छत्तीसगढ़ सरकार के 2025-26 के बजट को हम एक माने में निश्चित रूप से अनूठा कह सकते हैं कि एआई और डिजिटलाइजेशन के युग में यह बजट हाथ से लिखा गया. कुछ नया कर दिखाने के चक्कर में पूर्व तेजतर्रार आईएएस वित्त मंत्री शायद मोदी के डिजिटलाइजेशन के नारे को भूल गए.
पहली नजर में बजट में कई लोकलुभावनी बातें नजर में आती हैं, पर जब हम गहराई से बजट की पड़ताल करते हैं, तो हमें प्रदेश के किसानों के उत्थान और बस्तर के समग्र विकास के लिए कोई ठोस दृष्टिकोण नजर नहीं आता. अकसर बजट आंकड़ों की बाजीगरी और खोखली घोषणाओं के पुलिंदे ही होते हैं, यह बजट भी इस से कुछ ज्यादा अलग हट कर नहीं है. इस बजट की सब से बड़ी विडंबना यह रही कि बस्तर, जो प्रदेश व देश के लिए सब से अधिक प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध कराता है, उसे एक बार फिर नजरअंदाज कर दिया गया है.
– हंसें या रोएं- जैविक खेती के लिए 20 करोड़, प्रमाणीकरण के लिए 24 करोड़
सरकार सालभर जैविक खेती के सैमिनार व वर्कशौप करती है. दिनरात जैविक खेती की बातें होती हैं, पर जब बजट में राशि देने की बात आती है, तो जैविक खेती के साथ कैसा मजाक किया जाता है, उस की बानगी देखिए, इस बजट में जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए मात्र 20 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है और जैविक प्रमाणन के लिए 24 करोड़ रुपए देंगे.
प्रदेश के 40 लाख किसानों को जैविक खेती के लिए प्रति किसान सालाना केवल 50 रुपए मात्र. ऐसे में जैविक भारत मिशन-2047: मियोनप (MIONP) और सतत विकास के ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ के सस्टेनेबल डेवलपमेंट के ‘SDGs’ के संयुक्त वैश्विक लक्ष्यों को भारत कैसे पूरा कर पाएगा. इस बिंदु को हलके में बिलकुल नहीं लिया जाना चाहिए.
इसी से जुड़ी दूसरी गंभीर बात यह कि सरकार को जैविक खेती करवाने से ज्यादा चिंता जैविक प्रमाणीकरण की है. यह बिलकुल वैसा ही है, जैसे किसी को खेती के लिए 20 रुपए दिए जाएं और उस की फसल की गुणवत्ता जांचने के लिए 24 रुपए.
सचाई यह है कि जैविक प्रमाणीकरण की मौजूदा व्यवस्था किसान हितैषी नहीं, बल्कि पूरी तरह से बिचौलियों और सर्टिफिकेशन एजेंसियों के फायदे के लिए बनी हुई है. किसान जैविक खेती करने में हजारों रुपए लगाता है, लेकिन प्रमाणपत्र हासिल करने में उसे और ज्यादा खर्च करना पड़ता है. फिर भी उसे बाजार में उचित दाम नहीं मिलता. सरकार को यह समझना चाहिए कि जब जैविक खेती को सही तरीके से बढ़ावा ही नहीं दिया गया, तो प्रमाणीकरण करवा कर क्या फायदा?
अगर सरकार वास्तव में जैविक खेती के प्रति गंभीर होती, तो उसे प्रमाणीकरण की तुलना में जैविक खेती के विस्तार और किसानों की सहायता पर ज्यादा फोकस करना चाहिए था. लेकिन यहां फिर वही पुरानी नीति अपनाई गई. किसानों को कम पैसा दो और अफसरों व एजेंसियों को ज्यादा.
– ऋण कृत्वा घृतं पिवामि यानी किसानों को कर्ज में डालने की नीति – असली समस्या पर ध्यान नहीं
बजट में किसानों के लिए 8,500 करोड़ रुपए के ब्याजमुक्त लोन की घोषणा की गई है. देखने में यह अच्छा लग सकता है, लेकिन असल में यह किसानों की समस्याओं का हल नहीं कर रही, बल्कि उन्हें एक और कर्ज के जाल में फंसाने की रणनीति है. कर्ज का मकड़जाल किसानों की सब से बड़ी समस्या है.
किसानों की असली समस्या का हल ‘कर्ज’ नहीं, बल्कि उन की उपज का वाजिब दाम न मिलना है. अगर किसान को उस की फसल का सही दाम मिले, तो उसे बारबार कर्ज लेने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी. कर्ज पर ध्यान देने के बजाय सरकार को यह देखना चाहिए कि:
– किसानों को उन की उपज का लाभकारी मूल्य मिले.
– सभी फसलों पर एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) सुनिश्चित किया जाए.
– खेत में उत्पादन के उपरांत भी फसल का एक बड़ा हिस्सा 25 से 30 फीसदी तक समुचित भंडारण, प्रसंस्करण, परिवहन, विपणन की कमी और अन्य विभिन्न कारणों से नष्ट हो जाता है, यह राष्ट्रीय क्षति है. इन पोस्ट हार्वेस्ट हानि को नियंत्रित किया जाए.
– कृषि उत्पादों के लिए कृषकोन्मुखी प्रभावी बाजार व्यवस्था विकसित की जाए.
हम आखिर कब समझेंगे कि ब्याज मुक्त लोन देना सिर्फ तात्कालिक राहत है, लेकिन यह किसानों की समस्याओं का स्थायी समाधान नहीं है. इस से किसान लगातार कर्ज के जाल में फंसते जाते हैं और उन की वित्तीय स्वतंत्रता कभी नहीं आती. समस्या कर्ज की नहीं, बल्कि आय बढ़ाने की है और इस पर सरकार का कोई ध्यान नहीं है.
– बस्तर से हर घंटे खनिज की अनवरत लूट, लेकिन बस्तर को कुछ नहीं?
बस्तर सिर्फ छत्तीसगढ़ ही नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए खनिजों का सब से बड़ा भंडार है. यहां से रोजाना 24 ट्रेन भर कर सिर्फ लौह अयस्क निकाला जाता है, जो भारत के कई प्रमुख इस्पात संयंत्रों और उद्योगों के लिए जीवनरेखा है. इस के अलावा बौक्साइट, टिन, सोना, मैग्नीज, कोयला और कई अन्य कीमती खनिज भी यहां से निकाले जाते हैं.
लेकिन क्या बस्तर को इन खनिजों से होने वाली कमाई का उचित हिस्सा मिलता है? अगर सिर्फ लौह अयस्क की रौयल्टी का पूरा हिस्सा बस्तर के लोगों को मिल जाए, तो वे अरब के शेखों की तरह और भी अमीर हो सकते हैं. लेकिन सचाई यह है कि खनिजों की लूट हो रही है और इस का लाभ बस्तर को नहीं मिलता है.
बस्तर के विकास के लिए जो थोड़ीबहुत राशि चिड़िया के चुग्गे की तरह ‘डीएमएफ’ के नाम पर मिलती भी है, तो वह भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती है. यह पैसा कलक्टरों और नेताओं की पौकेटमनी की तरह खर्च होता है और आम जनता तक कुछ नहीं पहुंचता. यह घोर अन्याय है और वर्तमान वित्त मंत्री इस कड़वी सचाई से अच्छी तरह परिचित हैं, क्योंकि वे खुद बस्तर के कलक्टर रह चुके हैं.
– बस्तर की अकूत वन संपदा, वनोपज का दोहन, पर बदले में सिर्फ ठेंगा
बस्तर संभाग में लगभग 70 फीसदी क्षेत्र वनों से आच्छादित माना जाता है. सरकारें यहां की बहुमूल्य लकड़ी और तरहतरह के वनोपजों का लगातार दोहन करती रही हैं. कहा जाता है कि वन विभाग के ठीकठाक रेंज के रेंजर साहब की आमदनी जिले के कलक्टर से भी ज्यादा होती है या थी (डीएमएफ फंड के प्रावधान के पूर्व). और यह विभागीय बंदरबांट तो मात्र खुरचन की है, असल मलाई तो सरकार के खाते में जाती है. किंतु इस के बदले में बस्तर को क्या मिलता है, यह भी अपनेआप में सोचने का विषय है.
बस्तर में पर्यटन और रोजगार के अपार अवसरों की अनदेखी
बस्तर पर्यटन की दृष्टि से अपार संभावनाओं वाला क्षेत्र है, लेकिन बजट में इकोटूरिज्म और फार्मटूरिज्म के लिए सिर्फ 10 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है. इतने कम बजट में कोई अंतर्राष्ट्रीय स्तर का पर्यटन ढांचा विकसित नहीं किया जा सकता.
हवाई कनैक्टिविटी का संकट : बस्तर से रायपुर के लिए साल 1991 में हवाई सेवा शुरू हुई थी. सरकारों द्वारा बस्तर की अनदेखी के कारण यह कभी नियमित नहीं चल पाई. इस सरकारी उदासीनता और पक्षपात के कारण पिछले 4-5 महीनों से यह सेवा एक बार फिर से बंद पड़ी है.
यह हास्यास्पद है कि जहां देशविदेश में नए एयरपोर्ट बन रहे हैं, वहीं बस्तर संभाग जो कि विश्व के कई देशों से क्षेत्रफल में ज्यादा बड़ा है, इसे प्रदेश की राजधानी रायपुर से जोड़ने वाली एकमात्र हवाई सेवा भी बंद कर दी गई है. अगर यह घोर पक्षपात और अपेक्षा नहीं है तो और क्या है?
अन्य राज्य अपने दुर्गम क्षेत्रों को हवाई सेवा से जोड़ने के लिए शुरुआती फ्लाइट्स में घाटा होने पर कैपिंग के आधार पर हवाई कंपनियों को जरूरी अनुदान दे कर भी नियमित हवाई सेवाएं चलवा रहे हैं, तो बस्तर के लिए यह व्यवस्था क्यों नहीं हो सकती थी?
दरअसल, राजनीतिक इच्छाशक्ति और विजन का घोर संकट है और बस्तर में यह संकट सब से ज्यादा है. सड़क मार्ग से बस्तर के कोंटा से रायपुर तक की यात्रा आज भी कम से कम 12 घंटे की होती है, जो बाहर इलाज के लिए जाने वाले मरीजों, उच्च शिक्षा के लिए बाहर जाने वाले छात्रों और बस्तर में नए उद्यम लगाने में रुचि लेने वाले उद्यमियों के लिए बेहद कष्टदायक है. इन के लिए हवाई सेवा एक लग्जरी या विलासिता नहीं, बल्कि अनिवार्य आवश्यकता है.
आदिवासियों के लिए घोषणाएं, हकीकत में कितनी कारगर?
सरकार ने तेंदूपत्ता संग्राहकों को 5,500 रुपए प्रति बोरा भुगतान की घोषणा की है, लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि क्या यह राशि वास्तविक संग्राहकों तक पहुंचेगी?
पहले भी ऐसे दावे किए गए थे, लेकिन पैसा बिचौलियों के हाथों में चला जाता था.
‘चरण पादुका योजना’ के लिए 50 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है, लेकिन यह सिर्फ एक सांकेतिक योजना बन कर रह जाती है.
हालांकि, ‘भूमिहीन कृषि मजदूर कल्याण योजना’ के तहत 5.65 लाख मजदूरों को सालाना 10,000 रुपए की आर्थिक सहायता देने का प्रावधान किया गया है, जो एक अच्छा कदम कहा जा सकता है. यदि यह राशि सीधे मजदूरों के खातों में पारदर्शी तरीके से पहुंचती है, तो इस से काफी राहत मिलेगी.
कृषि व वनोपज आधारित उद्योगों के लिए कोई ठोस नीति और क्रियान्वयन का रोड मैप नहीं
छत्तीसगढ़ में खाद्य प्रसंस्करण और कृषि व वनोपजों पर आधारित उद्योगों की अपार संभावनाएं हैं. लेकिन अभी इस दिशा में कोई ठोस व्यावहारिक नीति नहीं है.
डेयरी समग्र विकास परियोजना के लिए मात्र 50 करोड़ रुपए रखे गए हैं, जो ऊंट के मुंह में जीरा है. मत्स्यपालन, पोल्ट्री, बकरीपालन के लिए मात्र 200 करोड़ रुपए का प्रावधान है, जब कि ये क्षेत्र ग्रामीण अर्थव्यवस्था को काफी मजबूत कर सकते हैं.
यह भी उल्लेखनीय है कि बस्तर में काजू, कौफी और मसालों की खेती के अलावा जड़ीबूटियों की खेती और प्रसंस्करण की जबरदस्त संभावनाएं हैं, लेकिन इस बजट में इन के लिए कोई विशेष प्रोत्साहन नहीं दिया गया. यदि सरकार इस क्षेत्र में ठोस नीतियां बनाती, तो बस्तर का आर्थिक परिदृश्य बदल सकता था.
अंत में यह भी उल्लेखनीय है कि वर्तमान वित्त मंत्री ओपी चौधरी पूर्व में बस्तर के संवेदनशील लोकप्रिय कलक्टर रह चुके हैं. उन्हें इस क्षेत्र की चुनौतियों की गहरी समझ थी और उम्मीद थी कि उन के वित्त मंत्री के कार्यकाल में बस्तर को अधिक प्राथमिकता मिलेगी. लेकिन चाहे वजह जो भी हो, पर हुआ एकदम उलटा. मुख्यमंत्री और वित्त मंत्री ने अपनेअपने क्षेत्रों पर ज्यादा ध्यान दिया, जब कि बस्तर के लिए बहुत कम ध्यान दिया गया. गजब है कि हमारी लगभग सभी समस्याओं की जड़ में राजनीति है और सभी समस्याओं का समाधान भी राजनीति में ही निहित है. इस राजनीति की माया भी अजब है, जहां राजनीति के हमाम में उतरते ही सब नंगे हो जाते हैं.
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(लेखक ग्रामीण अर्थशास्त्र एवं कृषि मामलों के विशेषज्ञ और राष्ट्रीय संयोजक, अखिल भारतीय किसान महासंघ ‘आईफा’)