आजकल फैली लंपी स्किन डिजीज के कारण पशुओं और पशुपालकों को बहुत ही परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है. इस रोग के कारण पशुओं की उत्पादकता कम हो जाने के साथसाथ पशु हानि का भी सामना करना पड़ रहा है. हाल ही में राजस्थान में लंपी स्किन डिजीज के कारण हजारों गाएं बेमौत मर गई हैं. गुजरात, पंजाब, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश आदि राज्यों में भी उक्त रोग (एलएसडी) की घटनाओं की खबरें हैं.
भारत में लंपी स्किन डिजीज का पहला मामला अगस्त, 2019 में ओडिशा के 5 जिलों में दर्ज किया गया था, जहां कुलमिला कर 2,539 पशुओं में से 182 पशु इस रोग से ग्रसित पाए गए और बीमारी की दर 7.16 फीसदी आंकी गई, मगर इन में से कोई भी पशु हताहत नहीं हुआ. तब से यह रोग केरल, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश आदि राज्यों सहित पूरे देश में फैल चुका है.
रोग की वजह, लक्षण, रोगजनन और निदान
लंपी स्किन डिजीज यानी एलएसडी गोवंशी पशुओं और भैंसों का एक अत्यधिक संक्रामक रोग है, जो कैप्रीपौक्स वायरस के चलते होता है. इस के कारण संक्रमित पशुओं की त्वचा पर गांठें बन जाती हैं. यह वायरस पौक्सविरिडे परिवार का सदस्य है, जो मुख्यत: पशुओं और पक्षियों में संक्रमण की वजह बनता है.
इस रोग में त्वचा के ऊपर गोलगोल गांठें बन जाती हैं, जो आकार में 0.5 सैंटीमीटर से 5 सैंटीमीटर व्यास की हो सकती हैं. इस रोग के कारण लसिका ग्रंथियों में भी सूजन आ जाती है, नाक से स्राव बहता रहता है, पशु को बुखार हो जाता है और पशु के पूरे शरीर में अकड़न हो जाती है. संक्रमित पशुओं के अंगों में सूजन आ जाती है और लंगड़ापन भी हो सकता है. इस के अतिरिक्त यह रोग शारीरिक कमजोरी, कम दूध देना, बांझपन, गर्भपात और कभीकभी मौत की वजह बनता है. दुधारू पशुओं में दूध का उत्पादन घट जाता है और पशुपालक को माली नुकसान पहुंचता है.
वैसे तो इस रोग में मृत्युदर आमतौर पर कम है, मगर पहले से ही कमजोर पशुओं में रोग की अधिकता अथवा द्वितीयक संक्रमण के कारण पशु की मौत तक हो सकती है. यह रोग एक वायरस द्वारा फैलता है, मगर इस के फैलने का प्रमुख माध्यम काटने वाले कीड़े जैसे मच्छर, मक्खी और चिंचडि़यां या किलनियां ही हैं. इन कीटों के काटने से यह वायरस संक्रमित पशु से स्वस्थ पशु तक पहुंच जाता है और स्वस्थ पशु भी संक्रमित हो जाता है. इस के अलावा यह संक्रमित पशुओं के स्वस्थ पशुओं से संपर्क में होने के कारण व दूषित चारे से भी फैल सकता है.
लंपी स्किन डिजीज पैदा करने वाला वायरस कीटों के काटने से मेजबान पशु की त्वचा से होता हुआ शरीर में प्रवेश करता है. यह वायरस गैस्ट्रो आंत्र पथ के माध्यम से भी पशु शरीर में प्रवेश कर सकता है. इस के बाद यह वायरस लसिका ग्रंथियों (लिम्फ नोड्स) में पहुंच जाता है, जिस से लसिका ग्रंथि शोथ (लिम्फैडेनाइटिस) हो जाता है. वायरस त्वचा पर सूजन वाले नोड्यूल के विकास के साथ विशिष्ट कोशिका और रक्त वाहिकाओं की दीवारों में तेजी से गुणन करने के कारण त्वचा के घावों का कारण बनता है. एक बार संक्रमित होने के बाद यह वायरस पशु शरीर में 2 से 5 सप्ताह तक रह सकता है. इस रोग में पशुओं को तेज बुखार होता है, जो 105 से 107 डिगरी फारेनहाइट तक पहुंच जाता है.
पशु की नाक से लगातार स्राव गिरता रहता है और दूध उत्पादन में गिरावट आती है. पशुओं की त्वचा की गांठें मुख्यत: सिर, गरदन और थन पर विकसित होती हैं. मुंह और नाक की श्लेष्मा झिल्ली पर भी नोड्यूल विकसित होते हैं. छोटी गांठें इलाज के दौरान ठीक हो जाती हैं, जबकि बड़ी गांठों की कोशिकाएं निर्जीव हो जाती हैं और कुछ समय बाद वे सख्त होने लगती हैं. कभीकभी गांठों में मवाद भी बन जाता है और वे फूट जाती हैं, जिस के कारण इन गांठों पर मक्खियां बैठने लगती हैं और उन में कीड़े पड़ जाते हैं. साथ ही, दूसरे जीवाणु संक्रमण भी हो जाते हैं, जो स्थिति को और भी गंभीर बना देते हैं.
संक्रमित पशु को पुन: ठीक होने में कई महीने भी लग सकते हैं. प्रभावित पशु अकसर कमजोर हो जाते हैं और पेट से होने वाली गायों में गर्भपात भी हो सकता है. माथे, पलकों, कान, थूथन, नासिका, थन, शरीर के सभी अंगों पर उभरी त्वचा की गांठों को देख कर भी समझा जा सकता है कि पशु लंपी स्किन डिजीज वायरस से ग्रसित है. फिर भी रोग की और अधिक पुष्टि के लिए त्वचा से लिए गए नमूनों की बायोप्सी कर के भी इस रोग का पता लगाया जा सकता है.
प्रयोगशाला में वायरस न्यूट्रिलाइजेशन टैस्ट, इनडायरैक्ट फ्लोरेसैंस टैस्ट, अगार जेल इम्यूनोडिफ्यूजन टैस्ट, एलिसा और वैस्टर्न ब्लौट टैस्ट सहित विभिन्न परीक्षणों का उपयोग कर के इस वायरस का निदान किया जाता है. इस रोग से ग्रसित पशुओं की मृत्यु होने पर शव विच्छेदन करने पर ऊपर वर्णित एपिडर्मल और म्यूकोसल घाव स्पष्ट दिखाई देते हैं. श्वास की नली और जठरांत्र संबंधी मार्ग की अंदरूनी सतह में अल्सर पाया जा सकता है. हलके भूरे रंग के पिंडों से युक्त फेफड़े के घाव भी देखे जा सकते हैं. रोग का निवारण, उपचार और नियंत्रण लंपी स्किन डिजीज से बचने के लिए पशुओं का टीकाकरण बहुत ही आवश्यक है. संक्रमण की स्थिति में पशुओं के शरीर पर बनी गांठों में घाव होने पर द्वितीयक जीवाणु संक्रमण को रोकने के लिए एंटीबायोटिक दवाओं से उपचार किया जाता है.
साथ ही, घावों पर मक्खियों को न बैठने देने के लिए कोई भी मक्खीरोधी दवा लगाई जाती है और घावों की ड्रैसिंग की जाती है. पशु को बुखार होने पर एंटीपाईरेटिक दवाएं दी जाती हैं. इस के अलावा शरीर की सूजन उतारने और दर्द कम करने के लिए सूजनरोधी और दर्द निवारक दवाएं दी जाती हैं. पशुओं की भूख बढ़ाने के लिए पाचक चूर्ण, प्रीबायोटिक और मल्टीविटामिन दवाएं दी जाती हैं. इस रोग से ग्रसित पशुओं को तरल चारा, हरा नरम सुपाच्य मौसमी चारा और अच्छी क्वालिटी का अधिक प्रोटीनयुक्त दाना रातिब, गुड़ आदि खिलाने की सिफारिश की जाती है. पशु की त्वचा पर बनी गांठों में घाव होने पर उसे किसी भी एंटीसैप्टिक दवा से साफ कर के कोई भी हर्बल स्प्रे या हर्बल मलहम या एंटीसैप्टिक एलोपैथिक मलहम लगा कर ड्रैसिंग करनी चाहिए.
इस के साथ ही पशु को लेवामिसोल, जो कि एक इम्यूनोमौड्यूलेटरी दवा है, का इंजेक्शन लगाया जा सकता है. साथ ही, एंटीहिस्टामाइन की 10 मिलीलिटर दवा प्रतिदिन 3 दिन तक दी जा सकती है. घावों में द्वितीयक जीवाणु संक्रमण की रोकथाम के लिए एंटीबायोटिक्स जैसे एमोक्सिलिन 10-12 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम शरीर भार की दर से बीमार पशु को दी जा सकती है. पशुपालक इन औषधियों का उपयोग योग्य पशु चिकित्सक की सलाह पर ही करें, जो कि पशु की वास्तविक स्थिति के अनुसार दवाएं बता सकते हैं. जहां तक मुमकिन हो, संक्रमित जानवर का उपचार खिलाने वाली दवा और त्वचीय मलहम इत्यादि के माध्यम से किया जाना चाहिए, ताकि उपचार प्रक्रियाओं के माध्यम से बीमारी के प्रसार और उपचार के दौरान उपचार के सामान और कर्मियों के संदूषण से बचा जा सके. इस रोग के स्वदेशी उपचार (आयुर्वेदिक उपचार) के अंतर्गत वे सब जड़ीबूटियां दी जा सकती हैं, जो शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत करती हैं. पान के पत्ते-10 नग, काली मिर्च-10 ग्राम, नमक-10 ग्राम ले कर उन्हें पीस लें और थोड़े से गुड़ के साथ मिलाएं. पहले दिन हर 3 घंटे में एक खुराक खिलाएं. दूसरे दिन से आगामी 2 सप्ताह तक प्रतिदिन 3 खुराकें खिलाएं. इस नुसखे से अप्रत्याशित लाभ बतलाया गया है.
इसी तरह एक अन्य स्वदेशी पद्यति में : लहसुन-2 पोथी, काली मिर्च-10 ग्राम, धनिया-10 ग्राम, जीरा-10 ग्राम, हलदी का पाउडर-10 ग्राम, चिरायता पाउडर-30 ग्राम, ताजा तुलसी पत्ता-1 मुट्ठी, तेज पत्ता-10 ग्राम, पान के पत्ते-5 नग, बेल पत्ता-1 मुट्ठी, गुड़-100 ग्राम को एक जगह घोंट कर 2 सप्ताह तक रोज 3 खुराकें खिलाने को कहा गया है.
इस से भी पशु की प्रतिरक्षा प्रणाली मजबूत होने और पशु के शीघ्र स्वस्थ होने की संभावना है. पशु के शरीर पर बनी गांठों में हुए घावों की ड्रैसिंग करने के लिए : हलदी पाउडर-20 ग्राम, हरित मंजरी के पत्ते-1 मुट्ठी, मेहंदी के पत्ते-1 मुट्ठी, तुलसी के पत्ते-1 मुट्ठी, नीम के पत्ते-1 मुट्ठी, लहसुन-10 पोथी को नारियल या तिल का तेल-500 मिलीलिटर में मिला कर पेस्ट बना कर पशु के शरीर पर बनी गांठों में हुए घावों पर लगाया जा सकता है.
इस रोग की रोकथाम के लिए सभी स्वस्थ पशुओं का टीकाकरण अवश्य कराएं. उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में प्रवेश करने से पहले आयातित पशुओं का टीकाकरण अवश्य कराएं. प्रभावित क्षेत्र से आनेजाने वाले लोगों की आवाजाही प्रतिबंधित रखें. पशुपालकों और प्रभावित पशुओं की देखभाल करने वालों को स्वस्थ पशुओं से दूर रहने की सलाह दें. संक्रमित जानवर से निबटने वाले व्यक्ति दस्ताने और चेहरे पर मास्क पहनें और हर समय स्वच्छ और कीटाणुशोधन उपाय करें.
इन सुरक्षा उपायों को सुनिश्चित करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है. संक्रमित गांवों की पहचान करें, ताकि एक विशिष्ट क्षेत्र में एहतियाती योजना बनाई जा सके और प्रभावित गांव के आसपास 5 किलोमीटर तक के गांवों में रिंग टीकाकरण किया जा सके. पशुओं की किसी भी असामान्य बीमारी की सूचना नजदीकी पशु चिकित्सालय को जरूर दें. पशुशाला का नियमित अंतराल पर कीटाणुशोधन करें और स्वस्थ पशुओं को भी बाह्य परजीवीनाशक लगा कर बाह्य परजीवी मुक्त करते रहें. मच्छर, मक्खियों, चिंचड़ी, पिस्सू आदि वैक्टर को नियंत्रित करने के लिए पशुशाला, सामान्य चराई क्षेत्र, जानवरों के इकट्ठा होने वाले स्थानों और जानवरों की आवाजाही के रास्तों पर कीटनाशकों का छिड़काव करें.
इस रोग से संक्रमित पशु की मृत्यु होने पर मृतक पशु के शव को गहरे गड्ढे में चूने एवं नमक के साथ दबा देना चाहिए. ऐसे पशुओं के मृत शरीर को खुले में नहीं फेंकना चाहिए. मृत पशु को दफनाने का स्थान आवासीय क्षेत्र, पशु आवास एवं जल स्रोतों से दूर होना चाहिए. मृत पशु के परिवहन के लिए प्रयोग किए गए वाहन व जिस पशु आवास में वह पशु रखा गया था, को सोडियम हाईपोक्लोराइड के 2-3 फीसदी के घोल से विसंक्रमित करना चाहिए.
मृत पशु के चारे, दाने को विसंक्रमित कर जला कर नष्ट कर देना चाहिए. वैसे तो मनुष्यों में इस रोग के फैलने का जोखिम लगभग न के बराबर है, फिर भी संक्रमण के खतरे से बचने के लिए दूध को पीने से पहले भलीभांति उबाल लेना चाहिए. संक्रमित पशु के कच्चे दूध के सेवन से बचना चाहिए और लाने व ले जाने से बचा जाना चाहिए. लंपी स्किन डिजीज ने देश के कई हिस्सों में महामारी का रूप ले लिया है. टीकाकरण ही इस रोग से बचाव का एकमात्र प्रभावी उपाय है. विषाणुजनित रोग होने के कारण रोग लाक्षणिक उपचार ही संभव है. अच्छे खानपान प्रबंधन और साफसफाई के द्वारा भी जल्द ही इस रोग पर काबू पाया जा सकता है.