भारत में सौंफ मसाले की एक खास फसल है. सौंफ का इस्तेमाल औषधि के रूप में भी किया जाता है. भारत में सौंफ की खेती खासतौर से राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और बिहार में होती है. यह सर्दी के मौसम में बोई जाने वाली फसल है. लेकिन जब सौंफ में फूल आने लगते हैं, तो उस समय पाले का असर इस पर पड़ता है. इसलिए इस का खास ध्यान रखना चाहिए. हलके ठंडे मौसम खासतौर से जनवरी से मार्च तक का समय इस की उपज व गुणवत्ता के लिए बहुत फायदेमंद रहता है. फूल आते समय लंबे समय तक बदली या अधिक नमी से बीमारियों को बढ़ावा मिलता है.

उन्नत किस्में :

आरएफ 143, आरएफ 125, आरएफ 125, आरएफ 101, आरएफ 205, जीएफ 11, जीएफ 1, जीएफ 2, पीएफ 35, एएफ 1.

खेत की तैयारी : सौंफ की खेती बलुई मिट्टी को छोड़ कर सभी प्रकार की जमीन में, जिस में जीवांश सही मात्रा में हों, की जा सकती है. लेकिन अच्छी पैदावार के लिए जल निकास की सुविधा वाली, दोमट व काली मिट्टी ठीक होती है. भारी व चिकनी मिट्टी के बजाय दोमट मिट्टी ज्यादा अच्छी रहती है.

खाद व उर्वरक : फसल की अच्छी बढ़वार के लिए जमीन में सही मात्रा में जैविक पदार्थ का होना जरूरी है. यदि इस की सही मात्रा जमीन में न हो, तो 10 से 15 टन अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर खेत की तैयारी से पहले डाल देनी चाहिए. इस के अलावा 90 किलोग्राम नाइट्रोजन व 40 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए. 30 किलोग्राम नाइट्रोजन व फास्फोरस की पूरी मात्रा खेत की आखिरी जुताई के साथ डाल देनी चाहिए. बाकी बची नाइट्रोजन को 2 भागों में बांट कर 30 किलोग्राम बोआई के 45 दिन बाद व 30 किलोग्राम फूल आने के समय फसल की सिंचाई के साथ दें.

बीज की मात्रा व बोआई : सौंफ के लिए 8-10 किलोग्राम अच्छा बीज प्रति हेक्टेयर बोआई के लिए सही होता है. ज्यादातर बोआई छिटकवां विधि से की जाती है.

सौंफ की बोआई रोपण विधि द्वारा या सीधे कतारों में भी की जाती है. सीधी बोआई के लिए 8 से 10 किलोग्राम व रोपण विधि से करने पर 3 से 4 किलोग्राम बीज की प्रति हेक्टेयर जरूरत होती है.

रोपण विधि से बोआई के लिए जुलाईअगस्त में 100 वर्गमीटर क्षेत्र में पौध शैय्या लगाई जाती है और सितंबर में रोपाई की जाती है. इस की बोआई बीच सितंबर से बीच अक्तूबर तक की जाती है. बोआई 40 से 50 सैंटीमीटर के फासले पर कतारों में हल के पीछे कूंड़ों में 2-3 सैंटीमीटर की गहराई पर करें. पौधों को पौधशाला में सावधानी से उठाएं, जिस से जड़ों को नुकसान नहीं हो. रोपाई दोपहर के बाद गरमी कम होने पर करें और उस के तुरंत बाद सिंचाई करें. सीधी बोआई में बोआई के 7 से 8 दिन बाद दूसरी हलकी सिंचाई करें, जिस से अंकुरण पूरा हो जाए.

बोआई का समय : इस की बोआई का सही समय 15 सितंबर के आसपास होता है.

सिंचाई : सौंफ को ज्यादा सिंचाई की जरूरत होती है. बोआई के समय खेत में नमी कम हो तो बोआई के 3-4 दिन बाद हलकी सिंचाई करनी चाहिए, जिस से बीज जम जाएं. सिंचाई करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि पानी का बहाव तेज न हो, नहीं तो बीज बह कर किनारों पर इकट्ठा हो जाएंगे.

दूसरी सिंचाई बोआई के 12 से 15 दिन बाद करनी चाहिए, जिस से बीजों का अंकुरण पूरा हो जाए. इस के बाद सर्दियों में 15 से 20 दिनों के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए. फूल आने के बाद फसल को पानी की कमी नहीं होनी चाहिए.

खरपतवार पर नियंत्रण : सौंफ में शुरुआती बढ़वार धीमी होती है और लाइन व पौधों की दूरी ज्यादा होने से खरपतवारों का असर ज्यादा होता है. इस में खरपतवार नियंत्रण के लिए पहली निराई व गुड़ाई 30 दिन बाद जब पौधे 5 सैंटीमीटर लंबे हो जाएं तब करें. इस समय लाइनों के अंदर पौधे से पौधे के बीच की दूरी भी 20 सैंटीमीटर कर दें. इस के बाद जरूरत के मुताबिक 1 से 2 बार निराई व गुड़ाई कर के फसल को पूरी तरह से खरपतवारों से दूर रख सकते हैं. पेंडीमिथेलीन 1.0 किलोग्राम को 600 लिटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से सौंफ की बोआई के बाद, मगर उगने से पहले छिड़काव कर के इसे खरपतवारों से दूर रखा जा सकता है.

खास कीट : फसल पर एफिड (माहू), थ्रिप्स, पर्णजीवी, मक्खी व माइट्स (बरूथी) वगैरह कीट खासतौर से हमला करते हैं.

एफिड : इस के प्रौढ़ व बच्चे पौधों की मुलायम पत्तियों व फूलों से रस चूसते हैं, साथ ही मधुरस छोड़ने से पौधों पर काली फफूंद जम जाती है. कीट लगे पौधे कमजोर हो जाते हैं. दाने सिकुड़ जाने से उपज और गुणवत्ता में कमी हो जाती है.

काक्सीनेला परभक्षी कीट इस की संख्या को कुछ हद तक नियंत्रित रखते हैं. जरूरत होने पर इन मित्र कीटों (परभक्षी व मधुमक्खियां) की सुरक्षा रखते हुए केवल सिफारिश की गई दवाओं का इस्तेमाल करना चाहिए. निगरानी के लिए चिपचिपे पाश काम में लें. काक्सीनेला न मिलने पर नीम से बने (निंबोली अर्क 5 फीसदी या तेल ईसी 0.03) कीटनाशी का छिड़काव कीट के लगने पर करें.

माइट्स (बरूथी) : यह भी बहुत ही छोटा जीव है, जो पत्तियों पर घूम कर रस चूसता है, जिस से पौधे पीले पड़ जाते हैं और दाने कम व सिकुड़े हुए बनते हैं. इस से गुणवत्ता व उपज की कमी हो जाती है.

थ्रिप्स (पर्णजीवी) : यह बहुत ही छोटा कीट है, जो कोमल व नई पत्तियों से रस चूसता है. कीट लगी पत्तियों पर धब्बे बन जाते हैं व पत्तियां पीली पड़ जाती हैं.

सौंफ मधुमक्खियों द्वारा परागित फसल है. इस की फसल पर पेस्टीसाइड्स का इस्तेमाल सोचसमझ कर करना चाहिए. सुरक्षित (जैविक, पादपजनित) कीटनाशी दवाओं का इस्तेमाल केवल जरूरत के मुताबिक ही किया जाना चाहिए.

सौंफ के रोग

छाछिया (पाउडरी मिल्ड्यू) : यह रोग इरीसाईफी पोलीगोनी नामक कवक से होता है. इस रोग में पत्तियों, टहनियों पर सफेद चूर्ण दिखाई देता है, जो बाद में पूरे पौधे पर फैल जाता है. इस के अधिक फैलने से उत्पादन व गुणवत्ता पर असर पड़ता है.

रोकथाम : गंधक चूर्ण का 20 से 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बुरकाव करें या घुलनशील गंधक का 2 ग्राम प्रति लिटर पानी या केराथेन एलसी का 1 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें. अगर जरूरत महसूस करें तो 15 दिन बाद इस का दोबारा छिड़काव करें.

जड़ व तना गलन : यह रोग स्क्लेरोटिनिया स्क्लेरोटियोरम व फ्यूजेरियम सोलेनाई नामक कवक से होता है. इस रोग से तना नीचे मुलायम हो जाता है व जड़ गल जाती है. जड़ों पर छोटेबड़े काले रंग के स्कलेरोशिया दिखाई देते हैं.

रोकथाम : बोआई से पहले बीजों को कार्बंडाजिम 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार कर के बोआई करनी चाहिए या केप्टान 2 ग्राम प्रति लिटर पानी के हिसाब से जमीन उपचारित करनी चाहिए. ट्राइकोडर्मा विरिडी मित्र फफूंद 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद में मिला कर बोआई से पहले मिट्टी में देने से रोग में कमी होती है.

झुलसा (ब्लाइट) : सौंफ की फसल में झुलसा रोग रेमुलेरिया व आल्टरनेरिया नाम के कवक से होता है. धीरेधीरे ये काले रंग में बदल जाते हैं. पत्तियों से तने व बीजों पर इस का प्रकोप बढ़ता है. संक्रमण के बाद यदि नमी लगातार बनी रहे तो रोग बढ़ जाता है.

रोग लगे पौधों पर या तो बीज नहीं बनते या बहुत कम और छोटे आकार के बनते हैं. बीजों की गुणवत्ता घट जाती है. अगर नियंत्रण न रखा जाए तो फसल को बहुत नुकसान होता है.

रोकथाम : स्वस्थ बीजों को बोने के काम में लीजिए. फसल में ज्यादा सिंचाई न करें. इस रोग के लगने की शुरुआत में फसल पर मेंकोजेब 0.2 फीसदी के घोल का छिड़काव करें. जरूरत के हिसाब से 10 से 15 दिनों बाद छिड़काव दोहराएं. झुलसा रोग रोधी आरएफ 15, आरएफ 18, आरएफ 21, आरएफ 31, जीएफ 2 सौंफ बोएं.

कटाई : सौंफ के दाने गुच्छों में आते हैं. एक ही पौधे के सब गुच्छे एकसाथ नहीं पकते हैं. लिहाजा, कटाई एकसाथ नहीं हो सकती है. जैसे ही दानों का रंग हरे से पीला होने लगे तो गुच्छों को तोड़ लेना चाहिए. सौंफ की अच्छी पैदावार के लिए फसल को ज्यादा पक कर पीला नहीं पड़ने देना चाहिए. सूखते समय बारबार पलटते रहना चाहिए वरना फफूंद लग सकती है.

अच्छी किस्म की चबाने (खाने) में काम आने वाली सौंफ पैदा करने के लिए, जब दाने का आकार पूरे विकसित दानों की तुलना में आधा होता है, तब छत्रकों की कटाई कर के साफ जगह पर छाया में फैला कर सुखाना चाहिए. इस विधि से लखनऊ 1 किस्म की सौंफ प्राप्त होती है. बोआई के लिए बीज प्राप्त करने के लिए मुख्य छत्रकों के दाने जब पूरी तरह पक कर पीले पड़ने लगें तभी काटना चाहिए.

उपज : सौंफ की अच्छी तरह से खेती की जाए, तो 15 से 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक पूरी तरह विकसित व हरे दाने वाली सौंफ की उपज हासिल की जा सकती है. साधारण सौंफ की 5 से 7.5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज हासिल की जा सकती है.

अधिक जानकारी के लिए क्लिक करें...