वैज्ञानिक तरीके से केले की खेती कैसे करें और केले से अच्छी उपज लेने के लिए केले की फसल में लगने वाले कीट व रोगों के बारे में जानकारी व उन की रोकथाम कैसे की जाए इस विषय पर जाने कुछ खास बातें :
प्रकंद छेदक कीट
इस प्रकंद छेदक कीट का वैज्ञानिक नाम कौस्मोपोलाइट्स सौडिडस है. इस कीट का प्रकोप पौध लगाने के 1 या 2 महीने बाद शुरू हो जाता है.
शुरू में इस कीट के ग्रब तने में छेद कर तने को खाते हैं, जो बाद में राइजोम की तरफ चले जाते हैं. इस के प्रकोप से पौधों की बढ़वार मंद पड़ जाती है. पौधे बीमार से लगने लगते हैं और उन की पत्तियों पर पीली धारियां उभर आती हैं. इस कीट के अधिक प्रकोप से पत्ती और धार का आकार छोटा हो जाता है.
रोकथाम
* स्वस्थ सकर का ही चुनाव करें.
* एक ही खेत में लगातार केले की फसल न लें.
* सकर को रोपने से पहले 0.1 फीसदी क्विनालफास के घोल में डुबोएं.
* रोपण के समय क्लोरोपायरीफास चूर्ण प्रति गड्ढे की दर से मिट्टी में मिलाएं.
* प्रभावित और सूखी पत्तियों को काट कर जला दें.
* कार्बोफ्यूरान 20 ग्राम प्रति पौधा के उपयोग से इस कीट का प्रभावी नियंत्रण होता है.
तना बेधक कीट
इस कीट का वैज्ञानिक नाम ओडोपोरस लांगिकोल्लिस है. इस कीट के प्रकोप से पत्तियां धीरेधीरे पीली पड़नी शुरू हो जाती हैं, बाद में तने पर पिन के सिर के आकार के छेद दिखाई पड़ने लगते हैं. उस के बाद तने से गोंद जैसा लिसलिसा पदार्थ निकलना शुरू हो जाता है. ग्रब शुरू में पर्णवृंत को खाते हैं, बाद में तने में लंबी सुरंग बना देते हैं, जो बाद में सड़ कर बदबू पैदा करती है.
इस कीट के अधिक प्रकोप से पौधों पर फूल नहीं आते हैं अथवा फूलों की तादाद बहुत कम हो जाती है. धार का आकार बहुत छोटा रह जाता है और फलों का विकास अच्छी प्रकार से नहीं हो पाता है.
रोकथाम
* प्रभावित पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर दें.
* प्रकंद छेदक कीट के नियंत्रण में जो सुझाव दिए गए हैं, उन्हें अपनाएं.
माहू कीट
इस कीट का वैज्ञानिक नाम पेंटालोनिया नाईग्रोनर्वोसा है. यह कीट पौधों से रस चूस कर पौधों की बढ़वार को प्रभावित करता है और शीर्ष गुच्छ रोग पैदा करने वाले विषाणु को फैलाता है.
रोकथाम
(1) प्रभावित पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर दें.
(2) प्रभावित क्षेत्रों में पेड़ी फसल न लें.
(3) डाईमिथोएट 2 मिलीलिटर प्रति लिटर की दर से पानी में घोल कर छिड़काव करें.
सिगाटोका पत्ती धब्बा रोग
यह रोग स्यूडोसर्कोस्पोरा म्यूसी नामक फफूंद से होता है. इस रोग की शुरुआत में पत्ती की बाहरी सतह पर पीले धब्बे बनना शुरू हो कर बाद में लंबी काली धारियों के रूप में बदल जाते हैं और कालांतर में बड़ेबड़े धब्बों का रूप ले लेते हैं.
इस प्रकार के धब्बे पत्तियों के किनारे और आगे के हिस्से में अधिक पाए जाते हैं. संवेदनशील किस्मों में 2-3 पत्तियों को छोड़ कर बाकी सभी पत्तियां इस रोग से ग्रसित हो कर सूख जाती हैं. साथ ही, फलों का आकार भी छोटा रह जाता है. समय से पहले ही फल पक जाते हैं और उन की क्वालिटी कम हो जाती है. वातावरण में आर्द्रता अधिक होने और औसत तापमान कम होने के चलते इस रोग का प्रकोप अधिक होता है.
नियंत्रण
* खेत को खरपतवारों से मुक्त रखें.
* खेत में जल निकास का समुचित प्रबंध रखें.
* रोग व कीटों से प्रभावित सूखी पत्तियों को काट कर जला देना चाहिए.
* कवकनाशी जैसे कार्बंडाजिम 1 ग्राम प्रति लिटर अथवा कवच 2 ग्राम प्रति लिटर या सन 0.7 मिलीलिटर प्रति लिटर की दर से छिड़काव करें.
पर्ण धब्बा रोग
यह रोग ग्लोइयोस्पोरियम म्यूसी और टोट्राईकम ग्लोइयोस्पोरियोडियम नामक विषाणु से होता है. इस रोग में पत्तियों के सिरे पर हलके भूरे अथवा काले धब्बे दिखाई पड़ते हैं. बाद में पत्तियां सूख जाती हैं और उत्पादन पर बुरा असर पड़ता है.
नियंत्रण
कार्बंडाजिम 1 ग्राम या कवच 2 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें.
उकठा रोग
यह रोग फ्यूजेरियम औक्सीस्पोरम किस्म की यूबेंस नामक फफूंद से होता है. इस रोग के लक्षण पौध लगाने के 5-8 माह के बीच दिखाई देने लगते हैं. पुरानी पत्तियों में पीलापन पत्तियों के किनारे से शुरू हो कर मध्य सिरे की ओर बढ़ता है. बाद में पत्तियों का रंग पीला पड़ जाता है. प्रभावित पत्तियां तने के चारों ओर गोलाई में लटक जाती हैं. तने का निचला हिस्सा लंबाई में फट जाता है. प्रभावित पौधे के तने और कंद को लंबवत काटने पर वैस्क्युलर ऊतक लाल से ले कर भूरे रंग के दिखाई देने के 1 से 2 माह के भीतर पौधा मर जाता है.
नियंत्रण
* रोपण से पूर्व कंद को कार्बंडाजिम 1 ग्राम प्रति लिटर पानी के घोल में डुबो कर रोपें.
* रोपण के 5 माह बाद से कार्बंडाजिम 1 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल कर 2 माह में एक बार टोआ दें.
टिप ओवर रोग
यह रोग इर्विनया केरोटोवोरा नामक जीवाणु की वजह से होता है. इस रोग में राइजोम में सड़न पैदा होती है, प्रभावित तंतु मुलायम हो जाता है और पत्तियां पीली पड़ जाती हैं.
नियंत्रण
स्टै्रप्टोसाइक्लिन 759 पीपीएम कौपर औक्सीक्लोराइड 2.5 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें.
सिगार गलन रोग
यह रोग वर्टीसिलियम थियोब्रामी नामक फफूंद से होता है. यह रोग बारिश में अधिक प्रभावी रहता है. बिना पके फलों के अग्र भाग से काली भूरी सड़न शुरू हो कर धीरेधीरे 2.0-2.5 सैंटीमीटर आगे तक फलों को प्रभावित करती है. प्रभावित भाग जली हुई सिगार जैसा दिखता है. इस के चलते यह सिगार गलन रोग के नाम से जाना जाता है.
नियंत्रण
इस रोग की रोकथाम के लिए फल बनने की अवस्था पर थायोफेनेटमिथाइल या बिटरटेनाल 1 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.
शीर्ष विषाणु रोग
यह रोग विषाणु द्वारा पनपता है. इस रोग में पत्तियों की भीतरी मध्य सिरा की द्वितीयक नसों के साथ गहरी धारियां शुरुआती लक्षण के रूप में दिखाई देती हैं. ये असामान्य लक्षण गहरे रंग की रेखाओं में 2.5 सैंटीमीटर या अधिक अनियमित रूप से पत्तियों के किनारों के साथ होते हैं.
पत्तियों का आकार बहुत ही छोटा हो जाता है, जो असामान्य रूप से ऊपर की ओर गुच्छों के रूप में निकलती हैं. इस रोग से प्रभावित पत्तियों से तैयार पौधों की बढ़वार बहुत ही कम होती है, जिन में फूल नहीं आते हैं. इस विषाणु का फैलाव माहू कीट द्वारा होता है.
रोकथाम
* रोगग्रस्त पौधों को उखाड़ दें.
* रोग फैलाने वाले कीट माहू की रोकथाम करें.
* माहू के नियंत्रण के लिए डाईमिथोएट 2 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.
केले का धारी
विषाणु रोग
यह रोग विषाणु द्वारा फैलता है. इस रोग में पत्तियों पर छोटेछोटे पीले धब्बे बनते हैं, बाद में सुनहरी पीली धारियों का विकास और पीली धारियों वाली पत्तियां सड़न पैदा करने वाली हो जाती हैं. इस रोग के चलते उत्पादन में 30-40 फीसदी तक का नुकसान हो सकता है. यह रोग मिली बग द्वारा फैलता है.
रोकथाम
* रोगरहित सकर का रोपण करें.
* मिली बग कीट का नियंत्रण करें.
नेमाटोड
नेमाटोड द्वारा केला उत्पादन में लगभग 20 फीसदी का नुकसान होता है. केला आमतौर पर बुरोइंग नेमाटोड रेडोफोलस सिमिलिस, लीजन नेमाटोड, प्रैटिलेंकस काफफिर्ड, स्पाइरल नेमाटोड, हैलाकोटीलेप्चस मल्टीसिनकट्स और सिस्ट नेमाटोड, हेटेरोठोरा स्पी के हमले से होता है.
लक्षण
सूत्रकृमि के संक्रमण से पौधों की बढ़वार मंद पड़ जाती है, तना पतला रह जाता है, पत्तियों पर धब्बे बन जाते हैं. धार का आकार बहुत छोटा रह जाता है. सूत्रकृमि के लक्षण जड़ों और कंदों पर अधिक साफ होते हैं. सूत्रकृमि से प्रभावित पौधे खेत में नमी होने पर थोड़ी तेज हवा से ही गिर जाते हैं.
रोकथाम
* सूत्रकृमि प्रभावित क्षेत्रों से रोपण सामग्री का चयन न करें.
* गन्ना या धान फसल चक्रअपनाएं.
* सनई, धनिया व गेंदा को अंत:फसल के रूप में उगाएं.
* नीम केक 400 ग्राम प्रति पौधा
रोपण के समय और रोपण के 4 माह बाद प्रयोग करें.
* रोपण के समय और उस के बाद
3 माह के अंतराल से कार्बोफ्यूरान 20 ग्राम प्रति पौधे की दर से इस्तेमाल करें.
तुड़ाई
फलों की तुड़ाई किस्म, बाजार और परिवहन के साधन वगैरह पर निर्भर करती है. केले की बौनी किस्में 12 से 15 माह बाद और ऊंची किस्में 15 से 18 माह बाद तोड़ने योग्य हो जाती हैं. सामान्यत: फल की धारियों के पूरी तरह गोल होने पर गुच्छों की तुड़ाई तेज धारदार हंसिए से करनी चाहिए. केले को दूर के बाजारों में भेजने के लिए जब उन का तीनचौथाई भाग पक जाए, तो उन्हें काट लेना चाहिए.
पकाना
केला एक क्लाईमैक्टेरिक फल है, जिसे सही अवस्था में पौधे से तोड़ने के बाद पकाया जाता है. केले को पकाने के लिए इथेलिन गैस का उपयोग किया जाता है. इथेलिन गैस फलों को पकाने का एक हार्मोन है, जो फलों के अंदर सांस के छोड़ने की क्रिया को बढ़ा कर उन की परिपक्वता में तेजी लाता है. केले को एक बंद कमरे में इकट्ठा कर 15-18 डिगरी तापमान पर इथेलिन (1000 पीपीएम) से 24 घंटे तक फलों को उपचार कर के पकाया जाता है.
पैकिंग
केले को आकार के अनुसार श्रेणीकरण कर उन्हें अलगअलग गत्ते के 5 फीसदी छेदों वाले छोटेछोटे (12-13 किग्रा) डब्बों में भर कर बाजार भेजना चाहिए.