पुदीना मेंथा लेमीएसी कुल का पौधा है. इस की 4 प्रजातियां हैं: जापानी, विलायती, स्पीयर और बारगामांट. यह दुनियाभर के तमाम देशों में उगाया जाता है.
सब से पहले इसे मिस्र में उगाया गया था. भारत में इसे पश्चिमी हिमालय, कश्मीर, पंजाब, कुमाऊं, गढ़वाल में उगाया जाता है. इस की 2 प्रजातियां ज्यादा उगाई जाती हैं, पहली जापानी और दूसरी विलायती.
यहां पर पुदीने की कारोबारी खेती 3 दशकों से की जा रही है. इन प्रजातियों में जापानी पुदीना सब से ज्यादा उगाया जाता है. इसे ब्राजील, जापान, चीन, फरमोसा और भारत के अलावा अब पूर्वी एशिया, विश्व के दूसरे देशों में भी उगाया जाता है.
जापानी पुदीने में 65-75 फीसदी मेंथाल पाया जाता है. इसे विदेशों में भेजा जाता है. वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश का जापानी पुदीने के उत्पादन में पहला स्थान है, जबकि दूसरा स्थान राजस्थान का है.
पुदीना से सुगंधित तेल और इस में पाए जाने वाले दूसरे अवयवों का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर किया जाता है. इस के अलावा सौंदर्य प्रसाधनों, तमाम तरह की खाने की चीजों, मेंथाल बनाने, टौफी बनाने, पान मसालों को सुगंधित करने, सर्दीजुकाम, खांसी, कमरदर्द के मलहम बनाने, अच्छी क्वालिटी की शराब को सुगंधित करने, गरमी के मौसम में पेय पदार्थ बनाने के लिए दुनियाभर में इस्तेमाल किया जाता है.
जलवायु : इसे अलगअलग तरह की जलवायु में भी उगाया जा सकता है. लेकिन पिपरमैंट की खेती के लिए ठंडी जलवायु अच्छी मानी जाती है.
भारत के तराई वाले इलाकों में इसे सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है. ऐसे इलाकों में खासतौर पर पहाड़ी क्षेत्र में जहां सर्द में पाला और बर्फ पड़ती हो, इस के सफल उत्पादन में रुकावट माने गए हैं. जहां न्यूनतम तापमान 5 डिगरी सैंटीग्रेड और अधिकतम तापमान 40 डिगरी सैंटीग्रेड तक जाता है, वहां पर भी इस की खेती की जा सकती है.
उत्तर प्रदेश में लखनऊ, मुरादाबाद, रामपुर, बरेली, बाराबंकी, सीतापुर, जिले, नैनीताल, देहरादून (उत्तराखंड) में इस की खेती की जाती है. इस के अलावा हरियाणा, पंजाब, बिहार व मध्य प्रदेश की जलवायु भी पुदीना उगाने के लिए काफी अच्छी मानी गई है.
जमीन : इसे अलगअलग तरह की जमीनों में उगाया जा सकता है, लेकिन सही जलनिकास वाली रेतीली दोमट मिट्टी जिस का पीएच मान 6-7 के बीच हो, अच्छी मानी गई है. ज्यादा अम्लीय या क्षारीय मिट्टी इस के लिए अच्छी मानी गई है. जमीन में जैविक पदार्थ प्रचुर मात्रा में होने चाहिए. अधिक देर तक नमी बनाए रखने वाली जमीन जो कभीकभी सूख भी जाए, इस के लिए अच्छी मानी गई है.
खेत की तैयारी : पुदीने की भरपूर उपज लेने के लिए खेत की तैयारी की खास अहमियत है. इसलिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें. उस के बाद 2-3 जुताइयां आरपार करें. हर जुताई के बाद पाटा लगाएं. अगर जमीन में दीमक की संभावना हो तो 25 किलोग्राम लिंडेन डस्ट खेत की तैयारी के समय जरूर डालें.
खाद और उर्वरक : पुदीना की ज्यादा उपज लेने के लिए मिट्टी की जांच कराना काफी जरूरी है. मिट्टी की जांच के आधार पर ही खाद और उर्वरकों का इस्तेमाल करना चाहिए. अगर किसी वजह से मिट्टी की जांच न हो सके तो उस हालत में प्रति हेक्टेयर निम्न मात्रा में खाद और उर्वरकों का इस्तेमाल करना चाहिए:
* गोबर की खाद 15-20 टन
* नाइट्रोजन 120-150 किलोग्राम
* फास्फोरस 50-60 किलोग्राम
* पोटाश 50-60 किलोग्राम.
गोबर की खाद को खेत की तैयारी से पहले ही खेत में डाल कर मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करें. नाइट्रोजन की एकतिहाई मात्रा फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा को बोने से पहले खेत में मिला देना चाहिए. नाइट्रोजन की बाकी बची मात्रा को खड़ी फसल में 2-3 बार टौप ड्रैसिंग के रूप में डाल कर मिट्टी में मिला देना चाहिए. पहला बुरकाव रोपाई के बाद देना चाहिए.
अगर पत्तियां पीली पड़ जाएं तो उस स्थिति में 0.25 फीसदी जिंक सल्फेट का घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए. पहले छिड़काव के एक हफ्ते बाद दूसरा छिड़काव करना चाहिए.
रोपने का तरीका
सीधे रोपाई : यह विधि उन परिस्थितियों में ज्यादा उपयोगी पाई गई है, जहां रबी मौसम में खेत में कोई फसल न उगाई गई हो या पुदीना की फसल पहली बार उगाई जा रही हो.
इस विधि में सर्कस को सीधे तैयार खेत में 60-70 सैंटीमीटर की दूरी पर रोप दिया जाता है. अगर रोपाई जनवरीफरवरी माह में की जा रही है और उस खेत से 3 कटाइयां लेनी हों तो पंक्तियों की दूरी का ध्यान रखना बहुत जरूरी है. इस स्थिति में पंक्तियों की आपसी दूरी 75 सैंटीमीटर रखनी चाहिए, परंतु अगर रोपाई अप्रैलमई माह में करनी हो तो उस स्थिति में दूरी कम रखी जाती है. पौधे से पौधे की दूरी 4-5 सैंटीमीटर रखनी चाहिए. रोपाई हल के पीछे बने कूंड़ों में की जानी चाहिए. सर्कस रोपते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वे 5 सैंटीमीटर से ज्यादा गहराई पर न जाएं.
तैयार पौध की रोपाई: इस विधि में 500 किलोग्राम पौधे की जड़ (भूस्तारियों) की प्रति हेक्टेयर जरूरत होती है. इन जड़ों के 9-10 सैंटीमीटर लंबे टुकड़ों को बोना चाहिए. रोपने से पहले इन्हें टेफासान फफूंदीनाशक घोल में 5-10 मिनट तक डुबो लेना चाहिए, ऐसा करने से कल्ले ज्यादा निकलते हैं और फसल भी अच्छी होती है.
साल के आखिर में आधा हेक्टेयर क्षेत्र में लगाए गए पौधे 10 हेक्टेयर क्षेत्र में लगाए जा सकते हैं.
उत्तरी भारत में इस की रोपाई जनवरीफरवरी माह में की जाती है. पौधों को नाली में 60-70 सैंटीमीटर की दूरी पर रोप दिया जाता है. इन्हें एकदूसरे पर चढ़ा हुआ या उन के सिरों को सटा कर मिट्टी से ढक दिया जाता है. अच्छा तो यह होगा कि देशी हल से कूंड़ बना कर रोपाई की जाए.
सिंचाई का इंतजाम
जांच से पता चलता है कि पुदीना की उपज और तेल की क्वालिटी पर सिंचाई का बहुत लाभदायक प्रभाव पड़ता है. पुदीना की सिंचाई सही समय और सही मात्रा में करनी चाहिए.
पहली सिंचाई रोपाई के तुरंत बाद करनी चाहिए, क्योंकि पौधों की बढ़वार गरमियों में होती है. इसलिए 10-12 दिन के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए.
कटाई के तुरंत बाद भी सिंचाई करते रहना चाहिए, अन्यथा अंकुरित होने में दिक्कत पड़ सकती है. कटाई के एक सप्ताह पहले सिंचाई बंद कर देनी चाहिए.
पुदीना में अधिक समय तक फालतू पानी के ठहराव को सहन करने की जरा भी कूवत नहीं होती है. इसलिए खेत में फालतू पानी को निकालने की सही व्यवस्था की जानी चाहिए.
फसल की सुरक्षा
पुदीना की फसल के साथ अनेक खरपतवार उग आते हैं, जो पौधों की बढ़वार को प्रभावित करते हैं और उत्पादन पर भी प्रतिकूल असर डालते हैं. जांच से पता चला है कि रोपाई के 30-75 दिन और पहली कटाई से 15-45 दिन बाद खरपतवार हटाना बहुत ही जरूरी है. इसलिए खरपतवारों से फसल को छुटकारे के लिए फसल में 3 बार निराईगुड़ाई करनी चाहिए.
पहली निराई रोपाई के एक महीने बाद, दूसरी 2 महीने बाद और तीसरी कटाई के 15 दिन बाद करनी चाहिए.
खरपतवारों के नियंत्रण के लिए खरपतवारनाशकों का उपयोग भी किया जा सकता है. 3 किलोग्राम पेंडीमेथिलीन का 300 लिटर पानी में घोल बना कर रोपाई के तुरंत बाद छिड़काव करना चाहिए. ऐसा करने से फसल को 40-50 दिन तक खरपतवार नहीं उगेंगे. 7-8 टन प्रति हेक्टेयर धान की पुआल या गन्ने की सूखी पत्तियां भी पुदीने की पंक्तियों के बीच रोपाई के 30-35 दिन बाद पलवार के रूप में बिछाने से मोंथा नामक खरपतवार की रोकथाम हो जाती है.
कीट पर करें नियंत्रण
दीमक : यह कीट पुदीना की फसल को काफी नुकसान पहुंचाता है. इस कीट का हमला पौधों की जड़ों पर होता है. इस के चलते पौधे के ऊपरी भागों में पोषक तत्त्वों की पूर्ति नहीं हो पाती है. इस के चलते पौधे मुरझा जाते हैं और बढ़वार भी रुक जाती है. इस वजह से उपज पर उलटा असर पड़ता है.
इस की रोकथाम के लिए निम्न उपाय करने चाहिए:
* खेत की तैयारी के समय 25 किलोग्राम लिंडेन डस्ट प्रति हेक्टेयर की दर से डालें.
* खेत में सही समय पर सिंचाई करें.
* खेत में खरपतवारों को न पनपने दें.
* इन जड़ों यानी भूस्तारियों को रोपने से पहले क्लोरीपाइरीफास 20 ईसी के घोल से उपचारित करें.
सफेद मक्खी: यह मक्खी 1-2 मिलीमीटर लंबी और दूधिया रंग की होती है. इस के शिशु और प्रौढ़ दोनों ही पुदीने की पत्तियों की निचली सतह से रस चूसते हैं. नतीजतन, पौधों की बढ़वार रुक जाती है. पौधे में प्रकाश संश्लेषण क्रिया बंद हो जाती है.
इस कीट की रोकथाम के लिए फास्फेमिडान के 200 मिलीलिटर को 700 लिटर पानी में मिला कर पत्तियों पर छिड़काव करना चाहिए.
पत्ती लपेटक कीट : इस की सूंड़ी हरे रंग की होती है, जिस के ऊपर लाल व पीले रंग की बिंदियां पाई जाती हैं. सूरज की रोशनी तेज होने पर इस की सूंडि़या क्रियाशील हो जाती हैं, जो शुरू में पत्तियों की ऊपरी कोशिकाओं को खाती हैं. एक सूंड़ी 2-3 पत्तियों पर 10-12 दिन तक रहती है. इस के प्रकोप से पुदीना के शाक और तेल उत्पादन पर प्रतिकूल असर पड़ता है.
इस कीट की रोकथाम के लिए इकालक्स 300-400 मिलीलिटर प्रति हेक्टेयर 625 लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए.
माहू : यह कीट पौधे के कोमल हिस्सों का रस चूसता है. इस के शिशु और प्रौढ़ दोनों ही ज्यादा तादाद में बड़ी जल्दी पनपते हैं. इस वजह से पौधे की बढ़वार पर प्रतिकूल असर पड़ता है. यह कीट विषाणु रोग फैलाने में मददगार होता है.
इस कीट की रोकथाम के लिए मैटासिस्टाक्स 25 ईसी का 1 फीसदी घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.
रोएंदार सूंड़ी : यह सूंड़ी पीले भूरे रंग की रोएंदार 2.5 से 3.0 सैंटीमीटर लंबी होती है. इस का प्रकोप अप्रैलमई में शुरू हो जाता है, जो कभीकभी अगस्त तक चलता रहता है. इस की सूंड़ी पत्तियों के हरे ऊतकों को खा कर कागज की तरह जालीदार बना देती है. इस से पौधे की कूवत कम हो जाती है और फसल की उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है.
इस कीट की रोकथाम के लिए 1.25 लिटर थायोडान 50 ईसी या मेलाथियान 50 ईसी को 1000 लिटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.
सेमी लूपर : इस कीट की सूंड़ी 3-4 मिलीमीटर लंबी और हरे रंग की होती है. इस के शरीर के किनारों पर दोनों ओर लंबाई में सफेद रेखा होती है. इस कीट का प्रकोप पुदीना की दूसरी फसल लेने पर होता है.
इस कीट को खत्म करने के लिए मेलाथियान 300 मिलीलिटर प्रति हेक्टेयर की दर से 625 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.
रोग पर नियंत्रण
भूस्तारी यानी जड़ विगलन : यह रोग मैक्रोफोनिया फैसिवोलामी और पिथियम प्रजातियों की फफूंदियों की वजह से होता है. शुरू में यह रोग खेत के कुछ भाग में शुरू हो कर सारे खेत की फसल को खराब कर देता है.
प्रकोप की शुरुआती अवस्था में जड़ों पर भूरे मृत चिह्न दिखाई देते हैं, जो बाद में भूरे रंग के हो जाते हैं और आखिर में सड़ने लगते हैं. पत्तियां पीली पड़ कर बेकार हो जाती हैं.
रोकथाम के उपाय
* इन जड़ों को रोपने से पहले किसी फफूंदीनाशक दवा से उपचारित करना चाहिए.
* जल भराव से बचाव के लिए भूस्तारियों की रोपाई मेंड़ों पर करनी चाहिए.
रतुआ : यह रोग पक्सिनिया मेंथाल नामक फफूंदी की वजह से होता है. आमतौर पर इस रोग के लक्षण वसंत ऋतु में दिखाई देते हैं. रोगी पौधों के तने फूलना, सेंढ़ना, पत्तियों का मुरझाना वगैरह चिह्न प्रकट होने लगते हैं. पत्तियों का रंग हलका हो जाता है और तने कटफट जाते हैं.
पौधों की पत्तियों पर जीवाणुओं का प्रकोप हो जाता है, जिस के चलते पत्तियों पर सुनहरे भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं. पत्तियां पीली पड़ जाती हैं, जो बाद में भूरे रंग की हो जाती हैं.
इस रोग की रोकथाम के लिए कैराथन 2.5 किलोग्राम मात्रा को 1125 लिटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.
पत्ती धब्बा : यह रोग केराइनास्पोरा कैसीकोला नामक फफूंदी के प्रकोप से होता है. रोगी पौधों की पत्तियों की ऊपरी सतह भूरे रंग की हो जाती है. अत्यधिक प्रकोप की अवस्था में पत्तियां गिर जाती हैं.
इस रोग की रोकथाम के लिए कौपर औक्सीक्लोराइड या डायथेन एम. 45 के 0.2 फीसदी घोल का छिड़काव करना चाहिए.
चूर्णिल आसिता : यह रोग एरीसाइफी सिकोरेसियेरस नामक फफूंदी की वजह से होता है. पौधे पर सफेद चूर्ण जैसा दिखाई देता है. इस वजह से पौधे के भोजन बनने पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है.
इस रोग की रोकथाम के लिए घुलनशील गंधक के 0.25 फीसदी घोल का छिड़काव करना चाहिए.
जड़ व तना विगलन : यह रोग थिलेविया वैसिकौला नामक फफूंदी के चलते होता है. इस के प्रकोप से पुदीना की जड़ों के ऊपर काले बैंगनी रंग के धब्बे हो जाते हैं, जो बाद में सड़ने शुरू हो जाते हैं. धीरेधीरे धब्बे जड़ों से बढ़ कर तनों की ओर बढ़ने लगते हैं. नतीजा पौधे पोषक तत्त्व न मिलने के चलते विकसित होने से पहले सूखने लगते हैं. बाद में पौधा बीमारी के चलते खराब हो जाता है. यह रोग सितंबर से दिसंबर माह तक फैलता है.
इस रोग की रोकथाम के लिए ये उपाय करने चाहिए:
* रोपने के पहले भूस्तारियां यानी जड़ों के 0.3 फीसदी मैंकोजेब के घोल में आधा घंटा तक डुबो कर रखें.
* मैंकोजेब 3 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से घोल बना कर खेत में रोपाई से पहले छिड़काव करें.
कटाई : पुदीना की कटाई हमेशा सही समय पर ही करनी चाहिए अन्यथा इस की उपज और क्वालिटी दोनों पर प्रतिकूल असर पड़ता है. इस की पहली कटाई 100-120 दिन बाद की जानी चाहिए. दूसरी कटाई पहली कटाई के 60-70 दिन बाद करनी चाहिए. हर साल इस की कटाई की तादाद जलवायु के मुताबिक 2-3 बार की जा सकती है.
जब पौधा खूब फूला हो और फूल आने शुरू हो जाएं तो इस समय तेल की मात्रा सर्वोत्तम होती है. उसी समय कटाई करना अच्छा माना गया है.
यदि इस अवस्था से पहले कटाई कर ली जाएगी तो तेल में मेंथाल की कम मात्रा मिलेगी. यदि कटाई देर से की जाएगी तो पत्तियों के सूखने से तेल की मात्रा घट जाएगी.
उत्तर भारत में पुदीना 1, 2 या 3 बार फूलता है, इसलिए 2 कटाई मईजून और अगस्तसितंबर के महीनों में की जानी चाहिए. तीसरी कटाई दूसरी कटाई के 65-70 दिन बाद करनी चाहिए, परंतु हर हाल में नवंबर के आखिर तक जरूर कटाई कर लेनी चाहिए.
कटाई करते समय मौसम साफ होना चाहिए और धूप निकली होनी चाहिए. कटाई हंसिया से जमीन की सतह से 4-5 सैंटीमीटर की ऊंचाई पर करनी चाहिए, ताकि पौधों का फुटाव जल्दी और सुगमता से हो सके.
काटी गई फसल का ढेर नहीं लगाना चाहिए, बल्कि जब पत्तियों में नमी कम हो जाए, तब उन्हें इकट्ठा कर तेल निकालने के लिए मशीन पर ले जाना चाहिए. यदि किसी वजह से तेल निकालने में देरी हो तो फसल को छाया में फैला कर रखना चाहिए.