उदयपुर: 6 फरवरी, 2024. महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर के तत्वावधान में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली द्वारा प्रायोजित जैविक खेती पर अग्रिम संकाय प्रशिक्षण केंद्र के तहत 21 दिवसीय राष्ट्रीय प्रशिक्षण कार्यक्रम ‘‘प्राकृतिक कृषि – संसाधन संरक्षण एवं पारिस्थितिक संतुलन के लिए दिशा एवं दशा’’ का आयोजन अनुसंधान निदेशालय, उदयपुर द्वारा 6 फरवरी से 26 फरवरी, 2024 तक किया जा रहा है.
इस अवसर पर डा. अजीत कुमार कर्नाटक, कुलपति, महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर ने मुख्य अतिथि के रूप में अपने उद्बोधन में बताया कि पूरेे विश्व में ‘‘संसाधन खतरे’’ (resource threats) खासतौर पर मिट्टी की गुणवत्ता में कमी, पानी का घटता स्तर, जैव विविधता का घटता स्तर, हवा की बिगड़ती गुणवत्ता और पर्यावरण के पंच तत्वों में बिगड़ता गुणवत्ता संतुलन के कारण हरित कृषि तकनीकों के प्रभाव टिकाऊ नहीं रहे हैं.
उन्होंने आगे बताया कि बदलते जलवायु परिवर्तन के परिवेश एवं पारिस्थितिकी संतुलन के बिगड़ने से इनसानी सेहत, पशुओं की सेहत और बढ़ती लागत को प्रभावित कर रहे हैं और अब वैज्ञानिक तथ्यों से यह स्पष्ट है कि भूमि की जैव क्षमता से अधिक शोषण करने से एवं आधुनिक तकनीकों से खाद्य सुरक्षा एवं पोषण सुरक्षा नहीं प्राप्त की जा सकती है.
उन्होंने यह भी जानकारी दी कि किसानों का मार्केट आधारित आदानों पर निर्भरता कम करने के साथसाथ स्थानीय संसाधनों का सामूहिक संसाधनों के प्रबंधन के साथ प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देना चाहिए.
कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने कहा कि 21वीं सदीं में सभी को सुरक्षित एवं पोषण मुक्त खाद्य की आवश्यकता है. इसलिए प्रकृति व पारिस्थितिक कारकों के कृषि में समावेश कर के ही पूरे कृषि तंत्र को ‘‘शुद्ध कृषि’’ की तरफ बढ़ाया जा सकता है.
भारतीय परंपरागत कृषि पद्धति योजना के तहत देश के 10 राज्यों में प्राकृतिक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है. इस से कम लागत के साथसाथ खाद्य पोषण सुरक्षा को बढ़ावा मिलेगा. जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभावों के तहत खेती को सुरक्षा प्रदान करने के लिए प्राकृतिक खेती के घटकों को आधुनिक खेती में समावेश करना जरूरी है.
डा. एसके शर्मा, सहायक महानिदेशक, मानव संसाधन प्रबंधन, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली ने कार्यक्रम की आवश्यकता एवं उद्देश्य के बारे में बताया कि उर्वरकों के प्रयोग को 25 फीसदी और पानी के उपयोग को 20 फीसदी तक कम करना, नवीनीकरण ऊर्जा के उपयोग में 50 फीसदी की वृद्धि और ग्रीनहाऊस उत्सर्जन को 45 फीसदी कम करना एवं तकरीबन 26 मिलियन हेक्टेयर भूमि सुधार करना हमारे देश की आवश्यकता है.
इस के लिए प्राकृतिक खेती को देश को कृषि के पाठ्यक्रम में चलाने के साथसाथ नई तकनीकों को आम लोगों तक पहुंचाना समय की जरूरत है, जो कि वर्तमान समय में देश के कृषि वैज्ञानिकों के सामने एक मुख्य चुनौती है. प्राकृतिक खेती में देशज तकनीकी जानकारी और किसानों के अनुभवों को भी साझा किया जाएगा. इस प्रशिक्षण में देश के 13 राज्यों के 17 संस्थानों से 23 वैज्ञानिक भाग ले रहे हैं.
डा. एसके शर्मा ने आगे बताया कि प्राकृतिक खेती आज की अंतर्राष्ट्रीय व विश्वस्तरीय जरूरत है. प्राकृतिक खेती पर अनुसंधान पिछले 3 सालों से किया जा रहा है. जापान में प्राकृतिक खेती पुराने समय से चल रही है.
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली पूरे भारत में स्नातक स्तर पर पाठ्यक्रम शुरू कर चुकी है.
डा. अरविंद वर्मा, निदेशक अनुसंधान ने सभी अतिथियों के स्वागत के बाद कहा कि प्राकृतिक खेती से मिट्टी की सेहत को सुधारा जा सकता है. प्राकृतिक खेती के द्वारा लाभदायक कीटों को बढ़ावा मिलता है.
जलवायु परिवर्तन के दौर में प्राकृतिक खेती द्वारा प्राकृतिक संसाधन का संरक्षण एवं पारिस्थितिक संतुलन को बढ़ावा मिलता है.
उन्होंने जानकारी देते हुए बताया कि आज देश का खाद्यान्न उत्पान तकरीबन 314 मिलियन टन हो गया है और बागबानी उत्पादन करीब 341 मिलियन टन हो गया है. क्या देश में 2 से 5 फीसदी कृषि क्षेत्र पर प्राकृतिक कृषि को चिन्हित किया जा सकता है?
यह संभव है, लेकिन इस के लिए पर्याप्त प्रशिक्षित मानव संसाधन की आवश्यकता है, जो किसानों तक सही पैकेज औफ प्रैक्टिसेज व तकनीकी जानकारी पहुंचा सके, किसानों को मार्केट से जोड़ सके.
कार्यक्रम में विश्वविद्यालय के निदेशक, अधिष्ठाता, विभागाध्यक्ष एवं संकाय सदस्य उपस्थित रहे. कार्यक्रम का संचालन प्रशिक्षण डा. लतिका शर्मा ने किया गया एवं डा. रविकांत शर्मा, सहनिदेशक अनुसंधान ने धन्यवाद प्रेषित किया.