Paddy: तमाम कुदरती आपदाओं की वजह से पिछले 1 दशक से मध्य प्रदेश की खास खरीफ की फसल सोयाबीन ने प्रदेश के किसानों की हालत खराब कर दी, नतीजतन किसानों ने धान (Paddy) की खेती शुरू कर दी और रिकार्ड उत्पादन कर के खेती को लाभ का धंधा बना दिया.

पहले छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा जाता था, पर अब मध्य प्रदेश में धान की खेती बड़े पैमाने पर की जाने लगी है. किसान बड़े रकबे में धान की खेती कर के अपने खेतों में सोना उगा सकते हैं.

खेत की तैयारी : गरमी के मौसम में सही समय पर खेत की गहरी जुताई हल या प्लाउ चला कर करें, जिस से मिट्टी उलटपलट जाए. मेंड़ों की सफाई जरूर करें. गोबर की खाद या कंपोस्ट खाद 10 से 12 टन प्रति हेक्टेयर की दर से अंतिम जुताई या बारिश से पहले खेत में फैला कर मिलाएं.

धान की खेती की विधियां

सीधे बीज बोने की विधि : खेत में सीधे बीज बो कर निम्न तरह से धान की खेती की जाती है:

* छिटकवां बोआई.

* नाड़ी हल या दुफन या सीड ड्रिल से कतारों में बोआई.

* बियासी विधि (छिटकवां विधि) से सवा गुना ज्यादा बीज बो कर बोआई के 1 महीने बाद फसल की पानी भरे खेत में हलकी जुताई.

* लेही विधि (धान के बीजों को अंकुरित कर के मचौआ किए गए खेतों में सीधे छिटकवां विधि से बोआई).

रोपा विधि : इस विधि के तहत धान के पौधे सीमित क्षेत्र में तैयार किए जाते हैं. फिर 25 से 30 दिनों के पौधों की खेत में रोपाई की जाती है.

बीजों की मात्रा : अनुविभागीय अधिकारी कृषि केएस रघुवंशी बताते हैं कि धान की बोआई के लिए बीजों की मात्रा बोआई की विधि के मुताबिक अलगअलग रखनी चाहिए.

बीजों का उपचार : बीजों को थायरम या डायथेन एम 45 दवा की 2.5 से 3 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित कर के बोआई करें. बैक्टेरियल बीमारियों से बचाव के लिए बीजों को 0.02 फीसदी स्ट्रेप्टोसाइक्लिन के घोल में डुबा कर उपचारित करना फायदेमंद होता है.

बोआई का सही समय : बारिश का मौसम शुरू होते ही धान की बोआई का काम शुरू करें. मध्य जून से जुलाई के पहले हफ्ते तक बोआई का सब से अच्छा समय होता है. रोपाई के बीजों की बोआई रोपणी में जून के पहले हफ्ते में ही सिंचाई की सुविधा वाली जगहों पर कर दें, क्योंकि जून के तीसरे हफ्ते से मध्य जुलाई तक की रोपाई से अच्छी पैदावार मिलती है.

खाद व उर्वरक

गोबर की खाद या कंपोस्ट : धान की फसल में 5 से 10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से अच्छी सड़ी गोबर खाद या कंपोस्ट का इस्तेमाल करने से महंगे उर्वरकों के खर्च में बचत की जा सकती है.

हरी खाद : रोपाई वाले धान में हरी खाद के इस्तेमाल में सरलता होती है. इसे मिट्टी में आसानी से मिलाया जा सकता है. हरी खाद के लिए सनई के करीब 25 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर के हिसाब से रोपाई से 1 महीने पहले बोने चाहिए. करीब 1 महीने की खड़ी सनई की फसल को खेत में मचौआ करते समय मिला देना चाहिए. यह 3-4 दिनों में सड़ जाती है. ऐसा करने से करीब 50-60 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर उर्वरकों की बचत होगी.

जैव उर्वरकों का इस्तेमाल : कतारों में बोआई वाले धान में 500 ग्राम एजेटोवेक्टर और 500 ग्राम पीएसबी जीवाणु उर्वरक का प्रति हेक्टेयर के हिसाब से इस्तेमाल करने से 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन और स्फुर उर्वरक बचाए जा सकते हैं.

इन दोनों जीवाणु उर्वरकों को 50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर सूखी सड़ी हुई गोबर की खाद में मिला कर बोआई करते समय कूड़ों में डालने से इन का पूरा लाभ मिलता है. सीधी बोआई वाले धान में उगने के 20 दिनों और रोपाई के 20 दिनों की अवस्था में 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हरीनीली काई का बुरकाव करने से करीब 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन उर्वरक की बचत की जा सकती है. ध्यान रहे कि काई का बुरकाव करते समय खेत में सही नमी या हलकी नमी की सतह रहनी चाहिए.

उर्वरकों का इस्तेमाल : धान की फसल में उर्वरकों का इस्तेमाल बोई जाने वाली प्रजाति के मुताबिक करना चाहिए.

उर्वरक देने का समय : नाइट्रोजन की आधी मात्रा और स्फुर व पोटाश की पूरी मात्रा आधार खाद के रूप में रोपाई से पहले खेत तैयार करते समय या कीचड़ मचाते समय बुरक कर मिट्टी में मिलाएं. बची नाइट्रोजन की आधी मात्रा अंकुर फूटने की अवस्था में (रोपाई के 20 दिनों बाद) और आधी मात्रा गंभोट की अवस्था में देनी चाहिए. जस्ते की कमी वाले क्षेत्रों में खेत की तैयारी करते समय जिंक सल्फेट 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से 3 साल में 1 बार इस्तेमाल करें. गंधक की कमी वाले क्षेत्रों में गंधक वाले उर्वरकों (जैसे सिंगल सुपर फास्फेट) का इस्तेमाल करें.

सिंचाई : धान की फसल में सिंचाई का बहुत महत्त्व है. रोपाई से अंकुर निकलने की अवस्था तक खेत में पानी की सतह 2-5 सेंटीमीटर रखनी चाहिए. कंसे (अंकुर) निकलने के बाद से गंभोट की अवस्था तक 10-15 सेंटीमीटर पानी की सतह रखें. धान की फसल में जरूरत से ज्यादा पानी भरना अच्छी पैदावार में बाधक होता है.

लेही के लिए बीज अंकुरित करना: लेही विधि से बोआई करने के लिए खेत की तैयारी के तुरंत बाद अंकुरित बीज मौजूद होने चाहिए. लिहाजा लेही बोआई के तय समय के 3-4 दिनों पहले से ही बीज अंकुरित करने का काम शुरू कर दें.

इस के लिए बीजों की तय मात्रा को रात के समय पानी में 8-10 घंटे के लिए भिगोएं. फिर इन भीगे हुए बीजों का पानी निकाल दें. फिर इन बीजों को पक्की सूखी सतह पर रख कर बोरों से ढक दें. ढकने के 24-30 घंटे के अंदर बीज अंकुरित हो जाते हैं. इस के बाद बोरों को हटा कर बीजों को छाया में फैला कर सुखाएं. इन अंकुरित बीजों का इस्तेमाल 6-7 दिनों तक किया जा सकता है.

रोपणी में पौधे तैयार करना : जितने रकबे में धान की रोपाई करनी हो उस के 1/20 भाग में रोपणी बनानी चाहिए. रोपणी में इस प्रकार से बोआई करनी चाहिए कि करीब 3-4 हफ्ते के पौधे रोपाई के लिए समय पर तैयार हो जाएं. रोपणी के लिए 2-3 बार जुताई कर के अच्छी तरह खेत तैयार करें.

इस के बाद खेत में 1.5-2.0 मीटर चौड़ी पट्टियां बना लें, जिन की लंबाई खेत मुताबिक कम या ज्यादा हो सकती है. हर पट्टी के बीच 30 सेंटीमीटर की नाली रखें. इन नालियों की मिट्टी नाली बनाते समय पट्टियों पर डालने से वे ऊंची हो जाती हैं.

ये नालियां जरूरत के मुताबिक सिंचाई व जल निकास के लिए मददगार होती हैं. रोपणी में 8 से 10 सेंटीमीटर के अंतर से कतारों में बोआई करने से रखरखाव और रोपाई के लिए पौधे उखाड़ने में आसानी होती है.

कम पानी में भी हो सकता है धान का उत्पादन : सूखा प्रतिरोधी धान की खेती करना अब मुमकिन हो गया है. गेहूं की तरह अब चावल उगाने के लिए भी नई तकनीक की खोज हो गई है. अब धान के खेत को हमेशा पानी से भरा हुआ रखे बिना भी इस की खेती की जा सकती है. नई तकनीक से धान की फसल के लिए पानी की जरूरत में 40 से 50 फीसदी तक कमी करने में मदद मिलेगी.

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) और फिलीपींस अंतर्राष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान (आईआरआरआई) ने संयुक्त रूप से यह तकनीक विकसित की है. इस परियोजना में कटक स्थित केंद्रीय चावल अनुसंधान संस्थान (सीआरआरआई) की भी भागीदारी है. कटक स्थित संस्थान ने ही धान की वैसी किस्मों की पहचान की है, जिन्हें दूसरी फसलों की तरह कुछ दौर की सिंचाई के जरीए उगाया जा सकता है.

संस्थान ने खेती की ऐसी विधियों की भी खोज की है, जिन के जरीए धान की ऐसी किस्मों से करीबकरीब उतनी उपज हो सकती है, जितनी सामान्य तौर पर ज्यादा पैदावार वाली धान की किस्मों से होती है.

तकनीकी तौर पर यह एरोबिक राइस कल्टीवेशन कहलाता है. इस तकनीक में धान के खेत में स्थिर पानी की जरूरत नहीं होती और न ही धान के छोटे पौधे तैयार करने की जरूरत होती है, जैसा कि आमतौर पर होता है.

इस तकनीक में कुशलता से तैयार किए गए खेतों में सीधे बीज बो दिए जाते हैं और इस तरह मजदूरी की लागत की भी बचत हो जाती है.

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