Farmers Problems : भारत में किसानों की समस्याएं मौजूदा दौर का बड़ा मुद्दा हैं. उन्हें राजनीतिक मुद्दा बनाया जा रहा है, ताकि राजनीतिक दल किसानों की सहानुभूति हासिल क सकें. एक बात ध्यान में रखने की जरूरत है कि किसानों की ये समस्याएं आज की नहीं, बल्कि काफी पुरानी हैं. अब सवाल यह है कि इन समस्याओं से किसानों को कैसे निकाला जाए? इस के लिए निम्न बिंदुओं पर गौर करना जरूरी है:

छोटी जोत

देश में छोटे किसानों की संख्या 80 फीसदी से ज्यादा है और वे खेती से सिर्फ अपना गुजरबसर कर पा रहे हैं, इतनी छोटी जोत पर वे उन्नत बीज, खाद, दवा, उपकरण आदि का खर्च वहन नहीं कर सकते और अगर करते भी हैं, तो कर्ज ले कर. यह कर्ज चुकाने में वे असमर्थ हो जाते हैं, तब आत्महत्या के अलावा उन के पास कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता.

अब किसान भी सोचते हैं कि उन के बच्चे भी अच्छे स्कूलों में शिक्षा पा सकें और उन की बेटियों की शादियां भी धूमधाम से हो सकें, पर यह सब खेती से संभव नहीं है. तब वे कर्ज ले कर बच्चों को पढ़ाते हैं व बेटियों की शादियां करते हैं और कर्ज में डूब जाते हैं.

समाधान

तो अब सवाल यह उठता है कि इस का समाधान क्या है या फिर किसानों को ऐसे ही मरने के लिए छोड़ दिया जाए. हालात यह कहते हैं कि इन छोटी जोत वाले किसानों की करीब 20 फीसदी आबादी को खेती से दूसरे कामों में शिफ्ट कर दिया जाए. यह रातोंरात संभव नहीं, बल्कि दीर्घकालिक योजना के तहत किया जाए. मगर सवाल यह भी उठता है कि इतनी बड़ी आबादी को कौन सेक्टर समाहित करेगा, तो वह है सिर्फ और सिर्फ मैन्यूफैक्चरिंग उद्योग और यह काम सरकार को युद्ध स्तर पर करना होगा. जब हमारे किसानों को बेहतर अवसर मिलेंगे तो वे खेती छोड़ कर उन उद्योगों में बेहतर जिंदगी गुजार सकेंगे. बाकी बचे हुए किसान इन के खेतों को ले कर बड़ी जोत के साथ अच्छा लाभ हासिल कर सकेंगे.

सरकारी वजहें

उन्नत बीज : उन्नत बीजों को खरीदने के लिए सरकारी सब्सिडी डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर के तहत सीधे किसानों के खाते में दी जाए. अब यह योजना शुरू हो चुकी है. मतलब किसानों के खातों में सब्सिडी की रकम जा रही है. उन्नत किस्म के बीजों की उपलब्धता भी एक बुनियादी सवाल है, जिस की जिम्मेदारी नजदीकी शोध संस्थान जैसे कृषि विज्ञान केंद्र, कृषि विश्वविद्यालय या दूसरे संस्थानों को देनी होगी. साथ ही साथ कोई निगरानी संस्था भी हो जो यह जांच करे कि उस क्षेत्र की जरूरत के मुताबिक संस्थान बीज मुहैया करा पा रहे हैं या नहीं या फिर गुणवत्ता कैसी है.

खाद/उर्वरक : जब हम सब्सिडी की बात करते हैं, तो वह सिर्फ उर्वरकों तक ही सीमित होती है, जिस ने खेती की सेहत पर उलटा असर डाला है. किसानों ने सस्ती यूरिया के चक्कर में जैविक खादों का इस्तेमाल तकरीबन शून्य कर दिया है. अगर उर्वरकों की तरह सरकार जैविक खादों पर सब्सिडी सीधे किसानों को दे तो इन का चलन जोर पकड़ेगा और उर्वरकों का इस्तेमाल कम होगा. अगर किसानों को गोबर की खाद पर सब्सिडी मिले तो वे इस का इस्तेमाल बढ़ाएंगे, साथ ही साथ पशुपालन पर भी ध्यान लगाएंगे.

आधुनिक मशीनें : मशीनों पर तो सरकार पहले से ही सब्सिडी दे रही है, इसे आगे और भी बढ़ा दे तो बेहतर रहेगा, क्योंकि मनरेगा जैसी योजनाओं के कारण खेती के लिए मजदूर मिलना मुकिश्ल हो गया है.

Farmers Problems

ढांचागत बदलाव : आज खेती के साथ ही साथ ढांचागत बदलाव की भारी जरूरत है. आज अपने देश में किसान अगर अनाज व सब्जियों की ज्यादा पैदावार कर देते हैं, तो उन्हें खरीदने वाला कोई नहीं होता. अकसर ही सरकारी एजेंसी किसानों के दबाव में आ कर अनाज ज्यादा खरीद लेती हैं, नतीजतन खुले में ही स्टोरेज करना पड़ता है, क्योंकि उन के पास सही गोदामों का अभाव है.

इसी तरह सब्जियों के मामले में 40 फीसदी सब्जियां सड़ जाती हैं, क्योंकि कोल्ड स्टोरेज का अभाव है. यह अभाव या तो सरकारी ढांचे में निवेश कर के या फिर कंपनियों को प्रोत्साहन दे कर दूर किया जा सकता है, जैसे बनने वाले गोदामों या फिर कोल्ड स्टोरेज की रकम पर कम से कम 5 सालों तक लगने वाले बैंक का ब्याज सरकार सब्सिडी के रूप में चुकाए और इन गोदामों व कोल्डस्टोरेजों की आमदनी कम से कम 5 सालों तक टैक्स फ्री हो. ऐसा करने पर सिर्फ 3 सालों के अंदर ही गोदामों व कोल्डस्टोरेजों की संख्या में काफी बढ़ोतरी होगी वह भी बिना सरकारी खर्च के. तब किसानों की आमदनी बढ़ने के साथ ही साथ इन ढांचों में लाखों की तादाद में रोजगार भी पैदा होंगे.

कानूनी/बाजारगत बदलाव : आज के दौर में किसानों की सब से बड़ी समस्या अगर कोई है, तो वह बाजार की ही है. किसान बहुत मेहनत के साथ अच्छी तकनीक उपना कर उत्पादन बढ़ा लेते हैं, तो बिचौलिए फसल को कौडि़यों के भाव खरीद लेते हैं और किसान मजबूर हो कर बेचने के लिए बाध्य हो जाते हैं.

महंगाई का आधार : महंगाई से लड़ाई या उसे कम करने के लिए हमेशा से किसानों की बलि दी जाती रही है. जब भी किसी सब्जी, दाल या अनाज के दाम बढ़ जाते हैं, तो पूरे देश में मीडिया के जरीए बड़ा रोना शुरू किया जाता है. ऐसा लगता है कि पूरा देश इन चीजों के बिना भूखा सो रहा है. जब इन्हीं चीजों के दाम 50 पैसे प्रति किलोग्राम हो जाते हैं, तो कोई भी किसानों से नहीं पूछता कि उन के घर में चूल्हा कैसे जल रहा होगा. अब वक्त आ गया है, जब दूसरे तबके भी इस महंगाई को कुछ ढोएं, सिर्फ किसान ही नहीं. जब उद्योग अपने माल के रेट बढ़ाते हैं, तो तर्क देते हैं कि उन की लागत बढ़ गई है, तो किसानों को भी लागत के मुताबिक रेट बढ़ाने के अधिकार मिलने ही चाहिए.

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