फालसा उत्तराखंड के हिमालय की पहाडि़यों पर झाड़ीनुमा रूप में पाया जाता है और पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश, मुंबई, बिहार, पश्चिम बंगाल में एक बहुत ही सीमित पैमाने पर इस की खेती की जाती है. उत्तर प्रदेश में इस की खेती तकरीबन 300 हेक्टेयर जमीन में की जाती है.

फालसा उपोष्ण कटिबंधीय फल है. इस का पौधा झाड़ीनुमा होता है. इन पर कीड़े और बीमारियां कम लगती हैं. फल छोटेछोटे अम्लीय स्वाद के होते हैं. इस के फल गोल होते हैं. इस के फलों का रंग कच्ची अवस्था में हरा होता है और पक जाने पर इस का रंग हलका भूरा या हलका बैगनी हो जाता है.

पकने के बाद फलों को ज्यादा दिनों तक नहीं रखा जा सकता है. वे 1 या 2 दिन बाद ही खराब होने लगते हैं.

कैसे करें खेती

जलवायु और मिट्टी : फालसा केवल उत्तरी भारत के ऊंचे पहाड़ी इलाकों को छोड़ कर देश में सभी जगहों पर पैदा किया जा सकता है. यह गरम और अधिक शुष्क मैदानी भागों में और अधिक वर्षा वाली नम जगहों पर दोनों ही प्रकार की जलवायु में पैदा किया जाता है. सर्दियों में पत्तियां गिर जाती हैं. फालसा पाले को भी सहन कर लेता है.

खेत में जो मिट्टी दूसरे फलों के लिए सही नहीं होती, फालसा की खेती उस में की जा सकती है यानी इस की खेती सभी तरह की मिट्टियों में संभव है, पर फिर भी अच्छी बढ़वार और उपज के लिए जीवांशयुक्त दोमट मिट्टी होनी चाहिए.

प्रजातियां : फालसा की कोई विशेष प्रजाति नहीं है. विभिन्न क्षेत्रों में इस की किस्म को लोकल या शरबती के नाम से पुकारते हैं. शरबती फालसे के पेड़ की ऊंचाई 3 फुट तक होती है. पेड़ पर लगने वाले कच्चे फल का स्वाद खट्टा होता है और पके हुए फल का स्वाद खाने में कुछ खट्टा और कुछ मीठा होता है.

हिसार, हरियाणा में इस के पौधे 2 तरह से पहचाने जाते हैं, नाटे फल और लंबे फल.

उत्पादकता के लिहाज से नाटे पौधे के पेड़ की ऊंचाई 25 फुट तक होती है. इस पेड़ पर लगने वाला कच्चा फल मीठा और खट्टा होता है. जब यह फल अच्छी तरह से पक जाता है, तो बहुत ही मीठा हो जाता है.

Farmingफैलाव : फालसा का फैलाव ज्यादातर बीज की मदद से किया जाता है. मई महीने में सेहतमंद और पके फलों से बीजों को निकाल लिया जाता है. बीजों को ज्यादा दिनों तक रखने से उगाने की कूवत खत्म हो जाती है, इसलिए इस को निकालने के 15-20 दिनों के अंदर बो देना चाहिए.

बीजों को पहले क्यारियों या गमलों में बोते हैं. उस के बाद उन्हें गमलों में से निकाल कर खेतों में लगा दिया जाता है. फालसा का फैलाव कर्तनों द्वारा भी मुमकिन है. लेकिन कर्तनें देर से और कठिनाई से जड़ें फोड़ती हैं. बीज को उगाने के लिए 15-20 दिन और रोपित करने के लिए 3-4 महीने की जरूरत होती है.

फिलीपींस में कलिकायन तरीके से फालसा बीज रोप कर भी कामयाबी पाई है, लेकिन भारत में अभी तक ऐसा कोई भी प्रयोग नहीं किया गया है.

रोपने का तरीका : फालसा को लगाने के लिए जनवरी या गरमियों में गड्ढे तकरीबन 30 सैंटीमीटर लंबे, ऊंचे और चौड़े आकार के तैयार किए जाते हैं. गड्ढों में 2 टोकरी गोबर की सड़ी हुई खाद और उसे मिट्टी के मिश्रण से भर दिया जाता है.

पौधों को रोपते समय कतार से कतार की दूरी और पौधे से पौधे की दूरी 1.5 से 2.0 मीटर की होनी चाहिए. जब पौधों की ऊंचाई 20-22 सैंटीमीटर हो जाती है, तो बारिश में उन को सही जगह पर रोप दिया जाता है.

नर्सरी में लगे हुए पौधे, जिन में सुषुप्तावस्था में आने से पहले काफी बढ़वार हो चुकी हो, फरवरी में खेत में रोप देना चाहिए.

खाद और उर्वरक : फालसा में खाद देने से उपज को और ज्यादा बढ़ाया जा सकता है. तकरीबन 10-15 किलोग्राम अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद हर साल देनी चाहिए. फालसा का ज्यादा उत्पादन लेने के लिए 100 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस और 25 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर देनी चाहिए.

यह जरूरी है कि नाइट्रोजन वाली खाद 2 भागों में देनी चाहिए. पहला भाग फूल आते समय और दूसरा फल होने के बाद. साथ ही, एक किलोग्राम अमोनियम सल्फेट प्रति पौधा देना चाहिए.

यह फल आकार में बढ़ता है, जिस में जिंक सल्फेट 0.4 फीसदी फल पकने के पहले दिया जाना चाहिए, जिस से फल में जूस की मात्रा बढ़ती है यानी काटने के तुरंत बाद या सर्दी के अंत में खाद को पौधों के चारों तरफ एक मीटर के व्यास में फैला कर मिला देना चाहिए. खाद देने के तुरंत बाद सिंचाई करना जरूरी है.

हैदराबाद में भेड़ की मैगनी, तालाब की सिल्ट, पत्तियों की राख वगैरह देने से फायदा देखा गया है.

सिंचाई और निराईगुड़ाई

इस के पौधे सहनशील प्रकृति के होते हैं, इसलिए पूरी तरह से विकसित पौधों को सिंचाई की जरूरत कम होती है. फालसा में पहली सिंचाई खाद डालने के बाद या फरवरी के दूसरेतीसरे हफ्ते में दें, उस के बाद मार्चअप्रैल में सिंचाई 20-25 दिन के अंतराल पर करनी चाहिए और मई के महीने में इस अंतर को घटा कर 15-20 दिन कर देना चाहिए.

पौधों से अच्छी उपज लेने के मकसद से जनवरी से मई तक 15 दिनों के अंतराल से सिंचाइयां देते रहते हैं. प्रत्येक सिंचाई के बाद थालों की मिट्टी को उथले रूप में गाड़ देना चाहिए, जिस से मिट्टी में नमी रहने के साथसाथ खरपतवार खत्म किए जा सकते हैं.

कीट और बीमारियां

फालसा का पौधा ज्यादा सहनशील होने की वजह से इस पर कीड़े और बीमारियां कम लगती हैं. कभीकभी छिलका खाने वाला कीड़ा देखा जाता है. इन से फालसा में विशेष नुकसान पहुंचाने की संभावना नहीं होती है, क्योंकि फालसे के पौधों में हर साल गहन कृंतन किया जाता है. पत्तियों के धब्बों के लिए डाइथेन जैड-78 के 0.3 फीसदी घोल का 15 दिन के फासले पर छिड़काव करते हैं.

फालसा के सफल उत्पादन के लिए प्रयुक्त तकनीक के जरीए 1,05,000 की लागत आती है. फालसा का अच्छा उत्पादन लेने के लिए 3-5 किलोग्राम प्रति पौधा है और जिस का बाजार मूल्य 170 रुपए प्रति किलोग्राम मिल जाता है. इस से एक किसान कुल 89,000 रुपए प्रति हेक्टेयर आमदनी ले सकता है.

अंत:फसल चक्र : कुछ सालों तक कम दूरी तक जड़ें फैलने वाली सब्जियां या 2 दाल वाली फसलें पैदा की जा सकती हैं. फालसा एक पत्ते वाली झाड़ी है और अगर काटाछांटा न जाए, तो यह बढ़ कर पेड़ की तरह हो सकता है.

हर साल पौधों को दिसंबरजनवरी माह में जब पौधा सुषुप्तावस्था में होता है, सिरे को काटना जरूरी होता है.

अगर फालसा को ज्यादा दूरी पर (3 मीटर) लगाया जाता है, तो कृंतन जमीन से 90 सैंटीमीटर की ऊंचाई से करना चाहिए और अगर इन के  लगाने का अंतर कम (2 मीटर) रखा गया है, तो पौधों को 30 सैंटीमीटर से 45 सैंटीमीटर ऊंचाई दे कर सिरे से काटते हैं.

दक्षिण भारत में फालसा को बिना काटे हुए पेड़ के रूप में बढ़ने दिया जाता है और कहींकहीं पर इन को जमीन के बहुत पास से काट देते हैं. बहुत से फल उत्पादन करने वाले फालसा के पौधों को बिलकुल ही जला देते हैं, जिस से उस के ऊपर कोई भी अंश दिखाई न दे.

पंजाब कृषि विभाग, लायलपुर ने अनुसंधान का काम कर के ऐसी जानकारी हासिल की थी कि फालसा के पौधों को जमीन से 120 से 150 सैंटीमीटर की ऊंचाई से काटना चाहिए. ऐसा करने से उन में नई बढ़वार ज्यादा होती है और फल भी ज्यादा होते हैं.

फूल आना और फलना

फालसा में फूल जल्दी पैदा होते हैं. पौधा लगाने के 3 साल बाद यह अच्छी उपज देने लगते हैं. दक्षिणी भारत में इस के फल मार्च महीने में पकने लगते हैं और मई महीने के अंत या जून महीने के शुरू तक खत्म हो जाते हैं.

पंजाब और उत्तर प्रदेश में फल मई महीने के अंत तक चलते हैं और कभीकभी जुलाई महीने तक भी चलते रहते हैं. प्रति पौधे से 3-10 किलोग्राम फल मिलते हैं. इस के फल एकएक कर के तोड़े जाते हैं. जब फलों का रंग लाल हो जाता है, तो फलों को हाथ से सावधानीपूर्वक तोड़ लिया जाता है.

फलों की तुड़ाई सुबह के समय करनी चाहिए. फल तोड़ने के एक दिन बाद ही यह खराब होने लगते हैं, इसलिए इन को तोड़ कर पास वाले बाजार में बेच दिया जाता है. इस के उद्यान ज्यादातर ठेकेदारों को बेच दिए जाते हैं और फलों को तोड़ कर बाजार में फुटकर रूप में बेचते रहते हैं.

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