प्याज व लहसुन कंद समूह की मुख्य रूप से 2 ऐसी फसलें हैं, जिन का सब्जियों के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण स्थान है. देश में इन की खपत और विदेशी मुद्रा अर्जन में बहुत बड़ा योगदान है.
वैसे तो दुनिया में भारत प्याज और लहसुन की खेती में अग्रणी है, पर इन की प्रति हेक्टेयर उत्पादकता दूसरे देशों से कम है. इस के लिए दूसरे उपायों के साथ जरूरी है कि इन फसलों की रोगों व कीड़ों से सुरक्षा की जाए. यहां इन फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़ों व रोग की पहचान और उन की रोकथाम के बारे में जानकारी दी गई है.
स्टेमफिलियम/झुलसा रोग
लक्षण : यह रोग पत्तियों और डंठलों पर छोटेछोटे सफेद और हलके पीले धब्बों के रूप में पाया जाता है, जो बाद में एकदूसरे से मिल कर बड़े भूरे रंग के धब्बों में बदल जाते हैं. अंत में ये धब्बे गहरे भूरे रंग या काले रंग के हो जाते हैं. धब्बे की जगह पर बीज का डंठल टूट कर गिर जाता है. पत्तियां धीरेधीरे सिर की तरफ से सूखना शुरू करती हैं और आधार की तरफ बढ़ कर पूरी सूख जाती हैं. अनुकूल मौसम मिलते ही यह रोग बड़ी तेजी से फैलता है और कभीकभी फसल को भारी नुकसान पहुंचाता है.
रोकथाम
* साफसुथरी खेती फसल को निरोग रखती है.
* गरमी के महीने में गहरी जुताई और सौर उपचार काफी लाभदायक रहता है.
* दीर्घकालीन असंबंधित फसलों का फसल चक्र अपनाना चाहिए.
* रोग के लक्षण दिखाई देते ही इंडोफिल एम-45 400 ग्राम या कौपर औक्सीक्लोराइड-50, 500 ग्राम या प्रोपीकोनाजोल 20 फीसदी ईसी 200 मिलीलिटर प्रति एकड़ के हिसाब से 200 लिटर पानी में घोल बना कर और किसी चिपकने वाले पदार्थ के साथ मिला कर 10-15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करें.
बैंगनी धब्बा रोग
लक्षण : यह रोग पत्तियों, तनों, बीज स्तंभों और शल्क कंदों पर लगता है.
रोगग्रस्त भागों पर छोटेछोटे सफेद धंसे हुए धब्बे बनते हैं, जिन का मध्य भाग बैंगनी रंग का होता है. ये धब्बे शीघ्र ही बढ़ते हैं. इन धब्बों की सीमाएं लाल या बैगनी रंग की होती हैं, जिन के चारों ओर ऊपर और नीचे कुछ दूर तक एक पीला क्षेत्र पाया जाता है.
रोग की उग्र अवस्था में शल्क कंदों का विगलन कंद की गरदन से शुरू हो जाता है. रोगग्रस्त पौधों में बीज अकसर नहीं बनते और यदि बीज बन भी गए तो वे सिकुड़े हुए होते हैं.
रोकथाम
* स्टेमफिलियम/झुलसा रोग की ही तरह करें.
आधारीय विगलन
लक्षण : इस रोग के प्रकोप से पौधों की बढ़वार रुक जाती है और पत्तियां पीली पड़ जाती हैं. बाद में पत्तियां ऊपर से नीचे की तरफ सूखना शुरू होती हैं. कभीकभी पौधे की शुरू की अवस्था में इस रोग के कारण जड़ें गुलाबी या पीले रंग की हो जाती हैं और आकार में सिकुड़ कर आखिर मर जाती हैं. रोग की उग्र अवस्था में शल्क कंद छोटे रहते हैं और इस रोग का प्रभाव कंदों के ऊपर गोदामों में सड़न के रूप में देखा जाता है.
रोकथाम
* आखिरी जुताई के समय रोगग्रस्त खेतों में फोरेट दानेदार कीटनाशी 4.0 किलोग्राम प्रति एकड़ मिट्टी में अच्छी तरह मिलाएं.
* दीर्घकालीन असंबंधित फसलों से 2-3 साल का फसल चक्र अपनाएं.
* कंद को खुले व हवादार गोदामों में रखना चाहिए.
विषाणु रोग
लक्षण : इस रोग के कारण पत्तियों पर हलके पीले रंग की धारियां बनती हैं और पत्तियां मोटी व अंदर का भाग लहरदार हो जाता है. ऐसे हालात में धारियां आपस में मिल कर पूरी पत्ती को पीला कर देती हैं और बढ़वार रुक जाती है.
रोकथाम
चूंकि यह रोग कीड़ों से फैलता है, इसलिए फसल वर्धनकाल में जब भी इस रोग के लक्षण दिखाई पड़ें, उसी समय मैटासिस्टाक्स या रोगोर नामक किसी एक दवा का एक मिलीलिटर प्रति लिटर पानी में मिला कर छिड़काव करें और जरूरत पड़ने पर छिड़काव दोहराएं.
मुख्य कीड़े
इन फसलों को सर्वाधिक नुकसान पहुंचाने वाले 2 मुख्य कीड़े हैं थ्रिप्स (चुरडा) व लहसुन मक्खी. इन कीड़ों का प्रकोप फरवरी माह तक होता है.
थ्रिप्स : इस कीड़े के शिशु व प्रौढ़ दोनों ही पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं. प्रौढ़ काले रंग के बहुत ही छोटे, पतले, लंबे, जबकि बच्चे हलके भूरे पीले रंग के कीड़े होते हैं. जहां से पत्तियां निकलती हैं, उसी जगह ये कीड़े रहते हैं और नईनई कोमल पत्तियों का रस चूसते हैं, जिन के प्रकोप से पत्ते के सिर ऊपर से सफेद व भूरे हो कर सूखने व मुड़ने लगते हैं. इस वजह से पौधों की बढ़वार रुक जाती है. अधिक प्रकोप होने पर पत्ते चोटी से चांदीनुमा हो कर सूख जाते हैं. बाद की अवस्था में इस कीड़े का प्रकोप होने पर शल्क कंद छोटे रहते हैं और आकृति में भी टूटेफूटे होते हैं. बीज की फसल पर इस कीड़े का बहुत ज्यादा प्रभाव पड़ता है.
रोकथाम
* इस कीड़े की रोकथाम के लिए निम्नलिखित (क) व (ख) भाग में से बारीबारी से किसी एक कीटनाशक को 200-250 लिटर पानी में घोल बना कर प्रति एकड़ छिड़काव करें.
(क) 75 मिलीलिटर फैनवैलरेट 20 ईसी या 175 मिलीलिटर डैल्टामेथ्रनि 2.8 ईसी या फिर 60 मिलीलिटर साइपरमेथ्रनि 25 ईसी या 150 मिलीलिटर साइपरमेथ्रनि 10 ईसी.
(ख) 300 मिलीलिटर मेलाथियान 50 ईसी.
* प्याज व लहसुन में चुरडा कीट की रोकथाम के लिए लहसुन का तेल 150 मिलीलिटर और इतनी ही मात्रा में टीपोल को 150 लिटर पानी में मिला कर प्रति एकड़ 3 से 4 छिड़काव करें.
सावधानी
* एक ही कीटनाशी का बारबार प्रयोग न करें.
* छिड़काव की जरूरत मार्चअप्रैल महीने में पड़ती है, क्योंकि कीड़ा फरवरी से मई महीने तक नुकसान करता है.
* कोई चिपकने वाला पदार्थ घोल में जरूर मिलाएं.
* छिड़काव के कम से कम 15 दिन बाद ही प्याज प्रयोग में लाएं.
प्याज व लहसुन मक्खी
कभीकभी इस कीड़े का प्रकोप भी इन फसलों पर देखने में आता है. लहसुन की मक्खी घरों में पाई जाने वाली मक्खी से छोटी होती है. इस के शिशु (मैगट) व प्रौढ़ दोनों ही नुकसान पहुंचाते हैं.
मादा सफेद मटमैले रंग की होती है, जो अकसर बीज स्तंभों के पास मिट्टी में अंडे देती है. अंडों से नवजात मैगट स्तंभों के आधार पर खाते हुए फसल के भूमिगत तने वाले हिस्सों में आक्रमण करते हैं और बाद में कंदों को खाना शुरू कर देते हैं, जिस से पौधे सूख जाते हैं. बाद में इन्हीं कंदों पर आधारीय विगलन रोग का आक्रमण होता है, जिस से बिल्व सड़ने लगते हैं.
रोकथाम
* आखिरी जुताई के समय खेत में फोरेट कीटनाशी 4.0 किलोग्राम प्रति एकड़ मिट्टी में अच्छी प्रकार मिलाएं और बाद में थ्रिप्स में बताई गई कीटनाशियों का प्रयोग करें.