मक्का दुनिया की खास खाद्यान्न फसल है. विश्व में सकल खाद्यान्न उत्पादन में इस का 25 फीसदी योगदान है और खाद्यान्न फसलों में मक्के का तीसरा स्थान है. संसार की तकरीबन सभी तरह की जलवायु में मक्के की खेती की जा सकती है. हर जलवायु की अपनी खासीयतें हैं, जो मक्के की विभिन्न प्रकार की किस्मों के लिए मुनासिब हैं.

मक्के की अहमियत

* मुरगी व पशुओं के आहार का करीब 60-65 फीसदी भाग मक्का होता है. इसे पौष्टिक हरे चारे के रूप में प्रयोग किया जाता है.

* मक्के की स्वादिष्ठ रोटी बनती है और इस का भुट्टा भून कर खाया जाता है. इसे पौपकार्न व कार्नफ्लैक्स के रूप में भी खाया जाता है.

* प्रोटीनेक्स, चाकलेट, पेंट, स्याही, लोशन व कार्न सिरप वगैरह बनाने में मक्के का इस्तेमाल किया जाता है.

* इसे बेबीकार्न के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है.

मक्के (Maize)

बीज की मात्रा व बोआई

संकुल मक्के की खेती के लिए 20-25 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें. संकर मक्के की खेती के लिए 18-20 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें. मक्के की बोआई देशी हल के जरीए 3-4 सैंटीमीटर गहराई पर लाइन से लाइन की दूरी 60 सैंटीमीटर व पौधे से पौधे की दूरी 30 सैंटीमीटर रखते हुए करें. मक्के की बोआई जून के अंत तक या जुलाई के पहले पखवाड़े तक कर लेनी चाहिए.

बोआई से पहले बीजों को 2.5 ग्राम थीरम व 2 ग्राम कार्बंडाजिम से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें.

दीमक से बचाव के लिए बीजों को 15-20 मिलिलीटर क्लोरोपाइरीफास से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें. इस के अलावा बीजों को एजोटोवेक्टर व पीएसवी की 250 ग्राम मात्रा से प्रति 10 किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें.

उर्वरकों का इस्तेमाल

मक्के की भरपूर पैदावार के लिए जीवांश खादों के साथसाथ संतुलित उर्वरकों का इस्तेमाल मिट्टी की जांच के आधार पर करना चाहिए. यदि किसी वजह से मिट्टी की जांच न हुई हो तो दी गई तालिका के मुताबिक उर्वरकों की मात्रा देनी चाहिए.

नाइट्रोजन की आधा मात्रा और फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा कूंड़ों में बीजों के नीचे डालनी चाहिए. जिंक की पूरी मात्रा अंतिम जुताई के समय खेत में मिला देनी चाहिए. बची नाइट्रोजन की आधी मात्रा टापड्रेसिंग के रूप में बोआई के 30-35 दिनों बाद (जब पौधे तकरीबन घुटने की ऊंचाई तक हो जाएं) दें और बाकी आधी मात्रा टापड्रेसिंग नरमंजरी निकलते समय करें.

सिंचाई

पौधों की शुरुआती अवस्था और दाना पड़ने की अवस्था में सही नमी होना जरूरी है. लिहाजा, उस दौरान सिंचाई का पूरा खयाल रखें. साथ ही साथ जल निकासी का इंतजाम होना भी जरूरी है.

खरपतवारों की रोकथाम

खरपतवारों की वजह से उपज में 40-45 फीसदी की कमी हो जाती है. इस के अलावा कीटों व बीमारियों का प्रकोप बढ़ जाता है. लिहाजा, जमाव के 35-40 दिनों बाद निराईगुड़ाई करना जरूरी है. मक्के में एट्राजीन 1.5 किलोग्राम घुलनशील पाउडर को 800-1000 लिटर पानी में घोल कर बोआई के दूसरे दिन तक अंकुरण से पहले छिड़काव करने से चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार नष्ट हो जाते हैं.

इस के अलावा एलाक्लोर 50 ईसी का 4.5 लिटर प्रति हेक्टेयर की दर से अंकुरण से पहले छिड़काव करना चाहिए. यदि मक्के के बाद आलू की खेती करनी हो तो एट्राजीन का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए. सहफसली मक्के में खरपतवारों की रोकथाम के लिए पेंडीमिथेलीन 30 ईसी की 3 लिटर मात्रा 800-1000 लिटर पानी में घोल कर बोआई के तुरंत बाद छिड़काव करना चाहिए.

खास कीड़े

तना छेदक : इस कीट की सूंडि़यां तनों में छेद कर के उन्हें अंदर से खाती रहती हैं, जिस से वे कमजोर हो जाते हैं और हवा चलने पर पौधे टूट जाते हैं.

इस की रोकथाम के लिए बोआई के 20-25 दिन बाद कार्बोफ्यूरान 3 फीसदी दानेदार की 20-25 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें और बोआई के 3 व 7 हफ्ते बाद कार्बोरिल 50 फीसदी घुलनशील पाउडर की 2.5 किलोग्राम मात्रा या इंडोसल्फान 35 ईसी की 1.5 किलोग्राम मात्रा का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

पत्ती लपेटक : इस कीट की सूंडि़यां पत्ती के दोनों किनारों को रेशम जैसे सूत से लपेट कर अंदर से खाती हैं. इस की रोकथाम के लिए क्यूनालफास 25 ईसी की 2 लिटर मात्रा या इंडोसल्फान 35 ईसी की 1.5 लिटर मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें.

टिड्डा : इस कीट के शिशु व वयस्क दोनों पत्तियों को खा कर हानि पहुंचाते हैं. इन की रोकथाम के लिए मिथाइल पैराथियान 2 फीसदी की 20-25 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से बुरकाव करना चाहिए.

कमला कीट : इस कीट की गिड़ारें पत्तियों को बहुत तेजी से खाती हैं और फसल को काफी नुकसान पहुंचाती हैं. इस की रोकथाम के लिए इंडोसल्फान 4 फीसदी पाउडर की 20 किलोग्राम मात्रा या डाईक्कोटोवास 70 ईसी की 650 मिलीलिटर मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करनी चाहिए.

खास बीमारियां

पत्तियों का झुलसा रोग : इस रोग से पत्तियों पर लंबे नाव के आकार के भूरे धब्बे बन जाते हैं. रोग नीचे की पत्तियों से बढ़ कर ऊपर की पत्तियों तक पहुंच जाता है. इस की रोकथाम के लिए मैंकोजेब व कार्बंडाजिम के 2:1 के अनुपात में बनाए गए मिश्रण की 2 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें. जरूरत के मुताबिक 15-20 दिन बाद दूसरा छिड़काव करें.

तना सड़न : पौधे की निचली गांठ से इस रोग का संक्रमण शुरू होता है और तना सड़ने लगता है. पौधे के सड़े भाग से बदबू आने लगती है. पौधे की पत्तियां पीली हो कर सूख जाती हैं. बाद में पौधा कमजोर हो कर गिर जाता है. इस की रोकथाम के लिए 12 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लीन व 500 ग्राम कापर आक्साइड क्लोराइड का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

अधिक जानकारी के लिए क्लिक करें...