लंगड़ी बुखार एक जानलेवा बीमारी है. यदि पशु इस की चपेट में आ जाए और समय पर उस की देखभाल न हो, तो उस की मौत तक हो जाती है.

भारत ने दुग्ध उत्पादन में बड़ी तेजी के साथ विश्व बाजार में अपनी एक पहचान बनाई है. विश्व में आज भारत दुग्ध उत्पादन के मामले में शीर्ष पर है. जिस स्तर पर हम आज दूध उत्पादन कर रहे हैं, यह हमारे लिए गर्व की बात है. इस लय को बरकरार रखने के लिए हमें अपने दुधारू पशुओं का ध्यान रखना बहुत ही आवश्यक है.

दुधारू पशुओं को पालने में जो सब से बड़ी समस्या आती है, वह है पशुओं में होने वाली बीमारियां. उन की देखभाल करना जरूरी है. यदि एक पशु में कोई बीमारी हो जाता हैं कि तो दूसरे पशु भी इस का शिकार होने लगते हैं.

यदि इन की उचित देखभाल न की जाए, तो बीमारी घातक हो जाती है. कुछ बीमारियां इतनी भयानक होती हैं कि दुधारू पशुओं की मौत तक हो जाती है. इन बीमारियों में गलघोंटू, मुंहपकाखुरपका और लंगड़ी बुखार मुख्य हैं.

लंगड़ी बुखार एक जानलेवा बीमारी है. यदि पशु इस की चपेट में आ जाए और समय पर उस की देखभाल न हो, तो उस की मौत तक हो जाती है.

आज हम आप को लंगड़ी बुखार बीमारी के लक्षणों और इस के इलाज के बारे में कुछ जरूरी जानकारी उपलब्ध करा रहे हैं.

लंगड़ी बुखार

वैसे तो यह बीमारी गाय और भैंसों दोनों में होती है. परंतु यह बीमारी गाय में अधिक पाई जाती है. यह एक खतरनाक बीमारी है. सब से पहले पशु की पिछली व अगली टांगों के ऊपरी भाग में भारी सूजन आ जाती है, जिस से पशु लंगड़ा कर चलने लगता है या फिर बैठने लगता है. जिस भाग पर सूजन आई होती है, उसे दबाने पर कड़कड़ की आवाज आती है.

इस से बचने के लिए पशु का उपचार शीघ्र करवाना चाहिए, क्योंकि इस बीमारी के जीवाणुओं द्वारा हुआ जहर शरीर में पूरी तरह फैल जाने से पशु की मौत हो जाती है.

इस बीमारी से बचने के लिए पशुओं में ‘प्रोकेन पेनिसिलिन’ के टीके लगाए जाते हैं. यह टीके बिलकुल मुफ्त लगते हैं. लंगड़ी बुखार को साधारण भाषा में जहरबाद, फडसूजन, काला बाय आदि नामों से भी जाना जाता है. यह बीमारी पशुओं में कभी भी हो सकती है.

मुख्य रूप से यह बीमारी 6 महीने से 2 साल तक की उम्र वाले पशुओं में अधिक पाई जाती है.

मुख्य लक्षण

इस बीमारी में पशु को तेज बुखार आता है और उस का तापमान 106 डिगरी फारेनाइट से 107 फारेनाइट तक पहुंच जाता है. पशु सुस्त हो कर खानापीना छोड़ देता है.

पीडि़त पशु लंगड़ा कर चलने लगता है. यह बीमारी आमतौर पिछले पैरों को अधिक प्रभावित करती है और सूजन घुटने से ऊपर वाले हिस्से में होती है.

यह सूजन शुरू में गरम व कष्टदायक होती है, जो बाद में ठंडी व दर्दरहित हो जाती है. पैरों के अलावा सूजन पीठ, कंधे व दूसरी मांसपेशियों वाले हिस्से पर भी हो सकती है. सूजन के ऊपर वाली चमड़ी सूख कर कड़ी होती जाती है.

इस बीमारी में पशु का उपचार जल्दी करवाना चाहिए, क्योंकि इस बीमारी के जीवाणुओं द्वारा हुआ जहर शरीर में पूरी तरह फैल जाने से पशु की मौत हो जाती है.

ऐसी बीमारियों में पशुपालक को चाहिए कि अपने पशु का जल्द से जल्द इलाज कराएं या पहले से ही पशुओं का टीकाकरण करा लें, ताकि भविष्य में पशु को कोई परेशानी न हो.

जानकारी के लिए कृषि विज्ञान केंद्र के वरिष्ठ वैज्ञानिक व अध्यक्ष से संपर्क करें.

रोकथाम व बचाव

* वर्षा ऋतु शुरू होते ही पशु को इस बीमारी का टीका लगवा लेना चाहिए. यह टीका पशु को 6 माह की उम्र पर भी लगाया जाता है.

* रोगग्रस्त पशुओं को स्वस्थ पशुओं से अलग कर देना चाहिए.

* भेड़ों में ऊन कतरने से 3 महीने पहले टीकाकरण करवा लेना चाहिए, क्योंकि ऊन कतरने के समय घाव होने पर जीवाणु घाव से शरीर में प्रवेश कर जाता है, जिस से रोग की संभावना बढ़ जाती है.

* सूजन को चीरा मार कर खोल देना चाहिए, जिस से जीवाणु हवा के संपर्क में आने पर अप्रभावित हो जाता है.

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