बाजार में मसूर की बढ़ती मांग को देखते हुए इस की औसत पैदावार बढ़ाना नितांत आवश्यक है. प्रति इकाई मसूर की उपज बढ़ाने के लिए वैज्ञानिक तकनीक का अनुसरण करना चाहिए .
दलहनी वर्ग में मसूर सब से पुरानी और खास फसल है. मसूर का दुनियाभर में भारत की श्रेणी क्षेत्रफल के अनुसार पहला व उत्पादन के अनुसार दूसरा नंबर है और भारत में क्षेत्रफल के अनुसार मध्य प्रदेश की प्रथम श्रेणी है.
प्रचलित दालों में सर्वाधिक पौष्टिक होने के साथसाथ इस दाल को खाने से पेट के विकार समाप्त हो जाते हैं. रोगियों के लिए मसूर की दाल अत्यंत लाभप्रद मानी जाती है. यह रक्तवर्धक और रक्त में गाढ़ा लाने वाली होती है. इसी के साथ दस्त, बहुमूत्र, प्रदर, कब्ज व अनियमित पाचन क्रिया में भी लाभकारी होती है.
दाल के अलावा मसूर का उपयोग विविध नमकीन और मिठाइयां बनाने में भी किया जाता है. इस का हरा व सूखा चारा जानवरों के लिए स्वादिष्ठ व पौष्टिक होता है यानी सेहत के लिए फायदेमंद है.
मसूर के 100 ग्राम दाने में औसतन 25 ग्राम प्रोटीन, 1.3 ग्राम वसा, 60.8 ग्राम कार्बोहाइडेट, 3.2 ग्राम रेशा, 68 मिलीग्राम कैल्शियम, 7 मिलीग्राम लोहा, 0.21 मिलीग्राम राइबोफ्लेविन, 0.51 मिलीग्राम थाइमिन और 4.8 मिलीग्राम नियासिन पाया जाता है यानी मानव जीवन के लिए आवश्यक बहुत से खनिज, लवण और विटामिनों से भरपूर दाल है.
मसूर मध्य व उत्तर भारत के बारानी वर्षा आश्रित क्षेत्रों में आसानी से उगाई जा सकती है. मध्य प्रदेश में लगभग 39.56 फीसदी (5.85 लाख हेक्टेयर) में इस की बोआई होती है. इस के बाद उत्तर प्रदेश व बिहार में 34.36 फीसदी व 12.40 फीसदी है. उत्पादन के अनुसार उत्तर प्रदेश की प्रथम श्रेणी 36.65 फीसदी (3.80 लाख टन) व मध्य प्रदेश 28.82 का द्वितीय स्थान है और अधिकतम उत्पादकता बिहार राज्य (1124 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर) व सब से कम महाराष्ट्र राज्य (410 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर) है.
राष्ट्रीय औसत उपज 753 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है, जो बहुत कम है. दलहनी फसल होने के कारण इस की जड़ों में गांठें पाई जाती हैं, जिन में उपस्थित सूक्ष्म जीवाणु वायुमंडल की स्वतंत्र नाइट्रोजन का स्थिरीकरण भूमि में करते हैं, इस से भूमि की उर्वराशक्ति बढ़ती है. इसलिए फसल चक्र में इसे शामिल करने से दूसरी फसलों के पोषक तत्त्वों की कुछ भरपाई करती है.
इस के अलावा भूमि क्षरण को रोकने के लिए मसूर को आवरण फसल के रूप में भी उगाया जाता है. मसूर की खेती कम वर्षा और विपरीत परिस्थितियों वाली जलवायु में भी सफलतापूर्वक की जा सकती है.
बाजार में मसूर की बढ़ती मांग को देखते हुए इस की औसत पैदावार बढ़ाना नितांत आवश्यक है. प्रति इकाई मसूर की उपज बढ़ाने के लिए निम्न वैज्ञानिक तकनीक का अनुसरण करना चाहिए :
भूमि व जलवायु
मसूर की खेती के लिए हलकी दोमट मिट्टी अधिक उपयुक्त रहती है. उत्तरी भारत में मैदानों की दोमट मिट्टी और दक्षिण भारत की लाल लेटेराइट मिट्टी में मसूर की खेती अच्छी प्रकार से की जा रही है. अच्छी फसल के लिए मिट्टी का पीएच मान 5.8-7.5 के बीच होना चाहिए. मसूर शरद ऋतु की फसल है, जिस की खेती रबी में की जाती है.
पौधों की वृद्धि के लिए ठंडी जलवायु, परंतु फसल पकने के समय उच्च तापक्रम की आवश्यकता होती है. मसूर की फसल वृद्धि के लिए 18 से 30 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान सही रहता है, जहां 80-100 सैंटीमीटर तक वार्षिक वर्षा होती है. मसूर की खेती बिना सिंचाई के भी बारानी परिस्थिति के वर्षा नमी संरक्षित क्षेत्र में की जाती है.
खेत की तैयारी
खरीफ फसल काटने के बाद 2 से 3 आड़ीखड़ी जुताइयां देशी हल या कल्टीवेटर से की जाती हैं, जिस से मिट्टी भुरभुरी व नरम हो जाए. प्रत्येक जुताई के बाद पाटा चला कर मिट्टी बारीक और समतल कर लेते हैं. भारी मटियार मिट्टी में हलकी दोमट की अपेक्षा अधिक जुताइयां करनी पड़ती हैं.
उन्नत किस्मों का चयन
देशी किस्मों की अपेक्षा उन्नत किस्मों के प्रमाणित बीज का उपयोग करने से दूसरी फसलों की तरह मसूर से भी अधिकतम उपज 20 से 25 फीसदी अधिक ली जा सकती है.
भारत के विभिन्न क्षेत्रों के लिए मसूर की नवीनतम अनुमोदित किस्में इस प्रकार हैं :
उत्तरपश्चिम मैदानी क्षेत्र : एलएल-147, पंत एल-406, पंत एल-639, समना, एलएच 84-8, एल-4076, शिवालिक, पंत एल-4, प्रिया, डीपीएल-15, पंत लेंटिल-5, पूसा वैभव और डीपीएल-62.
उत्तरपूर्व मैदानी क्षेत्र : एडब्लूबीएल-58, पंत एल-406, डीपीएल-63, पंत ,एल-639, मलिका के-75, के एलएस-218 और एचयूएल-671.
मध्य क्षेत्र : जेएलएस-1, सीहोर 74-3, मलिका के 75, एल 4076, जवाहर लेंटिल-3, नूरी, पंत एल 639 और आईपीएल-81.
बीज की मात्रा
अधिक उपज के लिए खेत में पर्याप्त पौध संख्या होना आवश्यक है. इस के लिए प्रमाणित किस्म का स्वस्थ बीज संस्तुत मात्रा में प्रयोग करना अनिवार्य है. बीज की मात्रा में जलवायु बोआई की विविध बीज की अंकुरण क्षमता और किस्म पर निर्भर करती है.
समय पर मसूर की बोआई के लिए उन्नत किस्मों का 30 से 35 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है. देर से बोआई करने पर 50 से 60 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की जरूरत होती है. देर से बोआई करने पर 40 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से बोना चाहिए. मिश्रित फसल में आमतौर पर बीज की दर आधीआधी रखी जाती है.
बिजाई से पहले करें बीजोपचार
स्वस्थ बीजों को बोआई के पूर्व थाइरम या बाविस्टिन 3 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित करें. इस के उपरांत बीजों को मसूर के राइजोबियम कल्चर और स्फुर घोलक जीवाणु पीएसबी कल्चर प्रत्येक को 5 ग्राम कुल 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर छायादार स्थान में सुखा कर बोआई सुबह या शाम को करनी चाहिए.
समय पर बोआई
मसूर की बोआई रबी में अक्तूबर से दिसंबर तक होती है, परंतु अधिक उपज के लिए मध्य अक्तूबर से मध्य नवंबर का समय सही है. ज्यादा देर से बोआई करने पर कीट व बीमारी का प्रकोप अधिक होता है. देर से बोने पर यदि भूमि में नमी कम हो, तो हलकी सिंचाई करने के बाद बीज बोना चाहिए.
बोआई का तरीका
अच्छी उपज के लिए केरा या पोरा विधि से कतार बोनी करें. इस क्रिया से खेत समतल होने के अलावा बीज भी ढक जाते हैं.
पोरा विधि में देशी हल के पीछे पोरा चोंगा लगा कर बोनी कतार में की जाती है. इस के लिए सीड ड्रिल का भी प्रयोग किया जाने लगा है.
पोरा अथवा सीड ड्रिल से बीज उचित गहराई और समान दूरी पर गिरते हैं. अगेती फसल की बोआई पंक्तियों में 30 सैंटीमीटर की दूरी पर करनी चाहिए. पछेती फसल की बोआई के लिए पंक्तियों की दूरी 20 से 25 सैंटीमीटर रखते हैं
मसूर का बीज अपेक्षाकृत छोटा होने के कारण इस की उथली 3-4 सैंटीमीटर बोआई सही होती है. आजकल शून्य जुताई तकनीक से भी जीरो टिल सीड ड्रिल से मसूर की बोआई की जा रही है, जिस में खर्च कम आता है और समय की बचत भी होती है.
संतुलित पोषण
दलहनी फसल होने के कारण मसूर को पिछली फसल में दी गई खाद के अवशेषों पर उगाया जाता है, परंतु अच्छी उपज हासिल करने के लिए मृदा परीक्षण के बाद संतुलित मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग करना आवश्यक है.
सिंचित अवस्था में 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम सल्फर, 20 किलोग्राम पोटाश व 20 किलोग्राम सल्फर प्रति हेक्टेयर की दर से बीज बोआई करते समय डालना चाहिए.
असिंचित दशा में क्रमश: 15:30:10:10 किलोग्राम नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश व सल्फर प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई के समय कूंड़ में देना सही रहता है.
फास्फोरस को सिंगल सुपर फास्फेट के रूप में देने से आवश्यक सल्फर तत्त्व की पूर्ति भी हो जाती है. जिंक की कमी वाली भूमियों में जिंक सल्फेट 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से अन्य उर्वरकों के साथ दिया जा सकता है.
उर्वरकों को बोआई के समय कतारों में बीज तकरीबन 5 सैंटीमीटर की दूरी पर और बीज की सतह से 3 से 4 सैंटीमीटर की गहराई पर देना अच्छा रहता है.
सिंचाई
मसूर में सूखा सहन करने की क्षमता होती है. आमतौर पर सिंचाई नहीं की जाती है, फिर भी सिंचित क्षेत्रों में 1 से 2 सिंचाई करने से उपज में वृद्धि होती है. पहली सिंचाई शाखा निकलते समय यानी बोआई के 40 से 45 दिन बाद और दूसरी सिंचाई फलियों में दाना भरते समय बोआई के 70 से 75 दिन बाद करनी चाहिए.
ध्यान रखें कि पानी अधिक न होने पाए. बोआई स्प्रिंकलर से सिंचाई करें या खेत में स्ट्रिप बना कर हलकी सिंचाई करना लाभकारी रहता है. अधिक सिंचाई मसूर की फसल के लिए लाभकारी नहीं रहती है. खेत में जल निकास का उत्तम प्रबंध होना आवश्यक रहता है.
खरपतवार नियंत्रण
मसूर की फसल में खरपतवारों द्वारा अधिक हानि होती है. यदि समय पर खरपतवार नियंत्रण पर ध्यान नहीं दिया गया, तो उपज में 30 से 35 फीसदी तक की कमी आ सकती है. खरपतवार से रहित समय 45 से 60 दिन बहुत जरूरी है.
फसल पद्धति
मसूर की खेती खरीफ की फसलें लेने के बाद की जाती है. मसूर की मिश्रित खेती जैसे सरसों, मसूर जौमसूर का प्रचलन है. शरदकालीन गन्ने की 2 कतारों के बीच मसूर की 2 कतारों 1.2 बोई जाती है. इस में मसूर को 30 सैंटीमीटर की दूरी पर बोया जाता है.
कटाई व मड़ाई
मसूर की फसल 110 से 140 दिन में पक जाती है. बोने के समय के अनुसार मसूर की फसल की कटाई फरवरी व मार्च महीने की जाती है.
जब 70 से 80 प्रतिशत फलियां भूरे रंग की हो जाएं और पौधे पीले पड़ने लगे या पक जाएं तो फसल की कटाई करनी चाहिए.
कटाई दरांती द्वारा सावधानीपूर्वक करनी चाहिए, जिस से फलियां चटकने न पाएं.
काटने के बाद फसल को एक हफ्ते तक खलिहान में सुखाते हैं. इस के बाद दौय चला कर या थ्रेशर द्वारा दाने अलग कर हवा में साफ कर लिए जाते हैं.
उपज और भंडारण
मसूर की उपज बोई गई किस्म बोने का समय और मिट्टी में नमी की उपलब्धता पर निर्भर करती है. मौसम अनुकूल होने पर और नवीन उत्पादन तकनीक का अनुसरण करने पर मसूर दानों की उपज 20 से 25 क्विंटल और भूसे की उपज 30 से 35 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है. भंडारण करने से पहले दानों को अच्छी तरह सुखा लेना चाहिए. दानों में 9 से 11 फीसदी नमी रहने तक सुखाने के बाद उचित स्थान पर इन का भंडारण करना चाहिए.
मसूर की प्रमुख उन्नत किस्मों की विशेषताएं
शालीमार मसूर-2 : बड़े दाने, रतुआ की संतुलित प्रतिरोधी व कश्मीर घाटी के लिए उपयुक्त.
पंत एल-639 : दाने कम झड़ते हैं, रस्ट व उकठा रोग प्रतिरोधी व भारत के सभी मैदानी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त.
नरेंद्र मसूर-1 : रस्ट रोग प्रतिरोधी और उकठा रोग सहनशील.
पूसा-1 : 100 दानों का वजन 2.0 ग्राम व संपूर्ण मध्य प्रदेश के लिए उपयुक्त.
पंत एल-406 : रस्ट रोग प्रतिरोधी, उत्तरपूर्व व पश्चिम के मैदानी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त.
टाइप-36 : 100 दानों का वजन 1.7 ग्राम व केवल सतपुड़ा क्षेत्र को छोड़ कर संपूर्ण मध्य प्रदेश के लिए उपयुक्त.
बी-77: 100 दानों का वजन 2.5 ग्राम व सतपुड़ा क्षेत्र सिवनी मंडल व बैतूल के लिए उपयुक्त.
एल 9-12 : 100 दानों का वजन 1.7 ग्राम व ग्वालियर, मुरैना और भिंड क्षेत्र के लिए उपयुक्त.
जेएलएस-1 : 100 दानों का वजन 3.1 ग्राम, सीहोर, विदिशा, सागर, दमोह व रायसेन जिले व संपूर्ण छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त.
जेएलएस-1 : दाना बहुत बड़ा. 100 दानों का वजन 3.1 ग्राम. मध्य प्रदेश के सीहोर, विदिशा, सागर, दमोह व रायसेन जिलों और संपूर्ण छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त.
नूरी आईपीएल-81 : 100 दानों का वजन 2.7 ग्राम, छत्तीसगढ़ के मैदानी क्षेत्र तथा संपूर्ण मध्य प्रदेश के लिए उपयुक्त.
जेएल-3 : बड़े दानों वाली 2.7 ग्राम 100 बीज और उकठा निरोधी मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त.
मलिका के-75 : बीज गुलाबी रंग के बड़े आकार के 100 बीजों का भार 2.6 ग्राम व उकठा निरोधी छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त.
सीहोर 74-3 : दाना बड़ा होता है और 100 दानों का भार 2.8 ग्राम व मध्य क्षेत्रों के लिए उपयुक्त.
सपना : दाने बड़े, रस्ट रोग प्रतिरोधी व उत्तरपश्चिम क्षेत्रों के लिए उपयुक्त.
पंत एल-234 : उकठा व रस्ट रोग प्रतिरोधी.
बीआर-25 : बिहार व मध्य प्रदेश के लिए उपयुक्त.