केंद्रीय वित्त एवं कारपोरेट कार्य मंत्री निर्मला सीतारमण ने अंतरिम बजट (Interim Budget) 2024-25 में किसानों को ‘अन्नदाता’ बताते हुए उन के लिए शाब्दिक सम्मान में कोई कोताही नहीं की. लेकिन खेतीबारी के लिए जिन घोषणाओं का इंतजार था, उस पर बजट खरा नहीं उतरा. इस क्षेत्र को सीमित संसाधन मिलने के कारण कृषि क्षेत्र की चुनौतियां भविष्य में अधिक बनी रहेंगी.
कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय का बजट पिछले साल के 1.25 लाख करोड़ रुपए से बढा कर महज 1.27 लाख करोड़ रुपए किया गया. इस लिहाज से बजट में पहले जैसी स्थिति बरकरार है. कई क्षेत्रों में कृषि संकट पर अपेक्षित ध्यान न देने से कृषि विकास दर महज 1.8 फीसदी पर आ गई है.
वैसे तो अंतरिम बजट में किसी बड़ी घोषणाओं की परंपरा नहीं थी. पर साल 2019 में अंतरिम बजट में जिस तरह मोदी सरकार ने पीएम किसान योजना का तोहफा दिया था, उसे देखते हुए किसानों को भरोसा था कि योजना में धनराशि 6,000 रुपए से बढ़ा कर 10,000 से 12,000 रुपए तक हो जाएगी. साथ ही, एमएसपी गारंटी पर सरकार के फैसले का इंतजार किसानों को था और उम्मीद थी कि कृषि आदानो से जीएसटी कम होगी. लिहाजा, खेती की लागत घटेगी.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस बजट को विकसित भारत के चार स्तंभों को ताकत देने वाला बताया, जिस में किसान भी शामिल हैं. आधुनिक भंडारण, पर्याप्त आपूर्ति श्रंखला, प्रोसैसिंग एवं मार्केटिंग और ब्रांडिंग सहित फसल कटाई के बाद की गतिविधियों में निजी और सार्वजनिक निवेश का को बढ़ावा देने का वादा भी बजट में किया गया है. 3 करोड़ ग्रामीण आवास के बाद अगले 5 साल में 2 करोड़ और घरों को बनाने की बात है.
लेकिन वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने भाषण में वे बातें ही दोहराई हैं, जो राष्ट्रपति के अभिभाषण में आ चुकी थीं. पर केंद्रीय कृषि मंत्री अर्जुन मुंडा ने अंतरिम बजट की तारीफ करते हुए कहा कि यह हमारे अन्नदाताओं का जीवनस्तर और ऊंचा उठाएगा. उन्होंने भी पीएम किसान का खास जिक्र करते हुए कहा कि इस से 11.80 करोड़ किसानों को अब तक तकरीबन 2.81 लाख करोड़ रुपए मिले हैं, जबकि किसानों के लाभ के लिए 1361 ईनाम मंडियां हुईं, जिस से 3 लाख करोड़ रुपए का व्यापार दर्ज हो चुका है.
आत्मनिर्भर तिलहन अभियान पर सरकार आगे बढ़ रही है. सभी कृषि जलवायु क्षेत्रों में विभिन्न फसलों पर नैनो डीएपी (उर्वरक) का विस्तार करने के साथ कई दूसरे कदम उठ रहे हैं.
लेकिन भारतीय किसान यूनियन के नेता चैधरी राकेश टिकैत ने इस बजट को चुनावी ढकोसला बताया है, जिस में किसानों को केवल धोखा मिला है. उन्होंने कहा कि कि देश की मंडियों को राष्ट्रीय कृषि बाजार से जोड़ा जा रहा है. किसानों की आय दोगुनी करने के नाम पर पूर्व में नागार्जुन फर्टिलाइजर्स ऐंड कैमिकल्स लिमिटेड जैसी डिफाल्टर कंपनियां और कारपोरेट कंपनियां फसल खरीद के नाम पर जोड़ दी गईं, जिस का नुकसान देश के किसानों को होगा.
उन के मुताबिक, फसल बीमा और पीएम किसान दोनों योजनाएं सहायक नहीं हैं. 500 रुपए प्रतिमाह की धनराशि से देश के आमदनी के स्रोत से किसानों का भला नहीं कर सकती है. भला इस से होगा, अगर बजट में पैट्रोलडीजल के दामों में कटौती होती.
फिर भी बजट में सरकार ने सरसों, मूंगफली, तिल, सोयाबीन और सूरजमुखी जैसे तिलहनों के संबंध में ‘आत्मनिर्भरता’ प्राप्त करने के लिए कार्यनीति तैयार की बात कही है. इस पर क्या रणनीति बनती है, यह अभी देखना है. नैनो यूरिया को सफलतापूर्वक अपनाए जाने के बाद सभी कृषि जलवायु क्षेत्रों में विभिन्न फसलों पर नैनो डीएपी को अपनाने की बात भी है, पर इस का असर अभी जांचा जाना है.
सरकार प्राकृतिक खेती पर जोर दे रही है, पर इस के लिए महज 366 करोड़ रुपए का प्रावधान है, जबकि रासायनिक उर्वरकों के लिए 1.64 लाख करोड़ रुपए का. फसल बीमा योजना के दायरे में अब तक महज 4 करोड़ किसान आ सके हैं. देश में तकरीबन 20 करोड़ किसान परिवारों में इतनी कम संख्या फसल बीमा से जुड़ी है, जो योजना की जमीनी हकीकत बताती है. योजना के लिए बजट पिछले बजट से भी कम और 14,600 करोड़ रुपए कर दिया गया है.
राजस्थान के किसान नेता और किसान महापंचायत के अध्यक्ष रामपाल जाट ने कहा कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद की गारंटी देशव्यापी ज्वलंत मुद्दा था, पर किसान उसे ले कर सरकार से निराश हैं. स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय किसान आयोग ही नहीं खुद नरेंद्र मोदी गुजरात का मुख्यमंत्री रहने के दौरान इस की वकालत तब करते थे, लेकिन अपने दूसरे कार्यकाल के आखिरी बजट में भी इस पर कोई चर्चा भी नहीं की.
जमीनी हकीकत यह है कि अभी एमएसपी के संबंध में दलहन और तिलहन जैसी 75 फीसदी फसलें खरीद की परिधि से बाहर हैं. ज्वार, बाजरा, मक्का और रागी जैसे श्रीअन्न या मोटे अनाजों की खरीद नहीं होती. सरकार ने वर्ष 2023 को अंतर्राष्ट्रीय मोटा अनाज वर्ष घोषित किया, पर खरीद नहीं बढ़ी.
बेशक बीते एक दशक में खेतीबारी और किसानों के हक में मोदी सरकार ने कई योजनाओं का आवंटन बढ़ाया, लेकिन कई क्षेत्रों में बढ़ते कृषि संकट और किसानों के असंतोष को देखते हुए जो कदम अपेक्षित थे, वे उठाए नहीं गए.
अहम बात है, जिस पर भारी बढ़ोतरी हुई, वह है कृषि ऋण. सरकार को लगता है कि कर्ज के सहारे किसान अपनी गाड़ी चला लेंगे. 2017-18 के आम बजट में कृषि ऋण का लक्ष्य 10 लाख करोड़ रुपए था, जो अब 20 लाख करोड़ रुपए तक पहुंचा दिया गया है. पर किसान पहले से ही कर्ज के बोझ तले दबे हैं.
आज हर किसान पर औसतन 74,000 रुपए से ज्यादा का कर्ज है और यही किसानों की आत्महत्याओं के प्रमुख कारणों में है. देश में बैकों के व्यापक विस्तार के बावजूद एकतिहाई से ज्यादा किसान साहूकारों से कर्ज लेते हैं. ऐसे में कर्ज के सहारे खेती बहुत कारगर नहीं हो सकती है.
पीएम किसान योजना जरूर किसानों के लिए अहमियत रखती है. इस का शुभारंभ 2019 के चुनाव के ठीक पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गोरखपुर से किया था. इस का ऐलान हुआ तो इस के दायरे में 14.50 करोड़ किसानों के आने का अनुमान था. इस पर सालाना 87,217 करोड़ रुपए का आकलन था, पर 5 साल बाद भी इस का बजट 60,000 करोड़ से पार नहीं जा सका है.
साल 2019 में सरकार बनते ही संकल्पपत्र में किए गए वादों के तहत 3 साल में 5 करोड़ किसानों को पेंशन के दायरे में लाने की योजना बनाई, जो साकार नहीं हो सकी. इस योजना के तहत महज 100 करोड़ रुपए प्रतीकात्मक प्रावधान किया गया है.
इसी तरह देश के 22,000 ग्रामीण हाटों को जरूरी सुविधाओं से लैस करने की योजना साकार हो सकी. वर्ष 2022 तक प्रधानमंत्री आवास योजना ग्रामीण के तहत सब को घर उपलब्ध कराने का वादा भी अधूरा ही है.
वर्ष 2014-15 में कृषि मंत्रालय का बजट 23,000 करोड़ रुपए होता था, जो अब तकरीबन 5 गुना अधिक 1.27 लाख करोड़ रुपए हो गया है. पर इस के तहत सब से अधिक आवंटन तो पीएम किसान में हुआ है. किसान मानधन योजना, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई परियोजना, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, जैविक खेती, मृदा स्वास्थ्य कार्ड से ले कर प्राकृतिक खेती जैसी कई नई पहलें सामाजिक व आर्थिक बदलाव में सहायक नहीं बन सकीं.
देश में कृषि भूमि 14.4 करोड़ हेक्टेयर से घटती जा रही है. तकरीबन 86 फीसदी छोटे और सीमांत किसानों की संख्या में बढ़ोतरी होती जा रही है. सीमांत किसानों की औसत जोत आकार 0.24 हेक्टेयर है, जिस पर जिंदा रहना भी आसान नहीं है. हमारे खेतिहर परिवारों में 14.2 फीसदी आदिवासी और 15.9 फीसदी दलित हैं, जो नाममात्र की जमीनों के सहारे अपने परिवारों का बस भरणपोषण कर रहे हैं.
यह उल्लेखनीय तथ्य है कि उपेक्षा के बाद भी खेतीबारी हमारी अर्थव्यवस्था का मेरुदंड बनी हुई है, जिस पर 58 फीसदी आबादी निर्भर है. वहीं 140 करोड़ आबादी को खाद्य सुरक्षा दे रही है. कृषि उत्पादन तकरीबन वर्ष 2022-23 में 351.91 मिलियन टन तक पहुंच गया है, पर खेतीबारी बेहद गहरी चुनौतियों से जूझ रही है.
हाल के सालों में देश के कई हिस्सों में बड़े किसान आंदोलन चले. पंजाब में उन की सब से अधिक संख्या है. कोरोना के दौरान दिल्ली में 378 दिनों तक किसान आंदोलन चला. उस में 3 कानून वापस हुए, पर एमएसपी के कानूनी अधिकार का मामला लंबित है.
एमएसपी पर सरकारी खरीद का काफी दावा है, पर 14.50 करोड़ किसानों की भूजोतों के लिहाज से एमएसपी पर मौजूदा खरीद केवल धानगेहूं और चंद राज्यों तक सीमित है.
बीते एक दशक में मोदी सरकार ने कृषि मंत्रालय का नाम बदल कर कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय बनाया, सहकारिता, मात्सिकी और पशुपालन का अलग मंत्रालय बनाया. पर तसवीर बहुत अच्छी नहीं दिखती. इसलिए कृषि क्षेत्र के लिए अभी बहुतकुछ ठोस रणनीति बना कर आगे बढ़ने की दरकार है.