हमारे देश में गेहूंचावल के बाद आलू की अच्छीखासी पैदावार होती है. उत्तर प्रदेश में सब से ज्यादा आलू की खेती की जाती है.

कई बार आलू की खेती से किसान अच्छाखासा मुनाफा कमाते हैं, लेकिन कभीकभार यही ज्यादा पैदावार किसानों के लिए घाटे का सौदा भी बन जाती है, इसलिए सब से पहले हमें आलू की बोआई में अच्छी किस्मों का इस्तेमाल करना चाहिए जो रोगरहित हों.

केंद्रीय आलू अनुसंधान संस्थान, शिमला ने आलू की 3 नई किस्में तैयार की हैं. संस्थान द्वारा विकसित ये नई किस्में कुफरी गंगा, कुफरी नीलकंठ और कुफरी लीमा हैं. आलू की ये प्रजातियां मैदानी इलाकों में आसानी से पैदा होंगी. किसान आलू की नई किस्में लगा कर अच्छी पैदावार ले सकते  हैं.

ये आलू पकने में आसान हैं और इन का स्वाद भी अच्छा है. कम समय में अधिक पैदावार होगी. 70 से 135 दिन की अलगअलग कुफरी किस्म की फसल से प्रति हेक्टेयर 350 से 400 क्विंटल तक पैदावार ली जा सकती है.

देश के केंद्रीय आलू अनुसंधान संस्थान, शिमला ने विभिन्न जलवायु क्षेत्रों के लिए अब तक 51 आलू की प्रजातियां विकसित की हैं. इन में से कुछ चुनिंदा किस्मों की जानकारी दी गई है. इन प्रजातियों को देश के अलगअलग इलाकों में लगाया जाता है.

देश की जलवायु और भौगोलिक परिस्थितियों के मुताबिक पूरे साल कहीं न कहीं आलू की खेती होती रहती है. उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार, मध्य प्रदेश, पंजाब और हिमाचल प्रदेश आलू के उत्पादन में अग्रणी राज्य माने जाते हैं. देश में सब से ज्यादा आलू उत्पादन उत्तर प्रदेश में होता है. देश के कुल उत्पादन में 32 फीसदी हिस्सेदारी उत्तर प्रदेश की है.

किसानों को चाहिए कि वे आलू की खेती करने के लिए अपने इलाके के हिसाब से बेहतर बीज का चुनाव करें और समय पर फसल बोएं. आलू बीज का आकार भी आलू की पैदावार में खासा माने रखता है.

फसल से अच्छी पैदावार लेने के लिए जमीन समतल और पानी के अच्छे निकास की सुविधा होनी चाहिए. आलू की खेती अनेक तरह की मिट्टी में की जा सकती है परंतु अच्छी पैदावार के लिए अधिक उर्वरायुक्त बलुई दोमट व दोमट मिट्टी ठीक रहती है.

बोआई का उचित समय : आलू की अगेती बोआई के लिए 15 सितंबर से 15 अक्तूबर तक का समय ठीक होता है. सामान्य फसल की बोआई के लिए 15 अक्तूबर से 15 नवंबर तक का समय सही रहता है.  आलू की अनेक किस्म ऐसी हैं जो बोने के 70-80 दिनों बाद आलू खोदने लायक हो जाते हैं.

बोआई करने से पहले बीजोपचार जरूर करें. इस से जड़ वाली बीमारियों से छुटकारा मिलता है. इस के लिए बोरिक एसिड 3 फीसदी का घोल यानी 30 ग्राम प्रति लिटर पानी के हिसाब से घोल बनाएं.

उर्वरकों का इस्तेमाल :

आलू की अच्छी फसल के लिए 150 किलोग्राम नाइट्रोजन, 100 किलोग्राम फास्फोरस और 80 किलोग्राम पोटाश की जरूरत प्रति हेक्टेयर होती है. अच्छी पैदावार लेने के लिए गोबर की खाद भी डालें. यदि आप ने फसल बोने से पहले मिट्टी की जांच कराई हो और उस में जस्ता व लोहा जैसे सूक्ष्म तत्त्वों की कमी हो, तो 25 किलोग्राम जिंक सल्फेट और 50 किलोग्राम फेरस सल्फेट प्रति हेक्टेयर की दर से उर्वरकों के साथ बोआई से पहले खेत में डालें.

बीजों की मात्रा :

बोआई के लिए आलू के रोगरहित बीज भरोसे की जगह से खरीदें. वैसे, सरकारी संस्थानों, राज्य बीज निगमों या बीज उत्पादन एजेंसियों से ही बीज खरीदना चाहिए.

बोआई :

आलू की बोआई करने के लिए मेंड़ से मेंड़ की दूरी 50-60 सैंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 15 से 20 सैंटीमीटर रखें. कई बार आलू के आकार के हिसाब से यह दूरी कम या ज्यादा भी की जाती है.

आमतौर पर आलू को 8 से 10 सैंटीमीटर की गहराई पर खुरपी की सहायता से बोया जाता है, ताकि अंकुरण के लिए मिट्टी में सही नमी बनी रहे.

हाथ से बोई गई फसल में पौधों में अच्छे विकास और अच्छी पैदावार के लिए पेड़ों की जड़ों पर मिट्टी चढ़ाना भी जरूरी होता है. जब पौधे 15-20 सैंटीमीटर के हो जाएं तो ऊपर मिट्टी चढ़ाएं.

ये सामान्य बातें हैं जिन्हें सभी किसान जानते हैं. आजकल आलू की बोआई के लिए बाजार में आलू बोने के यंत्र भी मौजूद हैं, जिन्हें हम पोटैटो प्लांटर कहते हैं.

सिंचाई का रखें ध्यान

फसल की पहली सिंचाई बोआई के 15-20 दिनों के अंदर कर लेनी चाहिए. सिंचाई करते समय ध्यान रखें कि मेंड़ें पानी में आधे से अधिक नहीं डूबनी चाहिए.

इस के बाद तकरीबन 15 दिनों के अंतराल पर दोबारा सिंचाई करें. आलू की फसल में तकरीबन 8 से 10 बार सिंचाई की जरूरत होती है. आलू तैयार होने पर जब उस की खुदाई करनी हो तो तकरीबन 10 दिन पहले ही उस की सिंचाई बंद कर दें जिस से आलू की खुदाई अच्छी तरह से हो सके.

फसल में कीट व रोगों से बचाव है जरूरी

आलू की फसल को अनेक रोग व कीटों से बचाने के लिए बीमारी के हिसाब से दवाओं का इस्तेमाल करें. आलू में अनेक तरह की बीमारियां जैसे अगेती झुलसा और पछेती झुलसा होने पर पौधे की पत्तियों पर गोल आकार के भूरे धब्बे बनने शुरू हो जाते हैं.

इन कीटों की रोकथाम के लिए 2 से ढाई किलोग्राम डाइथेन जेड 78 या डाइथेन एम 45 का 1000 लिटर पानी में घोल बना कर फसल पर छिड़काव करें. जरूरत पड़े तो 15 दिन बाद फिर से यह क्रिया अपनाएं.

आलू की दूसरी बीमारी है आलू का कोढ़ यानी कौमन स्कैब. इस रोग से फसल की पैदावार में तो कमी नहीं आती, लेकिन आलू भद्दे हो जाते हैं, जिस से बाजार में उन की सही कीमत नहीं मिल पाती है. आलू के कंदों के छिलकों पर लाल या भूरे रंग के छोटेछोटे धब्बे बन जाते हैं. इस बीमारी से बचाव के लिए बीजोपचार जरूरी है.

ऐसे करें कीट नियंत्रण

एपीलेक्ना बीटल : इस कीट की सूंड़ी व वयस्क दोनों ही पत्तियां खाते हैं, जिस से पत्तियों में केवल नसें बचती हैं. यह कीट पीले रंग के होते हैं. इन की रोकथाम के लिए इंडोसल्फान 35 ईसी 1.25 लिटर या कार्बारिल 5 फीसदी घुलनशील चूर्ण की 2 किलोग्राम मात्रा 800 लिटर पानी में मिला कर छिड़काव करें.

कटवर्म : यह जमीन के अंदर रहने वाला कीट है, इस की सूंड़ी रात के समय छोटेछोटे पौधों के तनों को काट देतीहै. इस की रोकथाम के लिए एल्ड्रिन 5 फीसदी चूर्ण आखिरी जुताई के समय मिट्टी में मिला दें.

आलू का माहू कीट : यह हरे रंग का कीट होता है, जो विषाणु फैलाता है. बचाव के लिए डाईमिथोएट 30 ईसी की 1 लिटर मात्रा 600 लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

सफेद लट या गुबरेला : यह कीट जमीन के अंदर फसल को नष्ट कर देता है. फोरेट 10 जी या काबोफ्यूराल 3 जी 15 किलोग्राम बोआई से पहले इस्तेमाल करें.

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