सेहत के लिहाज से फायदेमंद मानी जाने वाली कई फसलें खेती न किए जाने से विलुप्त होने के कगार पर हैं. इन में कुछ ऐसी फसलें हैं, जो न केवल अपने औषधीय गुणों के चलते खास पहचान रखती हैं, बल्कि इन में उपलब्ध पोषक गुण व्यावसयिक नजरिए से भी बेहद खास माने जाते हैं.

ऐसी ही एक फसल का नाम है चंद्रशूर. इसे हालिम, हलम, असालिया, रिसालिया, असारिया, हालू, अशेलियो, चमशूर, चनसूर, चंद्रिका, आरिया, अलिदा, गार्डन-कैस,  लेपीडियम सेटाईवम आदि नामों से भी जाना जाता है.

इस औषधीय फसल की खेती पहले उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश में व्यावसायिक स्तर पर खूब होती थी, लेकिन बीते 2 दशकों में इस की खेती सिमट कर छिटपुट रूप में होती है.

चंद्रशूर का औषधीय महत्त्व 

आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में चंद्रशूर के बीज का टूटी हड्डी को जोड़ने, पाचन प्रणाली और मन को शांत करने, सांस संबंधी रोगों, खूनी बवासीर, कैंसर, अस्थमा, सूजन, मांसपेशियों के दर्द आदि में प्रयोग किया जाता है. बच्चों के शरीर के सही विकास के लिए इस के बीज का पाउडर बहुत लाभकारी होता है.

इस के अलावा चंद्रशूर बच्चों की लंबाई बढ़ाने में भी खासा मददगार होता है. बच्चों की याददाश्त को बढ़ाने में भी यह सहायक है. इस के पौधे की ताजा पत्तियों को सलाद और चटनी के रूप में बना कर खाया जाता है. मूत्र संबंधी रोगों में पौधे का काढ़ा बना कर दिन में 3 बार सेवन करने पर लाभ मिलता है. दस्त में चंद्रशूर के बीज का चूर्ण बना कर चीनी अथवा मिश्री के साथ मिला कर उपयोग में लाया जाता है. इस के बीजों को एनीमिया से ग्रस्त मरीजों के इलाज के लिए भी उपयोग किया जाता है.

(Medicinal Crop Chandrashoor)

पोषक तत्त्वों से भरपूर

चंद्रशूर का वनस्पतिक नाम लेपीडियम सेटाईवम है. यह कुसीफेरी कुल का सदस्य है. इस का पौधा 30-60 सैंटीमीटर ऊंचा होता है, जिस की उम्र 3-4 माह होती है. इस के बीज लालभूरे रंग के होते हैं, जो 2-3 मिलीमीटर  लंबे, बारीक और बेलनाकार होते हैं. पानी लगने पर बीज लसलसे हो जाते हैं. यही लसलसा पदार्थ अरेबिक गम के विकल्प के रूप में उपयोग में लाया जाता है.

चंद्रशूर की खेती रबी के मौसम में की जाती है. इस का पौधा अलसी से मिलताजुलता है. बोआई अक्तूबर माह में की जाती है. इस के बीजों में प्रोटीन (25 फीसदी), वसा (24 फीसदी), कार्बोहाइड्रेट (33 फीसदी) और फाइबर (3 फीसदी) भी पाए जाते हैं. इस के अलावा इस में अन्य तत्त्व जैसे आयरन, कैल्शियम, फोलिक एसिड, विटामिन ए और सी भी प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं.

पशुओं के लिए भी है फायदेमंद

पशु डाक्टरों की मानें, तो चंद्रशूर के पौधों को बरसीम में मिला कर हरे चारे के रूप में उपयोग में लाने से बीजों में पाए जाने वाला गैलेक्टगौग तत्त्व लैक्टेशन (दूध) बढ़ाने में सहायक होता है और दूध में कार्बोहाइड्रेट, वसा, प्रोटीन एवं लैक्टोस में वृद्धि होती है.

यह डोपामिन रिसैप्टर के साथ क्रिया कर के प्रोलैक्टिन की मात्रा को बढ़ाता है. यह दूध की मात्रा बढ़ाने में भी सहायक होता है. इस से किसानों की आय में बढ़ोतरी की जा सकती है. चंद्रशूर को पशुओं को खिलाने से दूध की गुणवत्ता भी अच्छी हो जाती है.

उन्नत किस्में

चंद्रशूर की कुछ किस्मों, जिन की व्यावसायिक लैवल पर खेती की जाती है, में आरवीए-1007, जीए-1 एवं राज विजय-1007 प्रमुख हैं. हाल ही में हिसार के चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय में विकसित की गई औषधीय फसल चंद्रशूर की उन्नत किस्म एचएलएस-4 पूरे देश विशेषकर उत्तरी हिस्से में खेती के लिए अनुमोदित की गई है.

विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बीआर कंबोज के अनुसार, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के उपमहानिदेशक (फसल विज्ञान) डा. टीआर शर्मा की अध्यक्षता वाली फसल मानक अधिसूचना एवं फसल किस्म अनुमोदन केंद्रीय उपसमिति द्वारा चंद्रशूर की इस किस्म को समस्त भारत विशेषकर उत्तरी भारत (हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, जम्मूकश्मीर और पश्चिमी उत्तर प्रदेश) में खेती के लिए जारी की गई है.

चंद्रशूर की एचएलएस-4 किस्म के विकसित होने से हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, जम्मूकश्मीर के किसान भी इस की खेती आसानी से कर सकेंगे.

इस वनस्पति का औषधि के रूप में प्रयोग होने वाला मुख्य भाग इस का बीज है. राष्ट्रीय स्तर पर एचएलएस-4 किस्म के बीज की पैदावार 10.58 फीसदी, जबकि उत्तरी भाग में 30.65 फीसदी अधिक दर्ज की गई है.

इस किस्म से प्रति हेक्टेयर तकरीबन 306.71 किलोग्राम तेल प्राप्त होता है, जो चंद्रशूर की प्रचलित जीए-1 किस्म के लगभग समान (306.82 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर) है.

चंद्रशूर की यह किस्म हकृवि के औषधीय, सगंध एवं क्षमतावान फसल अनुभाग के वैज्ञानिकों डा. आईएस यादव, डा. जीएस दहिया, डा. ओपी यादव, डा. वीके मदान, डा. राजेश आर्य, डा. पवन कुमार, डा. ?ाबरमल सुतालिया और डा. वंदना की कड़ी मेहनत का परिणाम है.

(Medicinal Crop Chandrashoor)

बोआई के लिए मिट्टी और खेत की तैयारी

चंद्रशूर की खेती करने के लिए अच्छे जल निकास और सामान्य पीएच मान वाली बलुईदोमट मिट्टी में इस की खेती होती है. मुख्य रूप से चंद्रशूर की खेती रबी सीजन वाली फसलों के साथ की जाती है. चंद्रशूर की बारानी और असिंचित अवस्था में पलेवा की गई नमीयुक्त मिट्टी में बिजाई की जाती है.

चंद्रशूर की बिजाई अक्तूबर माह के दूसरे पखवारे में की जा सकती है. सिंचित अवस्था में ही चंद्रशूर की बिजाई की जाए, तो वह सर्वोत्तम रहती है. चंद्रशूर की खेती के लिए सिंचित बलुईदोमट मिट्टी पर 2 बार हैरो से जुताई कर मिट्टी को भुरभुरी बनाने वाले यंत्र से भुरभुरा बना लेना चाहिए.

बीज की मात्रा

चंद्रशूर के बीज आकार में बहुत छोटे होते हैं, इसलिए एक एकड़ के लिए लगभग 1.5 से 2 किलोग्राम बीज पर्याप्त होता है. पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 सैंटीमीटर और बीज की गहराई 1 से 2 सैंटीमीटर रखना उचित रहता है. बीज अधिक गहरा डालने पर अंकुरण पर बुरा प्रभाव पड़ने से कम जमाव होने का खतरा रहता है. बीजों का अंकुरण आमतौर पर 5 से 15 दिनों में हो जाता है.

खाद और उर्वरक की मात्रा

चंद्रशूर की खेती के लिए लगभग 6 टन प्रति एकड़ गोबर की अच्छी सड़ीगली खाद एकसाथ खेत की तैयारी से पहले भूमि में मिला दें. इस के साथसाथ खेत में 20 किलोग्राम नाइट्रोजन और 20 किलोग्राम फास्फोरस प्रति एकड़ डाल कर मिला दें. पोटाश खाद बिजाई के समय जरूरत के मुताबिक डालना सही रहता है.

फसल की सिंचाई

चंद्रशूर की फसल असिंचित भूमि में ली जा सकती है, लेकिन अगर 2-3 सिंचाई उपलब्धता के आधार पर क्रमश: एक माह, 2 माह एवं ढाई माह पर सिंचाई करें, तो यह लाभकारी होता है.

बीज जमाव के समय मिट्टी में पर्याप्त नमी का रहना अति आवश्यक है. बोआई के समय अगर मिट्टी में पर्याप्त नमी न हो, तो बिजाई के तुरंत बाद हलका पानी लगाने से अंकुरण शीघ्र एवं पर्याप्त मात्रा में होता है. दूसरा जल छिड़काव दाना बनते समय अवश्य करना चाहिए. स्वस्थ फसल और अधिक पैदावार लेने के लिए 2 निराईगुड़ाई, बोआई के क्रमश: 3 एवं 6 हफ्ते बाद करनी चाहिए.

कीट व बीमारियों का नियंत्रण

चंद्रशूर की फसल में तेला (एफिड) और पाउडरी मिल्ड्यू रोग का प्रकोप देखा गया है. अगर फसल में तेला (एफिड) रोग का प्रकोप दिखाई देता है, तो एक मिलीलिटर मैलाथियान प्रति लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करना लाभदायक रहता है. अगर फसल में पाउडरी मिल्ड्यू रोग का प्रकोप दिखाई पड़े, तो सल्फर डस्ट का छिड़काव करना भी हितकर रहता है.

90 से 120 दिन में पक कर तैयार होती है फसल

चंद्रशूर के पौधों में बोआई के 2 महीने बाद फूल आने शुरू हो जाते हैं. चंद्रशूर की फसल 90 से 120 दिन के भीतर पक कर कटाई के लिए तैयार हो जाती है. पत्तियां जब हरी से पीली पड़ने लगें या फल में बीज लाल रंग का हो जाए, तो यह समय कटाई के लिए उपयुक्त रहता है. हंसिए या हाथ से इसे उखाड़ कर खलिहान में 2-3 दिन सूखने के लिए डाल दें, फिर डंडे से पीट कर या ट्रैक्टर से मिंजाई कर बीज को साफ कर लें.

उपज

असिंचित भूमि में इस की उपज 10-12 क्विंटल और सिंचित भूमि में 14-16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त की जा सकती है. इस के बीजों का बाजार भाव आमतौर पर 7,000 से 8,000 रुपए प्रति किलोग्राम तक रहता है.

चंद्रशूर के औषधीय महत्त्व को देखते हुए इस के संरक्षण और व्यासायिक खेती के महत्त्व को ले कर सरकार और कृषि संस्थानों को आगे आ कर किसानों को जागरूक करने की जरूरत है. इसी के साथ देश के सभी राज्यों में चंद्रशूर की खेती को बढ़ावा मिले, इस के लिए चंद्रशूर की नई किस्मों को विकसित कर किसानों की आय में इजाफा भी किया जा सकता है.

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