कहा जाता है कि, मुगल काल में बादशाह जहांगीर ने लोगों को त्वरित न्याय देने के लिए किले के दरवाजे पर एक बड़ा घंटा लटकवाया था. इसे कोई भी फरियादी दिनरात कभी भी बजा कर सीधे मुल्क के बादशाह से अपनी शिकायत दर्ज कर न्याय प्राप्त कर सकता था.

इसी जहांगीरी घंटे की तर्ज पर प्रधानमंत्री ने खूब तामझाम व प्रचारप्रसार के साथ पीएमओ पोर्टल शुरू किया. सोशल मीडिया के इस प्लेटफार्म पर लोग अपनी जायज शिकायत सीधे प्रधानमंत्री तक पहुंचा सकते थे और उन शिकायतों पर त्वरित कार्यवाही व निराकरण कर उन्हें राहत पहुंचाने का दावा किया गया था.

कहा गया था कि इस पोर्टल पर देश का हर नागरिक अपनी सीधी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए अपने उपयोगी सुझाव, योजनाएं सीधे अपने प्रधानमंत्री को भेज सकता है.

प्रधानमंत्री के इस पीएमओ पोर्टल का वास्तविक हश्र क्या हुआ, यह समझने के लिए हमें पहले इन की कार्यप्रणाली समझनी होगी.

मोदी के पिछले लगभग 10 सालों के कार्यकाल की अगर एक वाक्य में व्याख्या करनी हो, तो इसे वादों, नारों, जुमलों और भव्य आयोजनों की सरकार कहा जा सकता है.

मोदी ने देश को भले ही कुछ और दिया हो अथवा न दिया हो, लेकिन निश्चित रूप से इन्होंने कई लोकप्रिय नारे दिए हैं. इन्हीं नारों में इन का एक प्रमुख नारा था: ‘सब का साथ, सब का विश्वास.’

लेकिन यह सरकार और मोदी साथ और विश्वास तो सब का चाहते हैं, परंतु किसी को भी, उस के योगदान के लिए श्रेय देना तो जैसे इन्होंने सीखा ही नहीं, बल्कि इस बात का ध्यान रखा जाता है कि हर काम और उपलब्धियों का श्रेय मोदी और केवल मोदी को ही जाना चाहिए. किसी भी उपलब्धि का श्रेय वो अपनी पार्टी यहां तक कि संबंधित विभाग के मंत्रियों के साथ भी बांटने को तैयार नहीं हैं.

अब आते हैं जहांगीरी घंटे यानी पीएमओ पोर्टल पर. इस पोर्टल पर औनलाइन शिकायत दर्ज होने के बाद शिकायत के बारे में पोर्टल पर और कभीकभी फोन पर आप की शिकायत पर की गई कार्यवाही की जानकारी दी जाती है और शिकायतकर्ता को आशा बंधती है कि शायद उस की शिकायत का अब निराकरण होगा.

लेकिन शिकायत के निराकरण के नाम पर संबंधित विभाग या अधिकारियों से उन का पक्ष पूछ कर, अंततः आप को बता दिया जाता है कि आप की शिकायत निराधार है और आप की शिकायत की फाइल या खिड़की बंद कर दी जाती है.

समझें इन मामलों से

मामला नंबर 1:

अखिल भारतीय किसान महासंघ आईआई के राष्ट्रीय संयोजक किसान नेता डा. राजाराम त्रिपाठी ने उत्तर प्रदेश के लगभग डेढ़ लाख शिक्षाकर्मी और अनुदेशकों को लगभग 20 साल की सेवा के बाद भी नियमित न किए जाने और आज भी उन्हें एक कुशल मजदूर की मजदूरी भी न देते हुए, छुट्टियों, मैडिकल सुविधाएं, पेंशन, बीमा आदि सभी जरूरी सुविधाओं से वंचित रखते हुए उत्तर प्रदेश सरकार के द्वारा किए गए ऐतिहासिक शोषण, अन्याय, पक्षपात की पीएमओ को की गई शिकायत पर कोई कार्यवाही नहीं हुई.

शिकायतकर्ता द्वारा अपील किए जाने के बावजूद बिना शिकायत की जांच किए और उत्तर प्रदेश सरकार से गोलमोल जवाब ले कर शिकायत को बंद कर दिया गया.

मामला नंबर 2:

वरिष्ठ पत्रकार और ऐक्टिविस्ट यशवंत सिंह (भड़ास 4मीडिया) का निजी मोबाइल पुलिस के उच्चाधिकारियों द्वारा छीनने, एवं  दुर्वव्हायवहार  की शिकायत पर भी पीएमओ द्वारा आज तक कोई प्रभावी कार्यवाही नहीं हुई.

वे सोशल मीडिया पर बारबार कह रहे हैं कि उन के खिलाफ की गई शिकायतें पूरी तरह से फर्जी हैं, और वह शिकायत करने वालों को जानतेपहचानते तक नहीं, बावजूद इस के बिना पर्याप्त जांच के ही उन का निजी मोबाइल जब्त कर लिया जाता है और मांगने के बावजूद न तो शिकायत की प्रति दी जाती है और न ही मोबाइल की पावती दी जाती है.

देश के सर्वोच्च जिम्मेदार और शक्तिशाली प्रधानमंत्री के निजी कार्यालय को की गई शिकायत पर भी किसी तरह की जांचपड़ताल किए बिना ही, इस कांड से संबंधित दोषी पुलिस उच्च अधिकारियों से प्राप्त जानकारी के आधार पर शिकायत बंद कर दी जाती है. जाहिर है कि कोई भी गलती करने वाला अधिकारी अपनी गलती भला क्यों कर स्वीकार कर के सजा भुगतना चाहेगा?

बात प्रधानमंत्री द्वारा अपने पोर्टल पर मांगे जाने वाले सुझाव

यह किसी भी देशवासी के लिए बड़े गौरव की बात होती है कि देश की बेहतरी के लिए उस की सलाह, सुझाव, योजनाएं सीधे उन के प्रधानमंत्री द्वारा सुनी जाती है. लेकिन साथ ही वो देशवासी यह भी चाहता है कि प्रधानमंत्री अगर उस की सलाह, सुझाव, योजनाओं पर यदि कोई पहल करते हैं, तो कम से कम उस की सहभागिता का श्रेय भी उसे दें, ताकि वो और उस के जैसे अन्य देशवासी भी उत्साहित हो कर राष्ट्रनिर्माण के काम में बढ़चढ़ कर आगे आएं. आम नागरिक की सक्रिय सहभागिता सफल परिपक्व लोकतंत्र का अहम लक्षण है. परंतु सुझावसलाह के माने में भी पीएमओ पोर्टल वन वे ट्रैफिक बन कर रह गया.

जब वैश्विक महामारी कोविड 19 की वजह से दुनिया के साथसाथ भारत भी इस की चपेट में आया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 मार्च, 2020 को राष्ट्रव्यापी लौकडाउन की घोषणा की, तो पूरे राष्ट्र ने उन का समर्थन किया. सब लोग घरों में कैद हो गए.

यह अवाम के अभूतपूर्व अनुसाशन का प्रदर्शन था. लेकिन घरों में रहने के बावजूद लोगों को खाद्य पदार्थों की आवश्यकता तो पड़ती ही है. इसलिए कुछ आपात सेवाएं जारी रखी गई. पर उन में से एक काम ऐसा था कि जिसे भी जारी रखना बहुत जरूरी था. और वह काम था खेतीकिसानी का. जब खेतों से फलसब्जियों का उत्पादन नियमित होता है, तभी सप्लाई चेन द्वारा लोगों के घरों तक आपूर्ति हो पाती है.

इसी बात को ध्यान में रख कर 25 मार्च को मैं ने प्रधानमंत्री कार्यालय को टैग करते हुए सुझाव दिया कि खेती के काम को तत्काल लौकडाउन से मुक्त किया जाए और कैसे केवल फलसब्जी और तत्कालीन खेतों में खड़ी रबी की फसलों को भी सही समय पर कटाई कर के खलिहान और फिर खलिहान से गोदाम तक या किसानों के घरों तक और फिर जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाने के काम को लौकडाउन से मुक्त रखा जाए.

इस सलाह को पंजीकृत कर प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा तुरंत अमल में लाया गया और 27 मार्च, 2020 को गृह मंत्रालय के द्वारा इसी आशय के संशोधित आदेश जारी कर खेती के ज्यादातर कामों को लौकडाउन से मुक्त कर दिया गया.

हालांकि अलगअलग राज्यों ने केंद्र सरकार के उन आदेशों की अपनी समझ और सुविधा के अनुसार अलगअलग व्याख्या करते हुए उन का क्रियान्वयन समुचित ढंग से नहीं किया, जिस से किसानों को भारी नुकसान और तमाम परेशानियां हुईं, स्थानीय प्रशासन ने भी कोरोना को रोकने और खेती के काम को रोकने का अंतर समझने की कोशिश नहीं की और सुदूरवर्ती इलाकों में पुलिस अपना पराक्रम निरीह किसानों पर दिखाती रही. आज भले कोरोना नहीं है, पर 3 साल बाद आज भी देश के किसान उस की मार से उबर नहीं पाए हैं.

केंद्र सरकार द्वारा कोरोना में गरीबों और असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए और अन्य तबकों के लिए जब विभिन्न प्रकार के राहत की घोषणाएं की गईं, तब देखा गया कि इन घोषणाओं में कृषि और किसानें के लिए कोई बहुत सार्थक पैकेज नहीं था, जिस से लौकडाउन से खेती को हुए नुकसान की भरपाई करते हुए ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाया जा सके.

इसे ध्यान में रखते हुए, 25 अप्रैल, 2020 को डा. राजाराम त्रिपाठी की अगुआई में 52 किसान संगठनों से सलाहमशवरा कर मैराथन बैठकों के बाद काफी मेहनत कर के 25 सूत्री मार्गदर्शी सुझाव व मांगपत्र प्रधानमंत्री को सौंपा गया. इन अधिकांश सुझावों का स्पष्टदर्शी प्रभाव सरकार के तत्कालीन विशेष पैकेज में दिखाई दिया, पर सरकार ने इन सुझावों का श्रेय देने की बात तो दूर, सुझावों के लिए धन्यवाद देना तक जरूरी नहीं समझा.

कोरोना से जुड़ी एक और बानगी

भारत विश्व के सब से ज्यादा वन क्षेत्र वाले 10 देशों में से एक है. भारत के कुल क्षेत्रफल के लगभग 21.23 फीसदी क्षेत्र पर वन स्थित हैं. देश के कई राज्यों में जैसे कि छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, ओड़िसा, झारखंड, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र और पूर्वोत्तर राज्यों में जहां आज भी पर्याप्त वन क्षेत्र है, जैसे कि छत्तीसगढ़ में तो तकरीबन 44 फीसदी हिस्सा वन क्षेत्र है और भारत के समूचे 1 क्षेत्रों का 7.7 फीसदी वन छत्तीसगढ़ में ही है. इन वन क्षेत्रों में बहुसंख्यक जनजातीय समुदाय रहता है और इन क्षेत्रों की तकरीबन 70 फीसदी आबादी जंगलों से वनोपज एकत्र कर होने वाली आय से ही अपना जीवनयापन करती है.

छत्तीसगढ़ में तो 425 ऐसे वन राजस्व गांव भी हैं, जिन की आजीविका का साधन केवल जंगल ही है.

छत्तीसगढ़ में इस काम को सुचारु संचालन के लिए 901 प्राथमिक लघु वनोपज सहकारी समितियां काम कर रही हैं, जो पूरी तरह से वनोपज संग्रहण और विपणन पर ही निर्भर है.

भारत में कमोबेश इसी तर्ज पर तकरीबन 250 से अधिक प्रकार की वनोपज संग्रहण किया जाता है, इन सारे वनोपजों में से तकरीबन 70 फीसदी प्रमुख वनोपज मार्चअप्रैल में एकत्र की जाती हैं और यह वनोपज इन दिनों अगर एकत्र नहीं की गई तो या तो यह इन दिनों वनों में प्रायः हर साल लगने वाली आग से जल कर नष्ट हो जाती है, या फिर मईजून की गरमी में यह सूख कर अनुपयोगी जाती है, और इन सब से भी अगर बची भी तो आगे आने वाली मानसून पूर्व की बारिश की बौछारों में तो पूरी तरह से बरबाद हो ही जाती है.

अतः डा. राजाराम त्रिपाठी अखिल भारतीय किसान महासंघ (आइफा) द्वारा सरकार को समर्थन तथ्यों, आंकड़ों के साथ सुझाव देते हुए 4 अप्रैल, 2020 को प्रधानमंत्री कार्यालय विस्तार से वस्तुस्थिति की जानकारी देते हुए मांग की गई थी कि देश में तत्काल लौकडाउन के दरमियान बचाव के साधनों और सुरक्षा के साथ वनोपजों के संग्रहण और उन की खरीदी सुनिश्चित की जाए और संग्राहक परिवारों को इन वनोपजों का उचित मूल्य’ दिलाया जाए.

उक्त पत्र को प्रधानमंत्री कार्यालय के द्वारा आदिवासी मामलों के मंत्रालय को आगे कार्यवाही के लिए तत्काल 4 अप्रैल को ही भेज दिया गया. तत्पश्चात संबंधित राज्यों में 5-6 अप्रैल से वनोपज संग्रहण का काम सुचारु रूप से प्रारंभ हुआ, और 2 मई को केंद्र सरकार के आदिवासी मामलों के मंत्रालय द्वारा 49 वनोपज के जिसे माइनर फारेस्ट प्रोड्यूस (एमएफपी) कहते हैं, उस के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की घोषणा भी की गई, जो कि भले ही देर से उठाया गया, पर निश्चित रूप से अच्छा कदम था.

इन्हीं महत्वपूर्ण निर्णयों के कारण हम कोरोना से लड़ाई लड़ते हुए भी अपनी अर्थव्यवस्था को काफी हद तक बचा पाए, लेकिन उपरोक्त सभी मामलों में सरकार ने जिन व्यक्ति या संगठनों के सुझाव को आधार पर उपरोक्त निर्णय लिए, उन का जिक्र तक नहीं किया है. यहां तक कि धन्यवाद ज्ञापन का एक मुफ्त ईमेल तक भेजने में सरकार कंजूसी बरतती है.

पिछले लोकसभा चुनाव के पूर्व, भाजपा के चुनावी घोषणापत्र बनाते समय जिन कृषि विशेषज्ञों को आमंत्रित कर उन से सलाह ली गई थी, उन में डा. राजाराम त्रिपाठी भी एक थे.

उल्लेखनीय है कि, वर्तमान में किसानों की मदद के लिए संचालित कृषक पेंशन निधि और किसान सम्मान निधि जैसी केंद्र सरकार की स्टार योजनाओं की आवश्यकता और उस के संभावित स्वरूप के बारे में अपनी परिकल्पना को स्पष्ट करते हुए इन्हें भाजपा के चुनावी घोषणापत्र में शामिल करने के बारे में डा. राजाराम त्रिपाठी ने ही सलाह दी थी, इन सुझावों को भाजपा की तत्कालीन समूची चुनाव घोषणापत्र समिति ने सराहा भी था और इन्हें अपने घोषणापत्र में शामिल भी किया था और इस चुनाव में किसानों के वोटों से अभूतपूर्व सफलता भी प्राप्त की.

इन योजनाओं के दम पर पिछला चुनाव जीतने के बाद भी योजनाओं का सुझाव देने वाले का नाम भी कभी इन के द्वारा नहीं लिया गया. यह दीगर बात है कि इन योजनाओं के निर्माण, क्रियान्वयन और संचालन में इतनी खामियां रह गई हैं कि इन महात्वाकांक्षी योजनाओं का मूल उद्देश्य कहीं खो गया.

आखिर में एक सवाल?

सोचने की बात यह है कि एक ओर तो सरकार यह कहते नहीं थकती है कि वह हर नागरिक की सहभागिता शासन में चाहती है, ऐसे में कोई विशेषज्ञ अगर मेहनत कर के कोई सार्थक सुझाव सरकार को भेजता है, तो उन्हें कोई श्रेय देना तो दूर उस की अभिस्वीकृति तक नहीं की जाती है. ऐसे में सब से पहला लाख टके का सवाल यही है कि ‘सब का साथ, सब का विकास’ जैसे खोखले नारों के भरोसे क्या यह भाजपा सरकार साल 2024 चुनाव की वैतरणी पार कर पाएगी?

-किसान नेता डा. राजाराम त्रिपाठी, अखिल भारतीय किसान महासंघ (आईफा) के राष्ट्रीय संयोजक और एमएसपी गारंटी कानून किसान मोरचा के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं.

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