हमारे देश में बड़े कोरोना संकट के दौरान जिन करोड़ों किसानों ने रातदिन मेहनत कर के अन्न भंडारों को भर दिया था, उन को मोदी सरकार के इस बार के आम बजट ने बेहद निराश किया. संसद में भी इसे ले कर काफी चर्चा हुई और किसानों में भी.

बजट सत्र का पहला चरण 29 जनवरी से 13 फरवरी के बीच चला. लेकिन अब संसद की कृषि संबंधी स्थायी समिति  22 और 23 फरवरी के दौरान कृषि एवं किसान कल्याण, कृषि अनुसंधान एवं शिक्षा विभाग, मत्स्यपालन, डेरी एवं पशुपालन और खाद्य प्रसंस्करण के शीर्ष अधिकारियों को बजट की अनुदान मांगों पर तलब कर रही है. इस में भी बजट को ले कर काफी गंभीर चर्चा होगी और इस की रिपोर्ट बजट सत्र के दूसरे चरण में संसद में रखी जाएगी.

तीन कृषि कानूनों के खिलाफ पंजाब के किसानों ने जो आंदोलन शुरू किया था, उस का दायरा पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान होते हुए देश के तमाम हिस्सों में फैल चुका है. सरकारी स्तर पर आंदोलन को खत्म करने की सारी कोशिशें नाकाम रहीं.

हालांकि आम बजट किसान असंतोष को दूर करने का बेहतरीन मौका था, लेकिन सरकार इस में भी सफल नहीं हो सकी. देश के सभी प्रमुख किसान संगठनों ने इस बजट को बेहद निराशाजनक माना है.

संसद के बजट सत्र के पहले चरण में किसान असंतोष के साथ खेती की अनदेखी और निराशाजनक खास चर्चा में रहा.

राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव और बजट पर सामान्य चर्चा में कई सांसदों ने कृषि और ग्रामीण विकास मद में धन आवंटन को असंतोषजनक माना. चंद योजनाओं को छोड़ दें, तो कृषि और संबद्ध क्षेत्र का आवंटन निराशाजनक रहा. सब्सिडी में कमी के साथ सरकार ने कृषि ऋण का लक्ष्य 16.5 लाख करोड़ रुपए तक पहुंचा दिया है.

घाटे की खेती कर रहे किसानों को इस से आंशिक राहत भले ही मिले, लेकिन कर्ज के दलदल से बाहर आने का कोई रास्ता उन को नहीं दिखता है. इस नाते कृषि और ग्रामीण भारत के कायाकल्प का दावा फिलहाल इस बजट से दूरदूर तक पूरा होता नहीं दिख रहा है.

साल 2014 के बाद मोदी सरकार ने कृषि मंत्रालय का नाम बदल कर कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय करने के साथ साल 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के लिए लंबे लक्ष्य तय किए. पीएम किसान, किसान मानधन, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई परियोजना, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, जैविक खेती, मृदा स्वास्थ्य कार्ड से ले कर जैविक खेती जैसी कई पहल की.

दूसरी हरित क्रांति और प्रोटीन क्रांति के दावे के साथ वंचित क्षेत्रों के विकास और उचित भंडारण व्यवस्था से ले कर एमएसपी के बाबत स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करने का भी दावा किया गया.

बीज से बाजार तक कई अहम घोषणाएं हुईं और किसानों की आय बढ़ाने के लिए बड़े निवेश और 10,000 नए किसान उत्पादक संगठन यानी एफपीओ की स्थापना का लक्ष्य रखा गया. लेकिन ये सारे काम आधेअधूरे मन से हुए. खुद कृषि संबंधी स्थायी समिति ने अहम योजनाओं में आवंटन और प्रगति को असंतोषजनक माना है.

आंकड़ों के लिहाज से देखें, तो साल 2009 से 2014 तक यूपीए ने कृषि बजट में 1,21,082 करोड़ रुपए खर्च किए, जबकि मोदी सरकार के पांच सालों में 2014-19 के दौरान 2,11,694 करोड़ रुपए हो गए. लेकिन कृषि संकट के दौर में जब और मदद की दरकार थी, तो कृषि और ग्रामीण विकास बजट कम हो गया.

कृषि और संबद्ध गतिविधियों के लिए बजट आवंटन 2021-22 में 1,48,301 करोड़ रुपए कर दिया गया, जबकि इस मद में 2020-21 में 1,54,775 करोड़ रुपए का प्रावधान था.

इसे संशोधित अनुमान में घटा कर 1,45,355 करोड़ रुपए कर दिया गया. ग्रामीण विकास मद में भी अहम योजनाओं में कटौती कर दी गई. सब से बड़ी योजना मनरेगा का संशोधित बजट अनुमान 2020-21 में 1,11,500 करोड़ रुपए था, जिसे 2021-22 के बजट में घटा कर 73,000 करोड़ रुपए कर दिया गया.

राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम, जिस का संशोधित अनुमान वर्ष 2020-21 में 42,617 करोड़ रुपए था, उसे 2021-22 में घटा कर 9,200 करोड़ रुपए कर दिया गया.

मनरेगा योजना कोरोना संकट में वरदान बन कर उभरी थी, लेकिन सरकार ने जो आवंटन किया है, उस से लगता है कि गांव में रोजगार की अब दिक्कत नहीं रही.

खेती के उपयोग में आने वाली वस्तुओं की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं. श्रम लागत, बीज, उर्वरक, कीटनाशकों, रसायनों से ले कर पेट्रोल और डीजल तक महंगे हुए हैं. ऐसे में खेती का बजट कम होने से इन की चुनौती और बढ़ी है.

किसानों की रासायनिक खाद मद में सब्सिडी घटा दी गई. इस मद में 2021-22 में 79,530 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है, जबकि 2020-21 का संशोधित अनुमान 1,33,947 करोड़ रुपए रहा. पेट्रोलियम पदार्थों पर दी जाने वाली सब्सिडी का भी कम होने का असर कृषि क्षेत्र पर दिखेगा.

खुद खाद्य सब्सिडी मद में 2021-22 में 2,42,836 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया, जबकि इस मद में 2020-21 में 4,22,618 करोड़ रुपए का संशोधित अनुमान था. इस का असर गरीबों पर पड़ना तय है.

इस समय कृषि क्षेत्र में केवल प्रधानमंत्री किसान योजना ही ऐसी है, जिस को कहा जा सकता है कि यह एक मददगार योजना है. लेकिन सीमित मायनों में यह चुनावी लाभ के लिए आरंभ की गई थी. इस मद में 2019-20 में 48,714 करोड़ रुपए का बजट आवंटन था, जो जिस का संशोधित अनुमान 2020-21 में 65,000 करोड़ रहा. इतना ही आवंटन 2021-22 में किया गया है और अगर पश्चिम बंगाल भी इस योजना में शामिल हो जाता है, तो पैसा कम पड़ेगा.

राज्यसभा में कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने माना कि आरंभ में योजना में 14.5 करोड़ किसानों का आकलन किया गया था, लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद 10 करोड़, 75 हजार किसान ही रजिस्टर्ड हो सके हैं. ऐसे में 65 हजार करोड़ रुपए में काम चलेगा.

इस बजट में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का आवंटन बढ़ा कर 16,000 करोड़ रुपए किया गया. यह योजना अभी किसानों को रिझा नहीं पा रही है, वहीं किसानों को मिलने वाले छोटी अवधि के कर्जों की ब्याज सब्सिडी के लिए 19,468 करोड़ रुपए का प्रावधान है.

कृषि शिक्षा और अनुसंधान के लिए बजट 2021-22 में मामूली बढ़ा कर 8,514 करोड़ रुपए पर लाया गया है, वहीं खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए आरंभ की गई प्रधानमंत्री किसान संपदा योजना का बजट 700 करोड़ रुपए तक सीमित है. इस पर 2019-20 में 819 करोड़ रुपए का वास्तविक खर्चा हुआ था.

Farming

इस बजट में 2018-19 में घोषित 22,000 ग्रामीण हाटों के विकास की कोई दिशा नहीं है, जो छोटे किसानों के लिए सब से मददगार बन सकती थी. 29 जनवरी, 2021 को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने अपने अभिभाषण में 10 करोड़ छोटे और सीमांत किसानों पर ही अपने भाषण का फोकस रखा था.

सरकार की मंशा है कि आजादी के 75वें साल में किसानों की आमदनी दोगुनी हो जाए. लेकिन आमदनी बढ़ाने के लिए नीति निर्माताओं को जिन रास्तों पर संसाधन देना था, वह नहीं दिया गया है.

प्रधानमंत्री की एक बहुप्रचारित योजना 10 हजार किसान उत्पादक संगठनों या एफपीओ के गठन की रही है. इस से छोटे किसानों के जीवन को बदलने के लिए काफी उम्मीद जताई गई थी. लेकिन इस मद में इस साल 700 करोड़ रुपए का प्रावधान रखा गया है. 2020-21 में 500 करोड़ रुपए का प्रावधान हुआ था, जिसे घटा कर 250 करोड़ रुपए कर दिया गया.

हकीकत यह है कि उत्पादकता बढ़ाने और खेती की लागत घटाने के साथ कई पक्षों पर अभी बहुत काम करने की जरूरत है. किसानों ने रिकौर्ड अन्न उत्पादन कर पुराने कीर्तिमानों को तोड़ा है. लेकिन अगर हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों के किसान सड़क पर हैं, तो इस हकीकत को समझना होगा कि खेती किस चुनौती से जूझ रही है. खुद भाजपा ने साल 2019 में अपने संकल्पपत्र में जो वायदा किया था, वह इस बजट में नजर नहीं आता.

राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा जारी सकल घरेलू उत्पाद के प्रथम अग्रिम अनुमान के मुताबिक, कोरोना संकट के बावजूद कृषि और संबद्ध क्षेत्र का जीवीए में हिस्सा 19.9 फीसदी तक पहुंच गया है. 2020-21 में इस क्षेत्र में वृद्धि का अनुमान 3.4 फीसदी है, वहीं 2011-12 के आधार मूल्य पर 2014-15 में यह 0.2 फीसदी, 2015-16 में 0.6 फीसदी, 2016-17 में 6.3 फीसदी, 2017-18 में 5 फीसदी, 2018-19 में 2.7 फीसदी रही थी.

इस बात को दरकिनार नहीं किया जा सकता है कि कृषि, उद्योग और सेवाएं अर्थव्यवस्था के सब से अहम क्षेत्र हैं और आपस में जुड़े हैं. वे एकदूसरे को प्रभावित करते हैं. इस नाते केवल आंकड़ों की बाजीगरी से कृषि क्षेत्र की चुनौतियों से पार पाना आसान नहीं दिखता है.

संसद की कृषि संबंधी स्थायी समिति की हाल ही में एक रिपोर्ट में कई अहम मसलों को उठाया गया है. समिति ने माना है कि बजट में कटौती की गई और प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना में अपेक्षित किसान जोड़े नहीं जा सके.

पूर्वोत्तर भारत में पंचायती और सरकारी भूमि पर खेती करने वाले और बंटाई पर खेती करने वालों को इस के दायरे में नहीं लाया जा सका, वहीं पूर्वोत्तर जैविक खेती मिशन के दायरे में 71,492 हेक्टेयर भूमि लाई जा सकी, जबकि लक्ष्य एक लाख हेक्टेयर का था.

प्रधानमंत्री किसान मानधन योजना के तहत वृद्ध किसानों को 3 हजार रुपए तक पेंशन योजना के दायरे में कुल 20.35 लाख किसान शामिल होने को समिति ने निराशाजनक माना.

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