भारत में उड़द की खेती प्राचीन काल से होती आ रही है. उड़द को भारत के अलावा अफ्रीका, यूरोप, अमेरिका, पाकिस्तान में विशेष रूप से उगाया जाता है. भारत में उगाई जाने वाली फसलों में उड़द का तीसरा स्थान है. भारत के मैदानी भागों में वसंतकालीन व खरीफ मौसम में यह दाल उगाई जाती है.

उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिलों में उड़द की दाल का अधिक उपयोग किया जाता है, परंतु उत्तर प्रदेश के मंडलों में उड़द का सब से अधिक उत्पादन लखनऊ मंडल में होता है.

उड़द उत्पादन के अनेक लाभ हैं. उड़द की दाल पीस कर उस का विभिन्न उत्तर और दक्षिण भारतीय व्यंजनों को बनाने में किया जाता है. इस का इस्तेमाल पापड़ व बडि़यों को बनाने में किया जाता है.

इस में फास्फोरिक अम्ल दूसरी दालों की तुलना में 8 प्रतिशत से अधिक होता है. उड़द का हरा व सूखा पौधा भी पशुओं के लिए स्वादिष्ठ और पौष्टिक चारा भी मिलता है. उड़द को उगाने से भूमि की उर्वराशक्ति में वृद्धि होती है. इस के अतिरिक्त उड़द का उपयोग हरी खाद के लिए भी किया जाता है, जिस के कारण 45 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर प्राप्त हो जाती है.

भारतीय किसान उड़द का उत्पादन परंपरागत विधि से करते हैं, जिस के कारण उन्हें निम्न गुणवत्ता वाली कम उपज मिलती है, जबकि उड़द की उच्च गुणवत्ता वाली फसल लेने के लिए इस की खेती नूतन तकनीक अपना कर करनी चाहिए, जिस का उल्लेख नीचे दिया गया है :

जलवायु

उड़द की भरपूर उपज लेने के लिए नम व गरम जलवायु की जरूरत होती है. हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में लगभग 2,000 मीटर की ऊंचाई तक उड़द की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है.

उड़द की वसंतकालीन खेती 1,800 मीटर की ऊंचाई तक के क्षेत्रों में भी उगाई जा सकती है. अधिकांश उड़द की किस्में प्रकाशकाल के लिए संवेदनशील होती है.

उड़द की फसल 75-90 सैंटीमीटर वार्षिक वर्षा वाली जगहों में सफलतापूर्वक उगाई जाती है. अधिक वर्षा वाले क्षेत्र स्थान इस के उत्पादन में बाधक माने गए हैं.

भूमि

आमतौर पर उड़द की खेती सभी प्रकार की जमीनों पर की जा सकती है, परंतु उचित जल विकास वाली दोमट भूमि सर्वोत्तम मानी गई है.

उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में हलकी रेतीली दोमट भूमि पर भी उड़द की खेती की जा सकती है, जबकि दक्षिणी भारत में कपास की काली मिट्टी, गहरी लाल लैटराइट व जलोढ़ भूमि में उड़द की फसल सफलतापूर्वक उगाई जाती है.

खेत की तैयारी

रबी की फसल की कटाई के बाद एक सिंचाई पलेवा कर के जब भूमि जुताई के योग्य हो जाए, तब मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए और उस के बाद दूसरी 2 जुताइयां कल्टीवेटर या देशी हल से आरपार करनी चाहिए. अंतिम जुताई के उपरांत पारा लगाना चाहिए, ताकि मिट्टी भुरभुरी, समतल हो जाए और नमी बनी रहे.

खाद और उर्वरक

चूंकि उड़द एक दाल वाली फसल है, इसलिए इसे अधिक मात्रा में खाद और उर्वरकों की अधिक मात्रा में आवश्यकता नहीं होती है. यदि उड़द को आलूगेहूं की फसल के बाद उगाया जाता है, तो अतिरिक्त खाद व उर्वरक डालने की आवश्यकता नहीं होती है, जबकि कम उर्वरा भूमि में मिट्टी जांच के उपरांत ही खाद व उर्वरकों का उपयोग करना चाहिए.

यदि किसी कारणवश मिट्टी जांच न हो सके, तो उस स्थिति में 20-30 किलोग्राम नाइट्रोजन व 40-50 किलोग्राम फास्फोरस फसल की बोआई के समय देनी चाहिए. यदि भूमि में पोटाश की कमी हो, तो 30-40 किलो पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर डालनी चाहिए.

अनुमोदित किस्में

पूसा 1 (सलैक्शन 1) : यह किस्म 80-85 दिन में पक कर तैयार हो जाती है. इसे ग्रीष्मकालीन व खरीफ दोनों मौसम में उगाया जा सकता है. इस की फली में 5-6 दाने होते हैं. बीज काले रंग के होते हैं. प्रति हेक्टेयर 12-15 क्विंटल उपज दे देती है.

पंत उड़द 19 : यह किस्म भी तकरीबन 80-85 दिन में पक कर तैयार हो जाती है. इसे ग्रीष्मकालीन व खरीफ दोनों मौसम में उगाया जा सकता है. पीला मोजैक रोधी किस्म है. प्रति हेक्टेयर 12-15 क्विंटल उपज मिल जाती है.

इस किस्म को पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार आदि राज्यों में उगाने की सिफारिश की गई है.

पंत उड़द 35 : यह किस्म 80-85 दिन में पक कर तैयार हो जाती है. इस किस्म को ग्रीष्म कालीन व खरीफ दोनों मौसमों में उगाया जा सकता है. प्रति हेक्टेयर 10-12 क्विंटल उपज प्राप्त हो जाती है.

आजाद उड़द 2 : इस किस्म का विकास चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, कानपुर, उत्तर प्रदेश द्वारा किया गया है. यह किस्म 70-75 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. उत्तर प्रदेश में वसंतकालीन के रूप में यह किस्म उगाने के लिए उपयुक्त है. प्रति हेक्टेयर 8-9 क्विंटल तक उपज मिल जाती है.

शेखर 3 : इस किस्म का विकास चंद्रशेखर कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, कानपुर, उत्तर प्रदेश द्वारा किया गया है. यह किस्म 75-80 दिन में पक कर तैयार हो जाती है. यह किस्म वाईएमवी रोग के लिए सहिष्णु है. प्रति हेक्टेयर 10-12 क्विंटल उपज दे देती है.

मुकुंद उड़द 2 (केपीयू 405) : यह एनडब्ल्यूपीजेड में वसंत ऋतु में उगाने के लिए उपयुक्त किस्म है. यह एमवाईएमवी रोग की प्रतिरोधी किस्म है. प्रति हेक्टेयर 9.42 क्विंटल उपज दे देती है. इस किस्म को राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश व उत्तराखंड के मैदानों में उगाने की सिफारिश की गई है.

वीबीएन 8 (वीबीएन 09-005) : यह किस्म आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक व ओडिशा राज्यों में वसंतकालीन फसल के रूप में उगाने के लिए मुफिद पाई गई है. इस किस्म में 21.9 प्रतिशत प्रोटीन और 7.5 प्रतिशत अड़ाबिनोस के साथ इडली व बड़ा बनाने के लिए उपयुक्त पाई गई है.

यह किस्म 65-75 दिन में पक कर तैयार हो जाती है. यह किस्म पीला मोजैक विषाणु, लीफ क्रिंकल विषाणु, पत्ता मोड़क विषाणु, तना ऊतक क्षय से प्रतिरोधी है, जबकि चूर्णी फफूंदी, सरकोस्पोरा, पत्ती धब्बा, मूल विगलन भी मध्यम प्रतिरोधी किस्म है.

बोने का समय

वसंतकालीन फसल की बोआई फरवरीमार्च महीने में करनी चाहिए. देर से बोई जाने वाली फसल से उपज में भारी कमी हो जाती है.

बीज दर

उड़द की भरपूर उपज लेने के लिए सदैव स्वस्थ व प्रमाणित बीजों का ही उपयोग करना चाहिए. आमतौर पर उड़द की फसल उगाने के लिए 15-20 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता है.

बीज शोधन

उड़द की फसल को बीजजनित रोगों से बचाने के लिए उन्हें बोने से उन का शोधन बहुत जरूरी काम है, जिस की तरफ बहुत से किसान ध्यान नहीं देते हैं. इस के लिए 2.5 ग्राम थीरम अथवा 2 ग्राम थीरम, 1 ग्राम कार्बंडाजिम प्रति किलोग्राम बीज की दर से शोधन करना चाहिए. यदि जैविक शोधन करना हो, तो 5-6 ग्राम ट्राइकोडर्मा प्रति किलोग्राम बीज की दर से शोधन करना चाहिए.

बीजोपचार

बीज शोधन के उपरांत बीजों को एक बोरे पर फैला कर उड़द के विशिष्ट राइजोबियम कल्चर से उपचारित करना चाहिए. इस के लिए एक लिटर पानी में 100 ग्राम गुड़ डाल कर गरम करें. यह घोल जब ठंडा हो जाए, तब उस में 200 ग्राम राइजोबियम कल्चर डाल कर भलीभांति मिलाएं, फिर कल्चर के घोल को बीजों पर डाल कर दोनों हाथों से अच्छी तरह मिलाएं, ताकि बीजों को छाया में सुखा कर सुबह 9 बजे या शाम के 4 बजे के बाद खेत में बोएं.

नोट : बीजों को राइजोबियम कल्चर से उपचारित करने बाद बोने से आप अपने खेत में उर्वरकों की आधी मात्रा डाल कर भी उड़द की भरपूर उपज ले सकते हैं.

बोआई की विधियां

छिटकवां विधि : अधिकांश किसान उड़द की बोआई छिटकवां विधि से करते हैं, जिस के कारण उन्हें उपज कम मिलती है, इसलिए इस विधि का उपयोग नहीं करना चाहिए.

पंक्तियों में बोआई : उड़द की अधिक उपज लेने के लिए इस की बोआई सदैव पंक्तियों में ही करनी चाहिए. वसंतकालीन उड़द की फसल में 25 सैंटीमीटर × 10 सैंटीमीटर की दूरी रखनी चाहिए. बोआई हल के पीछे करनी चाहिए. उलट हालात में जैसे जमीन का समतल न होना, चिकनी मिट्टी का होना अथवा अधोसतह में अभेद्य परत के होने पर खेत में पानी ठहरना शुरू हो जाता है. ऐसे हालात में अनुसंधान के आधार पर पाया गया है कि फसल की बोआई मेंड़ों पर की जानी चाहिए. ऐसा करने से उड़द की उपज अधिक मिलती है.

सिंचाई व जल निकास

वसंतकालीन फसल की जरूरत के मुताबिक 10-15 दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए. आमतौर पर उड़द की फसल में 3 सिंचाइयां करना पर्याप्त होता है. पहली सिंचाई बोआई के 25-30 दिन बाद करनी चाहिए, जबकि 2 सिंचाइयां 10-15 दिन के अंतराल पर करनी चाहिए.

यदि किसी करणवश खेत में पानी ज्यादा हो जाए, तो उसे तुरंत निकालने की व्यवस्था करनी चाहिए वरना फसल पीली पड़ कर मरने की आशंका रहती है.

पौध संरक्षण उपाय खरपतवार पर नियंत्रण : उड़द की फसल के साथ अनेक खरपतवार उग आते हैं, जो फसल के साथसाथ स्थान, पोषक तत्त्व, नमी आदि के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं, जिस के कारण फसल के विकास व वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, इसलिए जब फसल 30-35 दिन की हो जाए, तब निराईगुड़ाई कर देनी चाहिए. इस के उपरांत आवश्यकतानुसार 1 या 2 बार निराईगुड़ाई करनी चाहिए.

खरपतवारनाशकों द्वारा भी खरपतवार नियंत्रण किया जा सकता है. खेत की आखिरी जुताई पर एक किलोग्राम फ्लूक्लोरेलिन (बेसालिन) को 1,000 लिटर पानी खेत में छिड़क कर जुताई कर देनी चाहिए.

कीट नियंत्रण

पिस्सू भृंग : यह उड़द व मूंग का एक प्रमुख कीट है. इस कीट के भृंग व प्रौढ़ दोनों ही पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं. इस के भृंग रात में पत्तियां खा कर उन में छेद बनाते हैं, जिस के कारण पत्तियों की प्रकाश संश्लेषण क्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है.

इस का भृंग भूमि में रह कर उड़द की जड़ों व तनों को नुकसान पहुंचाता है. यह उड़द की जड़ों में छेद कर के घुस जाता है, जिस से 25-60 प्रतिशत तक गांठें प्रति पौधा नष्ट हो जाती हैं.

इस की रोकथाम के लिए खेत में बोआई से पहले 25 किलोग्राम 5 फीसदी हैप्टाक्लोर धूल का बुरकाव करना चाहिए.

सफेद मक्खी : इस कीट के शिशु व प्रौढ़ दोनों ही पौधों का नुकसान पहुंचाते हैं. ये हलका पीलापन लिए सफेद रंग के होते हैं. शिशु पंखविहीन होते हैं, जबकि प्रौढ़ पंखों वाले होते हैं. दोनों ही पत्तियों की निचली सतह पर रस चूसते हैं, जिस से पौधे कमजोर हो कर सूखने लगते हैं. यह कीट अपनी लार से विषाणु रोग पौधों पर पहुंचाता है, जिस के कारण पौधा पीला मोजैक नामक रोग से ग्रसित हो जाता है.

पीला मोजैक रोग का नियंत्रण शुरू होते ही कर देना चाहिए. रोगी पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए और फसल पर डाईमेथोएट 30 ईसी 2 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए.

बिहार रोमिल सूंड़ी : इस कीट का प्रौढ़ मध्यम आकार का होता है और उस के पंख पीले रंग के होते हैं. पंख के किनारे लाल रंग की धारियां होती हैं. इस की सूंडि़यां समूह में रह कर पत्तियों को खाती हैं, जिस के कारण पत्तियों पर जालानुमा आकृति बन जाती है.

बड़ी सूंडि़यां फसल में फैल कर पत्तियों को ज्यादा नुकसान पहुंचाती हैं. इन के शरीर पर घने बाल व रोएं पाए जाते हैं. अत्यधिक प्रकोप की स्थिति में पौधों की पत्तियां विहीन हो कर ढांचे के रूप में रह जाती हैं. इन के प्रकोप से पौधों पर दाने छोटे व उपज कम हो जाती है.

सूंड़ी के प्रकोप को रोकने के लिए थायोडान का 0.15 प्रतिशत के घोल का छिड़काव करना चाहिए.

रोग नियंत्रण

मोजैक : यह रोग विषाणु द्वारा होता है. इस से उपज पर बुरा असर पड़ता है. जिन पौधों पर इस रोग का प्रभाव होता है, उन पर दाने कम व छोटे बनते हैं. इस के नियंत्रण के लिए नीचे दिए गए उपाय करने चाहिए :

* इस की रोगरोधी किस्में (पंत उड़द 20, 26 व 30) उगानी चाहिए.

* रोगग्रसित पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए.

* इस रोग को फैलाने वाली सफेद मक्खी को नष्ट करने के लिए मैटासिस्टौक्स के 0.15 प्रतिशत घोल का 10-10 अंतराल पर 2 छिड़काव करने चाहिए.

आर्द्र विगलन : यह एक फफूंदीजनित रोग है. इस रोग का प्रकोप बीज के अंकुरण के समय होता है. इस के कारण पौधा सड़ जाता है.

इस रोग की रोकथाम के लिए निम्न उपाय करने चाहिए :

* रोगरोधी किस्म (टा.9) को उगाना चाहिए.

* पेंटाक्लोरो नाइट्रोबैंजीन के 0.3 प्रतिशत घोल से बीजोपचार कर के बीज बोने चाहिए.

कटाई व मंडाई

आमतौर पर उड़द की फसल 70-75 दिन में तैयार हो जाती है. फरवरीमार्च में बोई गई उड़द अप्रैलमई में पक कर तैयार हो जाती है. पकने पर फलियों का रंग काला पड़ जाता है. कुछ किस्मों की फलियां एकसाथ नहीं पकती हैं और किस्मों की फलियों की 3-4 बार तोड़ाई करनी पड़ती है. जो किस्में एकसाथ पकती हैं, उन्हें दरांती से कटाई कर के खलियन में फसल को सुखाते हैं. बाद में बैल चला कर या डंडों से पीट कर फलियों के दाने निकाल लिए जाते हैं. बचा भूसा पशुओं को चारे के रूप में खिलाया जाता है.

उपज

अगर बताई गई विधि से उड़द की खेती की जाए, तो प्रति हेक्टेयर 10-15 क्विंटल तक उपज मिल जाती है.

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