दलहनी फसलों में मूंग (Moong) की एक अहम जगह है. इस में तकरीबन 24 फीसदी प्रोटीन के साथसाथ रेशा व लौह तत्त्व भी प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं. मूंग जल्दी पकने वाली किस्मों व ऊंचे तापमान को सहन करने वाली प्रजातियों की उपलब्धता के कारण इस की खेती लाभकारी सिद्ध हो रही है.
सघन खेती, अंधाधुंध कीटनाशियों और असंतुलित खादों के इस्तेमाल से जमीनों की उर्वराशक्ति घट रही है और सभी फसलों की उत्पादकता में बेतहाशा गिरावट दर्ज की जा रही है.
इन हालात से निबटने के लिए हरी खादों व दलहनी फसलों को अपनाएं व अपनी जमीनों की उर्वराशक्ति को बरकरार रखने और देश की बढ़ती हुई खाद्यान्न समस्याओं से निबटने में अपना भरपूर योगदान दें.
उन्नत किस्में : मूंग की बिजाई के लिए के-851 (70-75 दिन), मुसकान (65 दिन), एसएमएल-668 (60-65 दिन), एमएच-421 (60 दिन) व नई किस्म एमएच-1142 (63-70 दिन) की काश्त की जा सकती है, जो धान व गेहूं चक्र के लिए बहुपयोग पाई गई है.
भूमि : अच्छी मूंग की फसल लेने के लिए दोमट या रेतीली दोमट भूमि अच्छी रहती है. समय पर बिजाई वाले गेहूं से खाली खेतों में ग्रीष्मकालीन मूंग ली जा सकती है.
इस के अलावा धानगेहूं उगाने वाले क्षेत्रों में आलू, गन्ना व सरसों से खाली खेतों में ग्रीष्मकालीन मूंग ली जा सकती है.
धानगेहूं उगाने वाले क्षेत्रों में आलू, गन्ना व सरसों से खाली खेतों में भी मूंग की खेती की जा सकती है.
भूमि की तैयारी : गेहूं की कटाई के एक हफ्ते पहले रौनी/पलेवा करें और गेहूं की कटाई के तुरंत बाद 2-3 जुताई कर के खेत को अच्छी प्रकार तैयार करें. इस बात का खास ध्यान रखें कि खेत में बिजाई के समय अच्छी नमी हो, ताकि संतोषजनक जमाव हो सके.
बिजाई का सही समय : इस मौसम में वैसे तो मूंग की बिजाई फरवरी के दूसरे हफ्ते से मार्च महीने तक की जाती है, लेकिन धानगेहूं बहुमूल्य क्षेत्रों में गेहूं की कटाई यदि 15 अप्रैल तक भी हो जाती है, इस के उपरांत भी मूंग की अच्छी पैदावार ली जा सकती है, क्योंकि ये किस्में 55-65 दिन में ही पक कर तैयार हो जाती हैं.
बीजोपचार : मृदाजनित रोगों से फसल को बचाने के लिए बोए जाने बीजों को कैप्टान, थिरम या बावस्टिन 3-4 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से सूखा बीज उपचारित करें.
दलहनी फसलों में राईजोबियम (जीवाणु के टीके) से बीजोपचार करने से बनने वाली गांठें ज्यादा मजबूत होती हैं, जो वायुमंडल में उपलब्ध नाइट्रोजन ले कर भूमि में जमा करती हैं. जीवाणु टीके से उपचार के लिए 50 ग्राम गुड़ को लगभग 250 मिलीलिटर पानी में घोल बना लें और छाया में पक्के फर्श पर बीज फैला कर हाथों से मिला दें, ताकि सभी बीजों पर गुड़ चिपक जाए. बाद में इन बीजों पर जीवाणु टीके का पैकेट व घोल को गुड़ लगे बीजों पर डालें और हाथ से मिलाएं, जिस से सभी दानों पर कल्चर लग जाए. इस के बाद बीजों को छाया में सुखा कर बिजाई के काम में लाएं.
बीज की मात्रा : गरमी के मौसम में पौधों की बढ़वार अपेक्षाकृत कम होती है, इसलिए अच्छी पैदावार लेने के लिए बीज अधिक डालें व खूड़ से खूड़ का फासला भी कम रखें. पौधों की समुचित संख्या के लिए बीज की मात्रा 10-12 किलोग्राम बीज प्रति एकड़ इस्तेमाल करें.
खाद का प्रयोग : दलहनी फसलों को खाद की कम जरूरत होती है. बिजाई के समय 6-8 किलोग्राम नाइट्रोजन और 16 किलोग्राम फास्फोरस की जरूरत होती है, जिसे 12-15 किलोग्राम यूरिया व 100 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट से पूरा किया जा सकता?है. अच्छी पैदावार लेने के लिए 10 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति एकड़ का प्रयोग जरूर करें.
छंटाई : बिजाई के तकरीबन 2 हफ्ते बाद जब पौधे व्यवस्थित हो जाएं, तब पौधे से पौधे का फासला 8-10 सैंटीमीटर रख कर फालतू पौधे निकाल देने चाहिए. पौधों की सही बढ़वार के लिए छंटाई करना बहुत जरूरी है, ताकि प्रत्येक पौधे को उचित हवा, नमी, सूरज की रोशनी व पोषक तत्त्व पूरी मात्रा में उपलब्ध हो सकें.
खरपतवार पर नियंत्रण : खरपतवार फसल के दुश्मन होते हैं, क्योंकि वे जमीन से नमी का शोषण करते हैं और फसल की बढ़वार में बाधक साबित होते हैं, इसलिए पहली सिंचाई के बाद चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार उग आते हैं, जिन्हें कसोले से निकाल देना चाहिए. पैंडीमिथेलिन (स्टांप) नामक खरपतवारनाशी 1.25 किलोग्राम को 200 लिटर पानी में घोल बना कर भी बिजाई के तुरंत बाद छिड़काव करने से खरपतवार पर काबू पाया जा सकता है.
सिंचाई : ग्रीष्मकालीन मूंग में सिर्फ 2 सिंचाई ही सही रहती हैं. फसल में पहली सिंचाई 20-25 दिन बाद की जाती है, जबकि दूसरी सिंचाई 15-20 दिन के बाद करनी चाहिए. ज्यादा सिंचाई करने से पौधों की बढ़वार बहुत ज्यादा हो जाती है, फलियां कम लगती हैं और वे एकसाथ भी नहीं पकती हैं.
कीड़े व रोग
ग्रीष्मकालीन मूंग में खरीफ मूंग की अपेक्षा कीड़ों का प्रकोप कम होता है. कभीकभार बालों वाली सूंड़ी, पत्तीछेदक, फलीछेदक, हरा तेला व सफेद मक्खी आदि कीड़ों का प्रकोप देखने में आता है.
बालों वाली सूंड़ी के नियंत्रण के लिए 200 मिलीलिटर मोनोक्रोटोफास 36 एसएल या 500 मिलीलिटर क्विनालफास का 200 लिटर पानी में मिला कर प्रति एकड़ छिड़काव करें.
हरा तेला व सफेद मक्खी की रोकथाम के लिए 400 मिली. मैलाथिआन या 250 से 300 मिली. रोगोर या मैटासिस्टौक्स का प्रयोग 200 लिटर पानी में घोल बना कर प्रति एकड़ छिड़काव करें.
आमतौर पर ग्रीष्मकालीन मूंग में बीमारियों का प्रकोप नहीं होता. कभीकभार पत्ती धब्बा रोग व पीला मौजेक रोग का प्रकोप देखने में आता है.
पत्ती धब्बा रोग : पत्तियों पर कोणदार व भूरे लाल रंग के धब्बे बन जाते हैं जो बीच में धूसर या भूरे रंग के और सिरों पर लालजामुनी रंग के होते हैं. इन धब्बों की रोकथाम के लिए ब्लाईटौक्स-50 या इंडोफिल एम-45 की 600-800 ग्राम दवा की मात्रा 200 लिटर पानी में मिला कर प्रति एकड़ छिड़काव करें.
पीला मौजेक रोग : मूंग में लगने वाला यह एक भयानक रोग है और इस रोग को सफेद मक्खी फैलाती है. इस रोग से प्रभावित पौधों के पत्ते दूर से ही पीले नजर आने शुरू हो जाते हैं. रोग अधिक फैलने से पूरा पौधा पीला पड़ जाता है.
इस की रोकथाम के लिए जब भी खेत में पीले पौधे दिखाई पड़़ें, उन्हें तुरंत उखाड़ देना चाहिए. यह रोग सफेद मक्खी से फैलता है, इसलिए समयसमय पर इस के लिए नियंत्रण के लिए रोगोर या मैटासिटौक्स कीटनाशी का 200 से 350 मिलीलिटर दवा का छिड़काव 100 से 200 लिटर पानी में घोल बना कर प्रति एकड़ छिड़काव कर देना चाहिए.
उपज व कटाई
ग्रीष्मकालीन मूंग में बिजाई के तकरीबन 50-55 दिन बाद फलियां पकनी शुरू हो जाती हैं. पकने पर फलियों का रंग गहरा भूरा हो जाता है. एक एकड़ से तकरीबन 4 से 6 क्विंटल पैदावार मिल जाती है.
ग्रीष्मकालीन मूंग उगाने के फायदे
* अतिरिक्त आमदनी
* कम अवधि के चलते धानगेहूं फसलचक्र में उपयोगी
* खाली पड़े खेतों का सही इस्तेमाल
* भूमि की उपजाऊ शक्ति में सुधार
* उगाने में कम खर्च
* पानी का सही इस्तेमाल
* बीमारी व कीटों का कम प्रकोप
* भूमि कटाव से बचाव
* दलहन उत्पादन में वृद्धि
* विदेशी मुद्रा में बचत