प्रकृति द्वारा कृषि संकट के पहलू पर ध्यान दें, तो यह कोई कम गंभीर समस्या नहीं है. खेती में मुनाफा कम होने की वजह से जमीन का ठेका (किराया) मूल्य कम हो गया है. लगातार परिवारों के बढ़ने से खेती की जमीन लगातार बंट रही है, जिस से कृषि इकाई व्यावहारिक नहीं रह गई है. 15 फीसदी से ज्यादा ग्रामीण भूमिहीन हो गए हैं.

भारत में 75 फीसदी खेत 2 हेक्टेयर से कम नाप के हैं और इन में से दोतिहाई 1 हेक्टेयर से कम नाप के हैं. इस तरह की जोतों का हिस्सा और उन का इलाका दिन दूना रात चौगुना बढ़ रहा है.

कृषि अर्थशास्त्रियों के मुताबिक, पंजाब के 1 हेक्टेयर से कम जोत वाले किसान परिवार की आमदनी राज्य सरकार के चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के वेतन से भी कम है और 2 हेक्टेयर से छोटी जोत वाले किसान की आमदनी राज्य सरकार में एक बाबू के मासिक वेतन से भी कम है. कृषि संकट के सामाजिक और आर्थिक पहलुओं पर नजर डालें तो पाते हैं कि खेती अब फायदेमंद धंधा नहीं रहा है.

कृषि उत्पादकता गिर रही है, जबकि कृषि सामग्री की कीमतें लगातार बढ़ती जा रही हैं. कर्जदारी तेजी से बढ़ रही है. इस निराशा और हताशा भरी हालत का कोई हल न दिखाई देने से आमतौर पर किसान आत्महत्या जैसा कायरतापूर्ण कदम उठा रहे हैं. जो राज्य तुलनात्मक तौर पर ज्यादा विकसित हैं, उन में 1995-2005 के बीच तकरीबन 20 हजार किसानों ने आत्महत्याएं की हैं. इन में से ज्यादातर सीमांत और छोटे किसान थे, जिन के पास सुविधाएं कम थीं और उन्होंने खेती के लिए कर्ज लिया था.

सरकारी अनदेखी के चलते आर्थिक तंगी के दौर से गुजर रहे कृषि क्षेत्र में पिछले सालों से कोई भी कैपिटल इनवेस्टमेंट कर के खतरा मोल लेने को राजी नहीं था. इसीलिए पिछले 15 सालों से कृषि विकास दर प्रमुख राज्यों में बेकार यानी निम्न स्तर पर ही रही. ऐसे हालात में अब कारपोरेट सैक्टर ने कृषि क्षेत्र में भारी बदलाव करने का बीड़ा उठाया है.

सरकार ने किसानों के साथ उद्योग जगत को भी एक नया संदेश दिया है. इस का मतलब साफ है कि किसानों को परंपरागत खेती का रास्ता छोड़ कर आर्थिक क्रांति के नए प्रबंधकों से तालमेल बैठाना होगा. कृषि के ढांचे को मजबूत कर के भारत भी विकसित देशों की कतार में खड़ा हो सकता है. शायद यही संदेश भारती या रिलायंस जैसी कंपनियां देना चाहती हैं, जो खेती के मौजूदा हालात से बखूबी वाकिफ होने के बावजूद इस क्षेत्र में निवेश करने की पहल कर रही हैं.

कंपनियों का रुख देखते हुए यह अनुमान लगाया जा रहा है कि आने वाले 5 सालों में इस सैक्टर में हजारों करोड़ का भारीभरकम निवेश होगा. देश की प्रमुख कारपोरेट सैक्टर की कंपनियों की नजर अब भारतीय कृषि क्षेत्र पर लगी है.

इन कंपनियों का मकसद भी एकदम साफ है. वे मुकाबले के इस दौर में भारतीय किसानों को अंतर्राष्ट्रीय बाजार के साथ कदम से कदम मिला कर चलने की कला सिखाना चाहती हैं. अपने कारोबार के साथ कंपनियां चाहती हैं कि भारतीय किसान उन के प्रोजेक्टों के माध्यम से खेती की आधुनिक तकनीक में माहिर हो जाएं और ऐसी फसलें पैदा करें, जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय बाजार में हाथोंहाथ लिया जाए. इस के लिए एक माहौल तैयार करने की जरूरत है. लिहाजा रिलांयस और भारती जैसी कंपनियों ने पंजाब को मौडल बना कर कारपोरेट एग्रीकल्चर की पहल की है.

पिछले समय में किसानों को खेती करने के ज्यादा उपाय नहीं दिए गए थे. उन्हें पुराने तरीकों से ही खेती करने को मजबूर किया जा रहा था, लेकिन अब आने वाले दिनों में तसवीर बदलने वाली है. राज्य के किसान कारपोरेट घरानों के सहारे विश्व बाजार में अपनी साख कायम कर सकेंगे. जानकारों की राय है कि देश के संगठित क्षेत्र में आ रही रिटेल कंपनियों को उम्दा और ग्रेडिंग वाली फलसब्जियों की काफी जरूरत है. आने वाले दिनों में यह बाजार तेजी से बढ़ने वाला है.

क्रांति (Corporate Revolution)

मौजूदा दौर में लोग अच्छी किस्म का सामान ही खरीदना चाहते हैं. ऐसे में ब्रांडेड फलसब्जियों की मांग में लगातार इजाफा हो रहा है. कई कंपनियों ने रीटेल चेन की शुरुआत भी कर दी है. कंपनियां देश के चुनिंदा शहरों में बड़े स्तर पर फलसब्जी के और्गनाइज्ड रीटेल शोरूम खोलने जा रही हैं. लिहाजा कारपोरेट एग्रीकल्चर घरेलू के साथसाथ विश्व बाजार की जरूरतों को भी पूरा करने में समर्थ होगा.

पंजाब में 1 लाख हेक्टेयर जमीन में हाईवैल्यू फसलों की खेती ठेके पर कराने की मुहिम को प्रोत्साहन दिया जा रहा है. राज्य में कम हो रहे पानी के स्तर से चिंतित सरकार भी माइक्रो इरीगेशन और क्लाइमेट कंट्रोल की तकनीक अपना कर स्थिति में सुधार लाने की कोशिश में है. इसीलिए कारपोरेट सैक्टर के साथ हाथ मिलाए जा रहे हैं.

विश्व में भारत के फलसब्जी का दूसरा सब से बड़ा उत्पादक देश होने के बावजूद अंतर्राष्ट्रीय बाजार में उस का निर्यात 1 फीसदी से भी कम है. देश में हर साल तकरीबन 15 करोड़ टन फलसब्जियों की पैदावार होती है, लेकिन उस में से 3 फीसदी उत्पाद सही रखरखाव न होने के कारण खराब हो जाते हैं. कारपोरेट सैक्टर की सहायता से इस बरबादी को खत्म किया जा सकेगा.

कारपोरेट कंपनियां कृषि क्षेत्र में नई जान फूंकने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहतीं. अब खेतों में ओपन कल्टीवेशन के बजाय प्रोटेक्टेड कल्टीवेशन का दौर शुरू हो चुका है.

आने वाले समय में पंजाब के खेत ग्रीन हाउस के अलावा नेट पाली हाउस और ग्लास हाउस समेत न जाने कितने हाउसों से पटे नजर आएंगे. हाउसों में नमी कंट्रोल के अलावा क्लाइमेट कंट्रोल और सिंचाई कंट्रोल कर के फसलों को उन की जरूरत के मुताबिक मौसम, खुराक, कैमिकल और पानी दिया जाएगा. इन सभी हाउसों में सेंसर लगा कर कंप्यूटराइज्ड तरीके से कंट्रोल किया जा रहा है. कंप्यूटर फसलों की जरूरत के मुताबिक गरमी, सर्दी, बरसात और लाइट का इंतजाम करेगा.

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