कंद वाली सब्जियों में जिमीकंद का प्रमुख स्थान है. यह देश के अलगअलग हिस्सों में कई नामों से जानी जाती है. इस के प्रमुख प्रचलित नाम ओल या सूरन भी है.

जिमीकंद सब्जी के अलावा कई तरह के स्वादिष्ठ पकवान व व्यंजन बनाने के काम में भी आता है. इस का अचार गांवों में बहुत ही स्वादिष्ठ तरीके से बनाते हैं.

जिमीकंद को पहले गृहवाटिका में ही उगाया जाता था, लेकिन कृषि वैज्ञानिकों ने जिमीकंद पर निरंतर शोध कर इस की कई उन्नतशील प्रजातियां भी विकसित की, जिस से किसानों द्वारा बड़े पैमाने पर इस को व्यावसायिक रूप से भी उगाया जाने लगा है.

जिमीकंद की देशी प्रजातियों में कड़वापन व चरपरापन अधिक पाया जाता है, जबकि उन्नत प्रजातियों में चरपरापन या कड़वापन न के बराबर होता है. बाजार में जिमीकंद की भारी मांग को देखते हुए इस की व्यावसायिक खेती किया जाना लाभदायक साबित हो रहा है.

जिमीकंद की खेती के लिए आर्द्र गरम व ठंडा शुष्क दोनों ही प्रकार के मौसम की आवश्यकता पड़ती है, क्योंकि इस से जिमीकंद के पौधों व कंदों का अच्छे तरीके से विकास होता है. बोआई के बाद जिमीकंद के बीजों के अंकुरण के लिए उच्च तापमान की आवश्यकता होती है, जबकि पौधों की बढ़वार के लिए समान रूप से अच्छी वर्षा व कंदों के विकास के लिए ठंडे मौसम की आवश्यकता होती है.

खेती के लिए कैसी हो जमीन

जिमीकंद की खेती के लिए रेतीली दोमट मिट्टी सब से अच्छी मानी जाती है, क्योंकि इस तरह की मिट्टी में कंदों की बढोतरी तेजी से होती है. जिस भूमि का चयन किया जा रहा हो, उस की जलधारण क्षमता अच्छी होनी चाहिए, लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि चिकनी व रेतीली भूमि में जिमीकंद की फसल न ली जाए, क्योंकि इस तरह की मिट्टी में कंदों का विकास अवरूद्ध हो जाता है.

रोपाई से पहले खेत में कल्टीवेटर या रोटावेटर से जुताई कर के उस में पाटा लगा देना चाहिए. अच्छी पैदावार के लिए बोआई के समय ही 20 टन प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर की सड़ी खाद को खेत में बिखेर देना चाहिए.

प्रजातियों का चयन

जिमीकंद की देशी प्रजाति तो पारंपरिक रूप से उगाई जाती रही है, लेकिन व्यावसायिक रूप से इस की 3 प्रजातियां अभी तक ज्यादा उपयुक्त पाई गई हैं.

गजेंद्र- 1

जिमीकंद की सर्वाधिक उत्पादन वाली प्रजाति मानी जाती है. इस प्रजाति में चरपरापन नहीं होता है, क्योंकि इस में कैल्शियम व आक्सैट की मात्रा कम पाई जाती है, जिस के चलते जीभ व गले में जलन नहीं होती है. यह प्रजाति खाने में सब से उपयुक्त होती है, इसलिए इस का बाजार भाव अन्य प्रजातियों की अपेक्षा अच्छा होता है.

इस प्रजाति के गूदे का रंग हलका गुलाबी होता है. इस प्रजाति की औसत उपज 300-400 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पाई गई है.

संतरा गाछी

इस प्रजाति के पौधों की बढ़वार तेजी से होती है. इस के कंदों में चरचरापन अधिक पाया जाता है. कंद खुरदरे व मख्खनी होते हैं. इस के कंदों के साथसाथ छोटेछोटे धन कंद भी निकल आते हैं. इस की औसत उपज 50-75 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

कोववयूर

यह अधिक उपज देने वाली प्रजाति है. इस के पौधों की बढ़वार संतरा गाछी की तरह ही होती है. अगर इस में संतरा गाछी की तरह अलग से धन कंद नही उत्पन्न होते हैं. इस की औसत उपज 100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

उपरोक्त तीनों प्रजातियों की बोआई का उचित समय उत्तर भारत में फरवरी से मार्च माह व दक्षिण भारत में मई माह तक का होता है.

बोआई विधि

जिमीकंद की बोआई के लिए पहले से तैयार किए गए खेत में 3-3 फुट की दूरी पर 30 सैंटीमीटर गहरा, लंबा व चौड़ा गड्ढा खोद लिया जाता है.

इस प्रकार प्रति हेक्टेयर लगभग 10,000 गड्ढे तैयार हो जाते हैं. खेत में तैयार इन्हीं धन कंदों से अलग किए गए छोटे धन कंद, जिन का औसत भार 250 ग्राम तक का होता है, या बड़े कंदों के 500 ग्राम तक के टुकड़ों में काट कर खोदे गए गड्ढों में रोप देते हैं. इस के बाद रोपे गए स्थान पर पिरामिड आकार में मिट्टी चढ़ा देते हैं. उस के उपरांत उसे घासफूस से ढक देते हैं, जिस से खेत में से नमी न खत्म होने पाए, इस से कंदों में अंकुरण जल्दी होता है.

बीज की मात्रा

बोआई के लिए 500 ग्राम तक के बीज उपयुक्त पाए गए हैं. इस प्रकार एक हेक्टेयर के लिए 50 क्विंटल बीज की जरूरत पड़ती है.

गरमियों में मानसून से पूर्व एक सिंचाई आवश्यक होती है, जबकि कम वर्षा की दशा में नमी बनाए रखने के लिए समयसमय पर सिंचाई करते रहना चाहिए. इस के अलावा खेत में नमी बनाए रखने के लिए बोआई के उपरांत भूसी की परत, पुआल या सूखी पत्तियां बिछा देनी चाहिए, इस से खेत से नमी नहीं उड़ने पाती है.

खरपतवार व कीट नियंत्रण

जिमीकंद की फसल के साथ खरपतवार का उग आना स्वाभाविक है. ऐसे में पूरी फसल के दौरान 2-3 बार निराईगुड़ाई अवश्य करनी चाहिए.

पहली निराईगुड़ाई 40-60 दिन बाद व दूसरी 80-90 दिन बाद करनी चाहिए. साथ ही, हर गुड़ाई के बाद पौधों पर मिट्टी अवश्य चढ़ाएं.

कृषि विज्ञान केंद्र, बंजरिया, जनपद बस्ती में फसल सुरक्षा के विशेषज्ञ डा. प्रेमशंकर के अनुसार, जिमीकंद की फसल में तंबाकू की सुंडी जो 35-40 मिमी की लंबाई में होती है. ये इस का जुलाई से सितंबर माह तक प्रकोप देखा गया है. ये पत्तियों को खा कर हानि पहुंचाती हैं. इस की रोकथाम के लिए मेथेमिल लिक्विड 1 मिलीमीटर प्रति हेक्टयर की दर से 200 मिली प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करना चाहिए.

रोग

जिमीकंद की फसल को मुख्यतः 2 तरह के रोग नुकसान पहुंचाते हैं.

पहला, झुलसा रोग, जो फाइटोफ्थोरा कोलोकेमी नामक फंफूद के कारण लगता है. इस से जिमीकंद की फसल की पत्तियां झुलस जाती हैं और तना गलने लगता है. साथ ही, कंदों की वृद्धि भी रुक जाती है.

दूसरा, रोग पत्ती एंव धन कंद विगलन का होता है, जिस से पत्तियां व धन कंद सड़ने लगते हैं.

दोनों रोगों के लिए सिक्सर नामक रसायन की 300 ग्राम मात्रा प्रति एकड़ को 200-300 लिटर पानी में मिला कर छिड़काव करना चाहिए.

खुदाई

जिमीकंद की फसल अक्तूबर माह से खुदाई के लिए हो जाती है. इसे हर हाल में नवंबर से दिसंबर माह तक खोद लेना चाहिए.

खुदाई करते समय कंद को कटने से बचाने पर विशेष ध्यान देना चाहिए. खोदे गए कंद को साफ कर लेना चाहिए. कंद की खुदाई के 20 दिन पूर्व ही खेत की सिंचाई बंद कर देना चाहिए.

उपज व लाभ

जिमीकंद फसल की देखरेख व अच्छी प्रजाति के चयन पर निर्भर करती है. अगर 500 ग्राम भार के बीजों की बोआई की गई है, तो प्रति हेक्टेयर 400 क्विंटल की उपज मिलती है, जो बाजार भाव 20-40 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से आसानी से बेची जा सकती है.

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