यदि गौर से देखा जाए, तो आजादी के बाद से ही अलगअलग समस्याओं को ले कर स्थानीय स्तर पर किसान लगातार आंदोलन कर रहे हैं. बिजली, पानी, खाद, बीज, परिवहन, गोदाम और बाजार की अलगअलग क्षेत्र में अलगअलग समस्याएं रही हैं. छुटपुट स्तर पर इन्हें अस्थाई तौर पर सुलझाने के प्रयास भी हुए, पर रोग बढ़ता ही गया ज्योंज्यों दवा की. इन समस्याओं के स्थायी समाधान के लिए कोई दूरगामी नीति आज तक नहीं बन पाई, जो कि बेहद जरूरी थी.

पिछले आंदोलन की अगर बात करें, तो इस की जड़ में सरकार के वे तीनों विवादास्पद कानून थे, जिसे सरकार ने बिना किसान संगठनों और किसानों से चर्चा किए, बिना उन्हें विश्वास में लिए ही किसानों की भलाई के नाम पर किसानों पर थोप दिया था. अंधे को भी दिख रहा था कि तीनों कानून कारपोरेट के पक्ष में गढ़े गए थे, परंतु कारपोरेट्स प्रेमहिंडोले पर झूल रही सरकार ने किसानों को निरा ही बेवकूफ समझ लिया.

किंतु इन तीनों कानून की गाज जब किसानों पर गिरी और उन्हें उन की जमीन हाथ से निकलती नजर आई, तो किसान अपनी तत्कालीन सभी छोटीबड़ी समस्याओं को किनारे रख कर अपने खेत, खेती बचाने के लिए सड़क पर उतर आए.

आखिरकार जब तीनों कानून वापस हुए और आंदोलन वापस हुआ तो किसानों के हाथ एक बार फिर खाली थे. हाथ में था केवल एमएससी गारंटी कानून लागू करने का आश्वासन का झुनझुना. जैसे ही सरकार ने अपने चुनिंदा तनखैय्या नुमाइंदों की एक नौटंकी एमएसपी गारंटी कमेटी बनाई, यह बिलकुल साफ हो गया कि सरकार की नीयत किसानों को ‘एमएसपी गारंटी‘ देने की नहीं है.

सरकार के इस धोखे और वादाखिलाफी ने पहले से ही सुलग रहे किसान आक्रोश की आग में घी का काम किया है. ऐसी हालत में किसान गुस्से के तवे पर राजनीतिक रोटी सेंकने वाले वाले कोढ़ में खाज का काम करते रहे हैं और इस से समस्या और उलझ जाती है.

कुलमिला कर यह स्थिति किसानों के साथ ही सरकार और देश के लिए भी ठीक नहीं है. ऐसे में जरूरी हो जाता है कि इस समस्या का हल ढूंढ़ने के लिए इस की जड़ों की तहकीकात के साथ ही इस बारे में उठने वाले कुछ प्रमुख सवालों के ईमानदार जवाब ढूंढे़ जाएं.

सरकार का फसल लागत पर 50 फीसदी लाभ जोड़ कर एमएसपी तय करने या देने का दावा कितना सही है?

सरकार का यह दावा पूरी तरह से झूठ और गलत आंकड़ों पर आधारित है. एमएसपी तय करने में सब से महत्वपूर्ण आंकड़ा फसल लागत का होता है. इस में एमएस स्वामीनाथन की अनुशंसा के अनुसार ब्2़थ्स् यानी सी2 प्लस एफएल की मांग किसानों द्वारा की जाती रही है.

फसल लागत में जब तक किसान व उस के परिवार की मजदूरी वर्तमान कुशल मजदूर की तय दर से जोड़ी जाए, मजदूरों का वास्तविक भुगतान, बैलों के मूल्य और उन के भोजन एवं रखरखाव का खर्च, ट्रैक्टर, पावर टिलर, मोटरसाइकिल आदि का संचालन खर्च, भूमि के लीज का भुगतान, बीज, उर्वरक, खाद, सिंचाई शुल्क एवं ट्रैक्टर, ड्रिप ,सिंचाई पंप आदि सभी कृषि उपकरणों एवं कृषि भवनों पर वार्षिक मूल्य नुकसान की गणना, कार्यशील पूंजी पर ब्याज आदि को वर्तमान बाजार मूल्य के आधार पर नहीं जोड़ा जाता, तब तक खेती की लागत की गणना सही नहीं मानी जा सकती.

हालत यह है कि डीजल की बढ़ी कीमतों के कारण ट्रैक्टर की जुताई के खर्च में तकरीबन 20 फीसदी की वृद्धि हो गई. मजदूरी में तकरीबन 25 फीसदी की वृद्धि हो गई. खाद, बीज, दवा आदि में 20 से 25 फीसदी की वृद्धि देखी जा रही है.

ऐसी हालत में जब फसल लागत में 20 से 25 फीसदी की वृद्धि हो रही है, तब सरकार की एमएसपी में अधिकतम 1 फीसदी से 6 फीसदी तक की जाने वाली सालाना वृद्धि से किसान फायदे के बजाय घाटा हो रहा है. किसान को लागत पर 50 फीसदी फायदा मिलने के बजाय लागत 15 से 20 फीसदी घाटा हो रहा है. यही वजह है कि किसान की कमर टूट गई है.

एमएसपी न मिलने से किसान को कितना नुकसान है?

इस संदर्भ में सरकार की ही शांताकुमार कमेटी का कहना है कि अभी केवल 6 फीसदी उत्पादन ही एमएसपी पर खरीदा जाता है, बाकी 94 फीसदी किसानों का उत्पादन एमएसपी से भी कम रेट पर बिकता है, जिस की वजह से किसानों को हर साल तकरीबन 7 लाख करोड़ रुपए का नुकसान होता है. हर साल किसानों को मिलने वाली सभी प्रकार की सब्सिडी को अलग कर दिया जाए तो भी, देशभर के किसानों को 5 लाख करोड़ से ज्यादा का घाटा हर साल सहना पड़ रहा है. इन हालात में खेती व किसानी कैसे बचेगी, यह सरकार और उस के नीति निर्माताओं के लिए भी सोचने का विषय है.

एमएसपी पर खरीद में सरकार और बाजार की भूमिका

एक सवाल यह भी उठाया जाता है कि भला सरकार किसानों का सारा माल कैसे खरीद सकती है? सरकार कारोबारियों को भी किसानों का माल खरीदने के लिए कैसे बाध्य कर सकती है?

सौ बात की एक बात यह है कि हम ’किसान तो यह कहते ही नहीं कि किसानों का ‘एक दाना‘ भी सरकार हम किसानों से खरीदे.’ हमारा सरकार से कहना साफ है कि आप तो बस किसानों के साथ बैठ कर खेती पर होने वाले सभी वाजिब खर्चों को जोड़ कर समुचित ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य‘ तय कर दे और उस से कम पर की जाने वाली किसी भी खरीदी को गैरकानूनी घोषित करते हुए उस के लिए समुचित सजा के प्रावधान का कानून पारित कर दे. वर्तमान में सरकार डीजल व पैट्रोल के दाम तय कर ही रही है.

जमीन की खरीदीबिक्री का भी मूल्य स्टांप ड्यूटी के लिए सरकार ही तय करती है. गन्ने का मूल्य तो कितने ही सालों से सरकार तय कर ही रही है. बाजार को भी खरीदी के लिए बाध्य करने की जरूरत नहीं है. साथ ही, आयात नीति में जिस तरह देश की अन्य जरूरी वस्तुओं को आयात संरक्षण दिया जाता है, वैसे ही कृषि उत्पादों को भी सस्ते आयात से आवश्यकतानुसार जरूरी संरक्षण दिया जाए. बस सरकार को इतना ही तो करना है. वैसे भी खरीदीबिक्री का काम और विशेष परिस्थितियों के अलावा अनाजों की खरीदी कर के वोट के लिए उसे मुफ्त बांटना किसी सरकार का काम नहीं होना चाहिए.

क्या ‘एसपी गारंटी कानून‘ से सरकारी खजाने पर बोझ बढ़ेगा?

बिलकुल नहीं. सरकार के खजाने पर कोई अतिरिक्त बोझ नहीं पड़ने वाला. यह जानबूझ कर फैलाया जाने वाला निरर्थक भ्रम है. सरकार तो वैसे भी जो भी अनाज सरकारी योजनाओं में वितरण के लिए किसानों से खरीदती है, वह न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ही खरीदती है, इसलिए सरकारी खजाने पर बोझ बढ़ने का सवाल ही नहीं उठता.

सरकार को तो बस एक छोटा सा कानून बनाना है, जिस में सरकार का एक पैसा खर्च नहीं होने वाला. वैसे भी यह सरकार बिना जनता के मांगे ही सैकड़ों नएनए कानून बनाने के लिए जानी जाती है, तो फिर किसानों की जायज मांग पर एक कानून और सही.

क्या इस से बाजार और व्यापारी को नुकसान होगा?

जरा भी नहीं. व्यापारी न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधार पर उस से ऊपर की दर पर खरीदी करेंगे और अपना वाजिब लाभ जोड़ कर आगे उपभोक्ताओं को बेचेंगे. किसान अपना पैसा बैंक में नहीं रखता, इसलिए किसान को मिला पैसा तत्काल वापस बाजार में आ जाएगा, जिस से क्रियाशील पूंजी और बाजार की गति को और तेजी मिलेगी, देश के विकास दर में तीव्रता आएगी.

क्या इस से अंतिम उपभोक्ता को नुकसान होगा?

जी, बिलकुल नहीं. उलटे इस से उपभोक्ता भी अनावश्यक शोषण से बचेगा. उदाहरण से समझें, बाजार में किसानों का गेहूं 16 किलोग्राम बिका है और उपभोक्ताओं को 40 किलोग्राम आटा खरीदना पड़ रहा है यानी बाजार की ताकतें एमएसपी से कम दर पर खरीदी कर के किसानों का शोषण करने के साथ ही तकरीबन सौ फीसदी फायदा ले कर उपभोक्ताओं की भी जेब काट रही हैं.

एक और उदाहरण, गन्ना भी सरकार नहीं खरीदती, पर चीनी मिलों की खरीदी के लिए उस का रेट उस ने तय कर दिया है, तो इस से उपभोक्ताओं को लगातार चीनी वाजिब मूल्य पर मिल रही है. न्यूनतम समर्थन मूल्य के साथ ही कृषि उत्पादों और उन से तैयार उत्पादों की अधिकतम विक्रय मूल्य भी तय कर दिए जाएंगे, तो उपभोक्ताओं को जबरदस्त राहत मिलेगी.

क्या यह समस्या सचमुच बहुत जटिल है?

इस समस्या का हल ढूंढ़ने कहीं दूर जाने की भी जरूरत नहीं है, क्योंकि वह तो पहले ही मौजूद है. सरकार और किसान दोनों के द्वारा इसे जीतहार का सवाल न बनाया जाए और सरकार अपना अब तक के अपने गैरजरूरी अड़ियल, दमनकारी अलोकतांत्रिक रुख तत्काल छोड़ कर, दिमाग के जाले साफ कर देश के सभी किसान संगठनों के साथ मिलबैठ कर एक ऐसा सकारात्मक हल बड़े आराम से निकाल सकती है, जिस में किसानों को उन की लागत और मेहनत की वाजिब कीमत मिले, व्यापारियों को भी वाजिब मुनाफे के साथ खुला बाजार मिले और उपभोक्ताओं को भी वाजिब कीमत पर कृषि उत्पाद मिले.

साथ ही, किसानों की अन्य लंबित समस्याएं भी मिलबैठ कर बड़े आराम से सुलझाई जा सकती हैं. ऐसी किसी भी सकारात्मक पहल को अखिल भारतीय किसान महासंघ (आईफा 45 किसान संगठनों का महासंघ), राष्ट्रीय एमएसपी गारंटी किसान मोरचा (223 किसान संगठन) और अन्य सकारात्मक किसान संगठनों का पूरा साथ व समर्थन मिलेगा.

– डा. राजाराम त्रिपाठी, राष्ट्रीय संयोजक, अखिल भारतीय किसान महासंघ (आईफा),राष्ट्रीय प्रवक्ताः एमएसपी गारंटी कानून किसान मोरचा 

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