दुग्ध ज्वर गोपशुओं में होने वाला एक उपापचयी रोग है, जो मादा पशुओं में प्रसव के 3 दिन के अंदर कभी भी हो सकता है. इस रोग में खून में कैल्शियम की मात्रा कम हो जाती है. शरीर का तापमान सामान्य से कम हो जाता है और मांसपेशियां कमजोर हो जाती हैं, जिस के चलते पशु लेट जाता है और बाद में उस की मौत हो जाती है.
यह बीमारी ज्यादा दूध देने वाली गायों में होती है. विशेष रूप से उन में, जो अपने दुग्ध उत्पादन की उच्चतम सीमा पर पहुंच चुकी होती हैं. सामान्यतया तीसरे, चौथे और 5वें ब्यांत में इस बीमारी के होने की संभावना ज्यादा रहती है. इस बीमारी पर मौसम का भी असर देखा गया है और यह जाड़े के दिनों में ज्यादा होती है.
वजह
शरीर द्रव्य में कैल्शियम आयन का कम होना इस बीमारी का मुख्य कारण है. वहीं शरीर में कैल्शियम की मात्रा कम होने के कई कारण हैं जैसे :
* प्रसव के बाद जो पहला गाढ़ा पीला दूध होता है, उस में कैल्शियम की मात्रा बहुत ज्यादा (खून में कैल्शियम की मात्रा की तुलना में 12-13 गुना) होती है. दूध निकालने के बाद पशु के शरीर में कैल्शियम की मात्रा एकदम से कम हो जाती है.
* बच्चा देने के समय आंत से कैल्शियम का अवशोषण भी कम हो जाता है, जिस से शरीर द्रव्य में कैल्शियम की मात्रा कम हो जाती है.
* कभीकभी इस बीमारी में कैल्शियम के साथसाथ मैग्नीशियम की भी कमी हो जाती है, जिस से पशु लकवाग्रस्त सा हो जाता है और लेट जाता है.
* कभीकभी कैल्शियम और मैग्नीशियम के साथ खून में फास्फोरस की मात्रा भी कम हो जाती है, जिस से रोग अधिक जटिल हो जाता है.
लक्षण
इस बीमारी में उत्पन्न लक्षणों को 3 अवस्थाओं में बांटा जा सकता है.
पहली अवस्था
इस अवस्था में बीमारी के शुरुआती लक्षण दिखाई देते हैं, जिस में पशु को बहुत उत्तेजना होती है. पिछले पैरों की मांसपेशियों में झटके आते हैं. पशु खाने के प्रति अनिच्छा जाहिर करता है और चलनाफिरना नहीं चाहता है. जीभ बाहर निकल आती है और वह दांतों को आपस में रगड़ता है. पिछले पैर सख्त हो जाते हैं और पशु जमीन पर गिर जाता है.
दूसरी अवस्था
बीमारी की इस अवस्था में पशु सीधा बैठ जाता है, आराम करता है और सुस्त हो जाता है. वह अपना सिर बगल में पीछे की तरफ मोड़ लेता है. अति उत्तेजना खत्म हो जाती है.
पशु खड़े होने में अक्षम हो जाता है व उस का शरीर ठंडा पड़ने लगता है. शरीर का तापमान सामान्य से कम हो जाता है, नथुना सूख जाता है, आंख की शलेष्मिका भी सूख जाती है और पुतली चौड़ी हो जाती है. पशु अपनी आंख नहीं झपका पाता है.
तीसरी अवस्था
यह पशु के लेटने की अवस्था है. इस अवस्था में पशु बैठने में भी अक्षमता प्रदर्शित करता है और वह लेट जाता है. शरीर का तापमान और कम हो जाता है. नाड़ी का प्रवाह पता नहीं चलता. लेटने की वजह से पशु के पेट में गैस भर जाती है और अफारा हो सकता है. पेशाब कम या बंद हो सकता है. इस हालत में पशु को अगर तुरंत इलाज उपलब्ध नहीं कराया गया, तो उस की मौत भी हो सकती है.
उपचार
बीमार पशु को जितना जल्दी हो सके, उतना जल्दी इलाज उपलब्ध कराना चाहिए. रोग की पहली अवस्था में ही, पशु के लेटने के पहले उपचार कराना जरूरी है. इलाज में देरी होने पर उस की मौत भी हो सकती है.
इस बीमारी के इलाज के लिए पशु के नस में कैल्शियमयुक्त लवण दिया जाता है. नस में इंजैक्शन देने से उस का असर तुरंत होता है और पशु जल्दी ही ठीक हो जाता है.
कैल्शियम लगने के तुरंत बाद पशु ठीक होने के लक्षण दिखाने लगता है, जैसे सिर उठा कर बैठना, गोबर करना, पशु की आंखें खुल जाती हैं और कई बार पशु तुरंत खड़ा भी हो जाता है.
कभीकभी इस रोग में कैल्शियम के साथसाथ मैग्नीशियम और फास्फोरस की भी कमी पाई जाती है. अगर कैल्शियम देने से जानवर खड़ा न हो तो उस को कैल्शियम के साथसाथ मैग्नीशियम और फास्फोरस का इंजैक्शन भी देना चाहिए.
इन सब दवाओं के अलावा जब जानवर खड़ा हो जाए तो उसे हिमालयन बत्तीसा 20 ग्राम दिन में 2 बार 3 दिन तक खिलाना चाहिए.
पशुपालक यह ध्यान रखें कि कैल्शियम चढ़ाते समय पशु की धड़कन बढ़ सकती है और उस की मौत हो सकती है, इसलिए कैल्शियम को धीरेधीरे चढ़ाना चाहिए.
यह बीमारी ज्यादातर सर्दियों में होती है. उस समय यह ध्यान रखें कि कैल्शियम को शरीर के तापमान के बराबर गरम कर के ही नस में दें, क्योंकि ठंडा कैल्शियम नस में देने से जानवर की मौत हो सकती है.
बचाव व रोकथाम
दुग्ध ज्वर से बचाव किसानों के लिए आर्थिक रूप से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है. पशु को दुग्ध ज्वर से बचाने के लिए उन का उचित भोजनचारा प्रबंधन जरूरी है.
* पशु जब दूध नहीं दे रहा हो, तो उस समय उस को ज्यादा कैल्शियमयुक्त चारा जैसे अल्फाअल्फा घास नहीं देनी चाहिए.
* मादा पशु को बच्चा देने से 2 हफ्ते पहले बहुत ज्यादा कैल्शियम नहीं देना चाहिए.
* जिन पशुओं में दुग्ध ज्वर होने की संभावना ज्यादा हो, उन्हें ब्यांने के तुरंत बाद कैल्शियम जैल देना चाहिए.
* पशुपालक ध्यान दें कि बच्चा देने के बाद पशु का सारा खीस (पहला दूध) एकसाथ निकालने के बजाय दिन में 2 से 3 बार में निकालना चाहिए.