स्ट्राबैरी (फ्रेगेरिया अनानासा) यूरोपियन देश का फल है. इस का पौधा छोटी बूटी के समान होता है. इस के छोटे तने से कई पत्तियां निकलती हैं. पत्तियों के निचले हिस्से से कोमल शाखाएं निकलती हैं, जिन्हें रनर्ज कहते हैं. इन रनर्ज द्वारा स्ट्राबैरी का प्रवर्धन किया जाता है.

स्ट्राबैरी फलों का आकार व आकृति प्रजाति पर निर्भर करता है. सामान्य प्रजातियों का फल गोल से कोणाकार आकृति का होता है.

स्ट्राबैरी का फल स्वादिष्ठ और पौष्टिकहोता है. इस में विटामिन ए, बी, बी-2, विटामिन सी और खनिज पदार्थों में पोटेशियम, कैल्शियम और फास्फोरस प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं.

जलवायु

भारत में स्ट्राबैरी की खेती पहाड़ी और मैदानी क्षेत्रों में की जा रही है. मैदानी क्षेत्रों में इस की फसल सिर्फ  सर्दियों में की जाती है, जिस के लिए अक्तूबरनवंबर माह में पौधे लगाए जाते हैं.

जमीन का चुनाव

इस की खेती हलकी रेतीली से ले कर दोमट चिकनी मिट्टी में की जा सकती है, परंतु दोमट मिट्टी और उचित जल निकास वाली जमीन इस के लिए उपयुक्त है.

खेत की जुताई कर के मिट्टी भुरभुरी बना ली जाती है. 60’×30’ की उच्चीकृत क्यारी खेत की लंबाई के अनुरूप बना ली जाती है. गोबर की सड़ी खाद 5-10 किलोग्राम और 50 ग्राम उर्वरक मिश्रण यूरिया, सुपर फास्फेट और म्यूरेट औफ पोटाश 2:2:1 के अनुपात में दिया जाता है. यह मिश्रण साल में 2 बार मार्च व अगस्त माह में दिया जाता है.

पौधे लगाने की विधि

स्ट्राबैरी की खेती के लिए अक्तूबर से नवंबर माह में रनर्ज लगाए जाते हैं. मृदा रोगों से बचाने के लिए पौधों की जड़ों को एक फीसदी कौपरऔक्सीक्लोराइड (0.2 फीसदी) या डाईथेन एम 45 (0.2 फीसदी) घोल से उपचारित किया जाता है. इस के बाद पौधों को उच्चीकृत क्यारियों में लाइन से लाइन की दूरी 30-45 सैंटीमीटर और पौधे से पौधे का अंतर 15-30 सैंटीमीटर रखा जाता है.

पौधा लगाते समय क्यारियों में लगभग

15 सैंटीमीटर का छोटा गड्ढा बना कर उपचारित जड़ों के इर्दगिर्द की मिट्टी को दबा दिया जाता है, ताकि जड़ों और मिट्टी के बीच वायु न रहे. पौधे लगाने के बाद हलकी सिंचाई की जाती है.

प्रजातियां

स्ट्राबैरी की भारत में लगाई जाने वाली प्रमुख प्रजातियां हैं : टयोगा, टोरे, एनआर राउंड हैड, रैड कोट, पूसा ड्वार्फ,  कटराई स्वीट, चांडलर, सेल्वा, बेल रूबी, फर्न, पजारो, प्रीमियर, रैड कास्ट, लोकल जयोलीकोट, दिलपसंद, बैंगलौर, फ्लोरीडा 90 आदि हैं.

सिंचाई व देखभाल

स्ट्राबैरी की फसल को हलकी सिंचाई दी जाती है. सामान्य हालात में शरद ऋतु में 10-15 दिन और ग्रीष्म ऋतु में 5-7 दिन के अंतराल में सिंचाई करना जरूरी है. ड्रिप (टपकाव) विधि द्वारा सिंचाई विशेषकर लाभप्रद है. सिंचाई की मात्रा मिट्टी की गहराई और खेत के ढलानों पर निर्भर करती है.

मल्चिंग

स्ट्राबैरी की क्यारियों को काले रंग की प्लास्टिक शीट से ढकने व मल्चिंग करने से विशेष लाभ है. इस विधि द्वारा मिट्टी में नमी अच्छी रहती है और खरपतवार भी नियंत्रित रहते हैं.

मल्चिंग सर्दी के मौसम में कुहरे के कुप्रभाव और फलों का सड़ना कम करती है. पकने वाले फलों को सूखी घास या पुआल द्वारा भी ढका जा सकता है, जिस से पक्षियों द्वारा नुकसान कम किया जा सकता है.

खरपतवार नियंत्रण

क्यारियों में घास और खरपतवार नियंत्रण बहुत आवश्यक है, जो कि गहन शारीरिक श्रम कार्य है. यह स्ट्राबैरी की कृषि लागत बढ़ाने का एक प्रमुख कारण है. खरपतवारनाशक जैसे सीमाजीन (0.5 फीसदी) व पैराक्वैट (0.5 फीसदी) के प्रयोग से इन का नियंत्रण किया जा सकता है.

पौधे विकसित करने की विधि

किसान अपनी कुछ क्यारियां सिर्फ पौधे विकसित करने के लिए रख सकते हैं, जिस से अपने लिए पौधों की जरूरत पूरी की जा सकती है और सितंबरअक्तूबर माह में मैदानी क्षेत्रों के किसानों को पौधे बेच कर अपनी आमदनी बढ़ा सकते हैं.

स्ट्राबैरी के पौधे जुलाईअगस्त माह में बढ़ने के साथसाथ तने के निचले हिस्से से एक विशेष तना उगाते हैं, जिन्हें स्टोलन कहा जाता है. इन में कुछ अंतराल पर कलियां फूटती हैं, जहां पत्ते और जड़ें निकलती हैं व नए पौधे बन जाते हैं. इन नए पौधों को रनर्ज कहते हैं, जिन के द्वारा स्ट्राबैरी की खेती की जाती है.

कीट व रोग

स्ट्राबैरी की खेती को विभिन्न कीट व रोग क्षति पहुंचाते हैं. प्रमुख कीटों में तेला, माइट, कटवर्म और सूत्रकृमि प्रमुख हैं. डाईमिथोएट (0.2 फीसदी) या फोरेट जैसे कीटनाशकों के प्रयोग से इन्हें नियंत्रित किया जा सकता है.

रोगों में फलों पर आने वाला भूरा फफूंद और पत्तों पर धब्बों वाले रोगों का नियंत्रण कैपटान (0.2 प्रतिशत) फफूंदनाशक रसायनों के छिड़काव से किया जा सकता है.

3 साल स्ट्राबैरी की खेती करने के बाद खेतों को कम से कम एक साल तक खाली रखना या गेहूं, जई, सरसों, मक्की और दालों की फसल उगाने से कीट, सूत्रकृमि और मृदोड़ रोगों का असर कम किया जा सकता है.

तुड़ाव और पैकिंग

स्ट्राबैरी फल अप्रैल से मई माह में पकने शुरू हो जाते हैं. पकने के समय फलों का रंग हरे से लाल रंग में बदल जाता है. फल का आधे से अधिक भाग लाल रंग का होना इस के तुड़ाव की उचित अवस्था है. फलों को तोड़ने में सावधानी रखें और रोग व क्षतिग्रस्त फलों की छंटनी जरूर करें.

फल तोड़ने के तुरंत बाद 2 घंटे शीत भंडारण करने से फलों की भंडारण अवधि बढ़ जाती है. तोड़ा हुआ फल लंबी दूरी तक आसानी से ले जाया जा सकता है. फलों की पैकिंग 200-250 ग्राम क्षमता वाले कार्डबोर्ड या सख्त प्लास्टिक के डब्बों में करना ज्यादा सही होता है.

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