेसिंग विधि से फसल की जड़ों के इर्दगिर्द दे कर फसल की गुड़ाई कर के हलकी मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए. जब फसल से फलों की तोड़ाई की जाती है, तो फसल की निराईगुड़ाई के बाद गोबर की सड़ी खाद या कंपोस्ट खाद 15-20 टन प्रति हेक्टेयर की दर से हर साल जरूर देनी चाहिए.
खरपतवारों की रोकथाम : इस फसल को खरपतवारों से काफी नुकसान होता है, इसलिए इस की 2-3 बार निराईगुड़ाई जरूर करनी चाहिए. फसल की रोपाई के 20-25 दिनों बाद पहली निराईगुड़ाई करनी चाहिए. इस के बाद 15-15 दिनों पर 2 बार निराईगुड़ाई करनी चाहिए. यह बेल वाली फसल है और बेल के लिए मचान बनाना चाहिए. इस की बेलें 1.5-1.75 मीटर तक बढ़ती हैं.
सिंचाई : इस की सिंचाई मिट्टी की किस्म और वातावरण पर निर्भर करती है. खरीफ की खेती में सिंचाई की जरूरत नहीं रहती, लेकिन बारिश न होने पर सिंचाई की जरूरत पड़ती है. ज्यादा बारिश के पानी के निकास के लिए नालियों का होना बहुत जरूरी है, वरना फसल खराब होने का खतरा रहता है. गरमी में ज्यादा तापमान होने की वजह से मार्चअप्रैल में 6-7 दिनों और मईजून में 4-5 दिनों के अंतराल से सिंचाई करना जरूरी है. रोपाई के बाद हलकी सिंचाई जरूर करें.
फलों की तोड़ाई : फसल की रोपाई के बाद 50-60 दिनों के भीतर फसल तोड़ाई लायक हो जाती है. लगने के 12 दिनों के भीतर फल तोड़ लेने चाहिए, क्योंकि 25-30 दिनों में फल पक जाते हैं, जो सब्जी लायक नहीं रहते. मुलायम फल ही सब्जी के इस्तेमाल में आते हैं. हरे फलों में पोषक तत्त्व भरपूर मात्रा में रहते हैं. फलों की तोड़ाई के बाद उन्हें जल्दी से जल्दी बाजार में बेचने के लिए भेज देना चाहिए.
पैदावार : इस फसल से औसतन 16-18 टन पैदावार प्रति हेक्टेयर मिल जाती है. यदि इस की देखरेख सही तरीके से की जाए, तो इस की पैदावार में और इजाफा हो सकता है.