मधुमक्खीपालन को खेती के साथसाथ भी किया जा सकता है. मधुमक्खीपालन पालन करने से किसानों की आमदनी तो बढ़ती ही है, साथ ही साथ उन क्षेत्रों में फसल की पैदावार भी बढ़ती है, जहां मधुमक्खी के बक्से लगाए जाते हैं.
मधुमक्खीपालन के लिए यह जरूरी नहीं है कि आप के पास खेती की जमीन ही हो. आप दूसरों के साथ मिल कर भी यह काम आसानी से कर सकते हैं.
बहुत से मधुमक्खी पालक ऐसे हैं, जो देशभर में मौसम के हिसाब से अपने मधुमक्खीपालन बक्सों को एक जगह से दूसरी जगह ले जा कर लगाते हैं और मधुमक्खीपालन का काम बेहतर तरीके से करते हैं.
लेकिन इस बात का ध्यान जरूर रखें कि इस काम को शुरू करने से पहले मौनपालन की ट्रेनिंग जरूर हासिल कर लें. इस से आप को मधुमक्खीपालन की जानकारी, उस में उपयोग होने वाले उपकरणों की जानकारी, बाजार की जानकारी आदि भी मिलेगी, जो आप को बेहतर मधुमक्खीपालक बनने में मददगार साबित होगी.
मधुमक्खी यानी मौनों के प्राकृतिक स्वभाव जैसे खोखलों में रहने, अनेक समानांतर छत्ते बनाने, छत्ते के ऊपर के भाग में मधु संचय करने और 2 छत्तों के बीच समान अंतर होने के स्वभाव के कारण ही इन्हें विशेष आकारप्रकार के बने लकड़ी के बक्से (मौनगृह) में रख कर पाला जाता है.
मौन प्रबंधन
इतना ही नहीं, मौनों से अधिक से अधिक लाभ हासिल करने के लिए मौनचर आकलन, मौनवंश व्यवस्था, मौन उपकरणों का सही से रखरखाव कर के भरपूर मधु उत्पादन करने और परपरागण का लाभ लेने के लिए मौनों की उचित देखभाल मौसम के अनुसार करनी चाहिए.
मौनवंश का निरीक्षण : मौनवंशों की जरूरतों को जानने के लिए हमेशा उन पर नजर रखनी चाहिए, ताकि मौनपालक को अपने मौनवंश की स्थिति का सही पता रहे. मौनवंश को 10-12 दिन के अंतराल पर उन की प्रगति जानने के लिए खोल कर देखना चाहिए.
निरीक्षण करते समय निम्नलिखित बातों की जानकारी लेना बहुत जरूरी होता है :
* मौनवंश में रानी है या नहीं.
* रानी मधुमक्खी द्वारा अंडे देने का काम सही ढंग से चल रहा है या नहीं.
* शिशुखंड के छत्तों में पर्याप्त मधु या पराग का संचय है या नहीं.
* छत्तों में विभिन्न अवस्थाओं के शिशु का अनुपात ठीक है या नहीं.
* रानी मधुमक्खी को अंडा देने के लिए पर्याप्त स्थान है या नहीं.
* मौन शत्रुओं या रोगों के बारे में जानकारी हासिल करना.
कृत्रिम भोजन : मौनवंश में कभीकभी भोजन की कमी हो जाने पर उस की पूर्ति के लिए और मौनवंश के काम को गति देने के लिए कृत्रिम भोजन देने की जरूरत होती है.
एक सामान्य मौनवंश के पास 2 किलोग्राम मधु व पराग का संचय होना चाहिए. इस से कम मात्रा होने पर मौनों को कृत्रिम भोजन देना चाहिए. आमतौर पर चीनी और पानी को बराबर की मात्रा में उबाल कर बनाया गया घोल ठंडा करने के बाद मंद या तीव्र भोजन पात्रों में दिया जाता है.
गरमी के दिनों में मैदानी क्षेत्रों में अधिक पतला 20-25 फीसदी चीनी के शरबत की जरूरत पड़ती है. बरसात और शीतकालीन मौसम में पूरक भोजन (कैंडी) के रूप में चीनी खिलाई जाती है. वैसे, एक मौनवंश को 400 ग्राम चीनी का शरबत प्रति सप्ताह देना सही होता है.
मौनवंश में रानी को प्रवेश कराना : कभीकभी मौनवंश की रानी गायब हो जाती है या पुरानी रानी को बदलने की जरूरत होती है. ऐसी दशा में या तो पूरी तरह से विकसित रानी कोष अथवा अंडा देने वाली रानी को रानीपाश (क्वीन केज) में रख कर और उस के द्वार को मधु व चीनी के मिश्रण से बंद कर के शिशु खंड को 2 फ्रेमों के बीच में रख देना चाहिए.
ध्यान रहे कि रानीपाश का द्वार नीचे की ओर रहे. यह रानीपाश मौनवंश में रखने के बाद मौन द्वार में भरे हुए मिश्रण को खाएगी. इस में कुछ घंटों का समय लग जाता है. इस बीच रानी के शरीर में उस मौनवंश की गंध पूरी तरह फैल जाएगी और मौन उसे स्वीकार कर लेगी. रानी मधुमक्खी को शहद में डुबो कर दूसरे मौनवंश में भी दिया जा सकता है.
दो मौनवंशों को मिलाना : जब कोई मौनवंश किसी कारणवश कमजोर या रानीविहीन हो जाता है या उस में जननी कर्मठ (लेइंग वर्कर) हो जाती है, तो ऐसे मौनवंश को किसी दूसरे को औसत शक्ति के मौनवंश के साथ मिला देते हैं.
इस के लिए ऐसे मौनवंश को प्रतिदिन 2 से 3 फुट खिसका कर पहले एकदूसरे के पास ले आते हैं और शाम के समय शिशुखंड के अंतरपट के आकार का अखबार कागज, जिस से मौनगृह ढका जा सके, माचिस की तिल्ली से छेद कर के दोनों को गाढ़ा शरबत लगा दें.
इस कागज को रानी मौन वाले शिशुखंड के ऊपर अंतरपट वाले स्थान पर रख दें और उस के ऊपर रानीविहीन मौनवंश की शिशुखंड रख कर उस के ऊपर अंतरपट लगा कर ऊपरी ढक्कन से बंद कर दें.
रातभर में इस मौन अखबार के कागज के अगर टुकड़े पड़े मिले और मौनवंश का काम समान रूप से चल रहा हो, तो सम झ लेना चाहिए कि दोनों मौनवंश आपस में मिल गए हैं.
मौनवंश का विभाजन : मौनवंशों की वृद्धि के लिए अथवा ऐसी स्थिति में, जबकि उस की बकछुट प्रवृत्ति तीव्र हो, मौनवंशों को विभाजित करने की जरूरत होती है. मौनवंश को आधे फ्रेम निकाल कर खाली मौनगृह में रख दें और दोनों मौनगृह को ढक दें.
इस बात का अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि शिशु और भोजन संचय वाले फ्रेम मौनों सहित दोनों मौनग्रहों में बराबरबराबर बंट जाएं.
अब मौनवंश को अपने स्थान से इतना खिसका दें कि उस से घिरा पूरा स्थान खाली हो जाए, ताकि जो मौन बाहर से आई हुई हैं, दोनों मौनवंशों में बराबरबराबर हो जाएं. इस के 2 या 3 दिन बाद मौनवंशों को अलगअलग कर दें.
मौनवंश में बच्चा मौन देना : कम उम्र की मौनों को कोई भी वंश स्वीकार कर लेता है, इसलिए इन्हें देने के लिए मौनगृह के सामने एक लकड़ी का पट्टा प्रवेश द्वार तक अखबार फैला दें.
अब जिस वंश से मौन देनी होती है, उस से मौनों सहित वापस चली जाती हैं, परंतु बच्चा मौन उड़ नहीं सकती है, इसलिए धीरेधीरे रेंग कर यह मौनवंश में चली जाती हैं. बच्चा मौनों को मौनवंश में तभी देना चाहिए, जबकि मौनवंश में विभिन्न आयु की मौनों का अनुपात सही न हो.
मौन उपकरण
मौनगृह : आधुनिक मौनपालन का सब से महत्त्वपूर्ण उपकरण मौनग्रह है, जो मौनांतर के सिद्धांत पर बनाया गया है.
मौनांतर वह खाली स्थान है, जो मौनें अपने कार्यकलाप के लिए अपने एक छत्ते के चारों ओर छोड़ती हैं अर्थात 2 छत्तों के बीच का वह अंतर है, जिस में मौनें आसानी से आ सकें.
मौनगृह की बनावट : मौनगृह का निचला आधारपट्ट या तलपट होता है, जो आगे की ओर ढाल कर बना होता है. इस से आगे निकला हुआ भाग अवतरण पट्ट कहलाता है, जिस के सामने के भाग के एक अलग हो जाने वाली द्वार पट्टिका लगी होती है. आधारपट्ट के ऊपर शिशु खंड रहता है. शिशुखंड में कुछ चौखट (फ्रेम) रहते हैं, जिन में मौनें अपने छत्तों को बनाती हैं.
शिशुखंड के ऊपर एक मधुखंड होता है, जिस के छत्ते में मौनें मधु संचय करती हैं. इस के ऊपर ढक्कन के लिए अंतरपट होता है, जिस के बीच में वायु संचरण के लिए बड़ा सा छेद होता है. मौनगृह ऊपर से ऊपरी ढक्कन से ढका रहता है.
वैज्ञानिक पद्धति से मौनपालन के लिए आधुनिक मौनगृह, मौमी छत्ताधार और मधु निष्कासन यंत्र आवश्यक मुख्य उपकरण हैं. बाकी सभी सहायक उपकरणों की श्रेणी में आते हैं. कुछ प्रमुख मौन उपकरणों की जानकारी इस प्रकार है :
* मौमी छत्ताधार
* मधु निष्कासन यंत्र
* मुक्तक यंत्र (हाईव टूल)
* मुंहरक्षक जाली (बी वैल)
* चींटी निरोधक प्यालियां
* लोहे का स्टैंड
* डमी
* भोजन पात्र
* बकछुट थैला
* वाहक पिंजरा (कैरिंग केज)
* रानी अवरोधक जाली (क्वीन ऐक्सक्लूडर)
* रानी रोक द्वार (क्वीन गेट)
* रानीपाश (क्वीन केज)
* न्यूक्लियस मौनगृह
* तारकोस पटला
* दाब घिर्रा
इन उपकरणों के अतिरिक्त नर पाश, जालीदार ट्रेन, दस्ताने व मौन निर्वासक यंत्र हैं, जिन का उपयोग कभीकभी मौनपालन के काम के लिए किया जाता है.
मधुमक्खी (मौन) के रोग
अष्टपदी रोग : यह रोग एकैरिपिस बुडई (रैनी) नामक सूक्ष्म अष्टपदी (माईट) के कारण होता है.
यों करें प्रबंधन : रोगी मौनवंशों को शाम के समय मिथाइल सैलीसिलेट रसायन को खाली पैंसलिन की इंजैक्शन की शीशी में भर कर उस के ढक्कन में छेद कर रुई की बत्ती लगा देते हैं. इस शीशी को तलपट के एक किनारे पर अथवा फ्रेम की निचली छड़ पर रख देते हैं.
रुई की बत्ती के सहारे दवा ऊपर के ढक्कन में वाष्प छोड़ती है, जो पूरे मौनगृह में फैल जाती है. इस की वाष्प अष्टपदी को मार देती है.
इस दवा का इस्तेमाल लगातार 3 दिनों तक एकएक हफ्ते के अंतर पर किया जाता है. यह प्रक्रिया फिर से दोहराई जा जाती है.
नोसीमा रोग : इस रोग से प्रभावित मौनें मौनगृह के बाहर बैठी हुई अपने पंखों के सहारे कांपती हुई मिलती हैं अथवा ये मौनें पीठ के बल पड़ी हुई पंखों को फड़फड़ाते हुए घूमती हुई मिलती हैं.
यों करें प्रबंधन : रोगी मौनवंशों को शाम के समय में थाईमोल 60 मिलीग्राम या फिर फ्यूमिजिलिन 400 मिलीग्राम औषधि को गरम पानी के साथ बनाए गए 50 फीसदी के चीनी के एक लिटर घोल में मिला कर हर मौनवंश को तकरीबन 8 से 10 दिन तक 200 से 400 मिलीलिटर प्रतिदिन के हिसाब से खिलाना चाहिए.
कोष शिशु रोग : यह रोग एक विषाणु द्वारा होता है, जिसे थाईसैक्ररूड वायरस कहते हैं. इस रोग में रोगग्रस्त छत्ता सिकुड़ा हुआ होता है और छिद्रयुक्त प्यूपाकोष के ढक्कन के साथ धूमिल प्रतीत होता है.
यों करें प्रबंधन : मौनवंश में इस रोग का प्रकोप दिखाई देने पर मौनवंश को समूल नष्ट कर देना चाहिए और फ्रेमों, मौनगृहों व उपकरणों को कास्टिक सोडा के उबलते हुए पानी में साफ करना चाहिए.
* संक्रमित क्षेत्र में बकछुट नहीं पकड़ना चाहिए.
* रोगग्रस्त क्षेत्र से रोगमुक्त क्षेत्र में मौनवंशों का स्थानांतरण नहीं करना चाहिए.
* मौनवंशों में लूटपाट, बहकना या शिशु छत्तों का आदानप्रदान बिलकुल नहीं होने देना चाहिए.
* स्वस्थ मौनवंश, जिन में रोगरोधिता होती है, रानियां और मौनवंशों का प्रजनन कर के बढ़ाना चाहिए.