ताजगी से भरपूर लौकी कद्दूवर्गीय सब्जी है. इस में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट व खनिज लवण के अलावा प्रचुर मात्रा में विटामिन पाए जाते हैं. लौकी की खेती पहाड़ी इलाकों से ले कर दक्षिण भारत के राज्यों तक की जाती है. निर्यात के लिहाज से सब्जियों में लौकी खास है.

आबोहवा

लौकी की अच्छी पैदावार के लिए गरम व आर्द्रता वाले रकबे मुनासिब होते हैं. इस की फसल जायद व खरीफ दोनों मौसमों में आसानी से उगाई जाती है. इस के बीज जमने के लिए 30-35 डिगरी सैंटीग्रेड और पौधों की बढ़वार के लिए 32 से 38 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान मुनासिब होता है.

मिट्टी और खेत की तैयारी

बलुई, दोमट व जीवांश से भरपूर चिकनी मिट्टी, जिस में पानी के सोखने की कूवत अधिक हो और जिस का पीएच मान 6.0-7.90 हो, लौकी की खेती के लिए मुनासिब होती है. पथरीली या ऐसी भूमि जहां पानी भरता हो और निकासी का अच्छा इतंजाम न हो, इस की खेती के लिए अच्छी नहीं होती है.

खेत की तैयारी के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और बाद में 2-3 जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करें. हर जुताई के बाद खेत में पाटा चला कर मिट्टी को भुरभुरी व इकसार कर लेना चाहिए ताकि खेत में सिंचाई करते समय पानी बहुत कम या ज्यादा न लगे.

खाद व उर्वरक

अच्छी उपज हासिल करने के लिए 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 35 किलोग्राम फास्फोरस व 30 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए. नाइट्रोजन की आधी मात्रा और फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय देनी चाहिए. बची हुई नाइट्रोजन की आधी मात्रा 4-5 पत्ती की अवस्था में और बची आधी मात्रा पौधों में फूल बनने से पहले देनी चाहिए.

बीज की मात्रा

सीधी बीज बोआई के लिए 2.5-3 किलोग्राम बीज 1 हेक्टेयर के लिए काफी होता है. पौलीथिन के थैलों या नियंत्रित वातावरण युक्त गृहों में नर्सरी उत्पादन करने के लिए प्रति हेक्टेयर 1 किलोग्राम बीज ही काफी होता है.

बोआई का समय

आमतौर पर लौकी की बोआई गरमी यानी जायद मौसम में 15 फरवरी से 25 फरवरी तक और बरसात यानी खरीफ मौसम में 15 जून से 15 जुलाई तक कर सकते हैं. पहाड़ी इलाकों में बोआई मार्चअप्रैल माह में की जाती है.

बोआई की विधि

लौकी की बोआई के लिए गरमी के मौसम में 2.5-3.5 मीटर व बारिश के मौसम में 4-4.5 मीटर की दूरी पर 50 सैंटीमीटर चौड़ी  व 20 से 25 सैंटीमीटर गहरी नालियां बना लेते हैं. इन नालियों के दोनों किनारे पर गरमी में 60 से 75 सैंटीमीटर व बारिश में 80 से 85 सैंटीमीटर फासले पर बीजों की बोआई करते हैं. एक जगह पर 2 से 3 बीज 4-5 सैंटीमीटर की गहराई पर बोने चाहिए.

सिंचाई

खरीफ मौसम में खेत की सिंचाई करने की जरूरत नहीं होती, पर बारिश न होने पर 10 से 15 दिनों के बाद सिंचाई की जरूरत पड़ती है.

अधिक बारिश की हालत में पानी निकालने के लिए नालियों का गहरा व चौड़ा होना जरूरी है. गरमी में ज्यादा तापमान होने के कारण 4-5 दिनों के फासले पर सिंचाई करनी चाहिए.

निराईगुड़ाई

आमतौर पर खरीफ मौसम में या सिंचाई के बाद खेत में काफी खरपतवार उग आते हैं, लिहाजा उन को खुरपी की मदद से 25 से 30 दिनों में निराई कर के निकाल देना चाहिए.

पौधों की अच्छी बढ़वार के लिए 2 से 3 बार निराईगुड़ाई कर के जड़ों के पास मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए. रासायनिक खरपतवारनाशी के रूप में ब्यूटाक्लोरा रसायन की 2 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई के तुरंत बाद छिड़कनी चाहिए.

कीड़ों की रोकथाम

कद्दू का लाल कीट रैड पंपकिन बीटल : इस कीट का प्रौढ़ चमकीले नारंगी रंग का होता है. इस की सूंड़ी व प्रौढ़ दोनों ही जमीन के अंदर पाए जाते हैं और नुकसान पहुंचाते हैं. ये प्रौढ़ पौधों की छोटी पत्तियों को ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं. सूंड़ी पौधों की जड़ काट कर नुकसान पहुंचाती है, वहीं प्रौढ़ कीट खासतौर पर मुलायम पत्तियां अधिक पसंद करते हैं. इस कीट के अधिक आक्रमण से पौधे पत्तीरहित हो जाते हैं.

रोकथाम

* सुबह ओस पड़ने के समय राख का बुरकाव करने से प्रौढ़ कीट पौधों पर नहीं बैठते हैं, जिस से नुकसान कम होता है.

* जैविक विधि से रोकथाम के लिए अजादीरैक्टिन 300 पीपीएम 5 से 10 मिलीलिटर या अजादीरैक्टिन 5 फीसदी 0.5 मिलीलिटर की दर से 2 या 3 बार छिड़कने से फायदा होता है.

* इस कीट का अधिक प्रकोप होने पर डाईक्लोरोवास 76 ईसी 1.25 मिलीलिटर या ट्राइक्लोफेरान 50 ईसी 1 मिलीलिटर या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एमएल 0.5 मिलीलिटर की दर से 10 दिनों के अंतराल पर छिड़कें.

फल मक्खी : इस कीट की सूंड़ी फसल को नुकसान पहुंचाती है. प्रौढ़ मक्खी गहरे भूरे रंग की होती है. इस के सिर पर काले व सफेद धब्बे पाए जाते हैं. प्रौढ़ मादा छोटे मुलायम फलों के अंदर अंडे देना पसंद करती है. अंडों से ग्रब्स सूंड़ी निकल कर फलों के अंदर का भाग खा कर खत्म कर देते हैं. ये कीट फल के जिस भाग पर अंडे देते हैं, वह भाग वहां से टेढ़ा हो कर सड़ जाता है और नीचे गिर जाता है.

रोकथाम

* गरमी की गहरी जुताई या पौधे के आसपास खुदाई करें ताकि मिट्टी की निचली परत खुल जाए जिस से फल मक्खी का प्यूपा धूप द्वारा नष्ट हो जाए.

* फल मक्खी द्वारा खराब किए गए फलों को इकट्ठा कर के खत्म कर देना चाहिए.

* नर फल मक्खी को नष्ट करने के लिए प्लास्टिक की बोतलों को इथेनाल कीटनाशक डाईक्लोरोवास या कार्बारिल या मैलाथियान क्यूल्यूर को 6:1:2 के अनुपात के घोल में लकड़ी के टुकड़े को डुबा कर 25 से 30 फंदे खेत में स्थापित कर देने चाहिए. कार्बारिल 50 डब्ल्यूपी, 2 ग्राम प्रति लिटर पानी या मैलाथियान 50 ईसी 2 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी को ले कर 10 फीसदी शीरा या गुड़ में मिला कर जहरीले चारे को 1 हेक्टेयर खेत में 250 जगहों पर इस्तेमाल करना चाहिए.

* प्रतिकर्षी 4 फीसदी नीम की खली का इस्तेमाल करें, जिस से जहरीले चारे की ट्रैपिंग की कूवत बढ़ जाए. जरूरत पड़ने पर कीटनाशी जैसे क्लोरेंट्रानीलीप्रोल 18.5 एससी 025 मिलीलिटर या डाईक्लारोवास 76 ईसी 1.25 मिलीलिटर का प्रति लिटर पानी की दर से छिड़काव कर सकते हैं.

खास रोग व रोकथाम

चूर्णिल आसिता : रोग की शुरुआत में पत्तियों और तनों पर सफेद या धूसर रंग पाउडर जैसा दिखाई देता है. कुछ दिनों के बाद ये धब्बे चूर्ण भरे हो जाते हैं. सफेद चूर्णी पदार्थ आखिर में समूचे पौधे की सतह को ढक लेता है. अधिक प्रकोप के कारण पौधे जल्दी बेकार हो जाते हैं. फलों का आकार छोटा रह जाता है.

रोकथाम

* इस की रोकथाम के लिए खेत में फफूंदनाशक दवा जैसे ट्राइडीमोर्फ 0.05 फीसदी 1 लिटर पानी में घोल कर 7 दिनों के फासले पर छिड़काव करें. इस दवा के न होने पर फ्लूसिलाजोल 1 ग्राम प्रति लिटर पानी या हेक्साकोनाजोल 1.5 मिलीलिटर पानी की दर से छिड़काव करें.

मृदुरोमिल आसिता : यह रोग बारिश या गरमी वाली फसलों में बराबर लगता है. उत्तरी भारत में इस रोग का हमला ज्यादा होता है. इस रोग की खास पहचान पत्तियों पर कोणीय धब्बे पड़ना है. ये कवक पत्ती के ऊपरी भाग पर पीले रंग के होते हैं और नीचे की तरफ रोएंदार बढ़वार करते हैं.

रोकथाम

* इस रोग के लिए बीजों को मैटालिक्सला नामक कवकनाशी की 3 ग्राम दवा से प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित कर के बोना चाहिए और मैंकोजेब 0.25 फीसदी का छिड़काव रोग की पहचान होने के तुरंत बाद फसल पर करना चाहिए.

* यदि संक्रमण भयानक हालत में हो तो मैटालैक्सिल व मैंकोजेब का 2.5 ग्राम प्रति लिटर पानी की दर से या डाईमेयामर्फ का 1 ग्राम प्रति लिटर पानी व मैटीरैम का 2.5 ग्राम प्रति लिटर पानी की दर से 7 से 10 दिनों के फासले पर 3 से 4 बार छिड़काव करें.

फलों की तोड़ाई व उपज

लौकी के फलों की तोड़ाई मुलायम हालत में करनी चाहिए. फलों का वजन किस्मों पर निर्भर करता है. फलों की तोड़ाई डंठल लगी अवस्था में किसी तेज चाकू से करनी चाहिए. तोड़ाई 4 से 5 दिनों के अंतराल पर करनी चाहिए ताकि पौधों पर ज्यादा फल लगें. औसतन लौकी की उजप 350 से 500 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.


लौकी की उन्नत प्रजातियां

काशी गंगा- पौधे मध्यम बढ़वार वाले, तनों पर गांठें कम दूरी पर, फल मध्यम लंबे, औसत भार 800-900 ग्राम, गरमी के मौसम में 50 दिनों बाद व बरसात में 55 दिनों बाद फलों की पहली तोड़ाई की जा सकती है.

काशी बहार- फल हलके हरे, 780-850 ग्राम वजन वाले होते हैं, गरमी व बरसात दोनों मौसमों के लिए मुनासिब किस्म.

पूसा नवीन- फल बेलनाकार सीधे, लगभग 550 ग्राम वजन के होते हैं.

अर्का बहार- फल सीधे, मध्यम आकार के लगभग 1 किलोग्राम वजन के और हरे रंग के होते हैं.

नरेंद्र रश्मि- फल हलके हरे व छोटे होते हैं, पौधों पर चूर्णिल व मृदुरोमिल आसिता का प्रकोप कम होता है.

पूसा संदेश- पौधे मध्यम लंबाई के, फल गोलाकार व लगभग 600 ग्राम वजन के होते हैं, बरसात वाली फसल से 55 से 60 दिनों बाद, गरमी वाली फसल से 60 से 65 दिनों बाद फलों की पहली तोड़ाई की जा सकती है.

पूसा समर प्रोलीफिक लौंग– फल 40-50 सैंटीमीटर लंबे होते हैं.

पूसा समर प्रोलीफिक राउंड- फल गोल, अधिक उत्पादन देने वाली किस्म, दोनों मौसमों के लिए मुनासिब.

पूसा संतुष्टि- दोनों मौसमों के लिए मुनासिब, फलों का विकास कम व ज्यादा तापमान में भी होता है.

एनडीबीजी 619- फल मनमोहक, बेलनाकार, जल्दी फल देने वाली किस्म.

पूसा संकर 3- फल हरे, सीधे, लंबे, पैकिंग कर के दूर ले जाने में आसान, तोड़ाई 55 से 60 दिनों में, गरमी व खरीफ मौसमों के लिए मुनासिब.

पूसा मेघदूत- फल हरे, लंबे, गरमी व खरीफ मौसमों के लिए सही.

पूसा मंजरी- फल गोल, अधिक उत्पादन देने वाली किस्म, दोनों मौसमों के लिए मुनासिब.

पूसा नवीन- फल हरे, 30- 40 सैंटीमीटर लंबे, दूर तक ले जाने के लिए मुनासिब.

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