हमारे देश में बेशक खेती की बहुतायत है. खेती तकरीबन 60 करोड़ से भी ज्यादा लोगों के रोजगार का साधन व हमारे मुल्क के माली इंतजाम की रीढ़ है. बोआई से कटाई तक, खाद, बीज, दवा, पानी व मशीनों वगैरह को ले कर बीते 70 सालों में खेती के तौरतरीकों में बहुत से बदलाव हुए हैं, तरक्की हुई है. नतीजतन, फसली पैदावार में भी इजाफा हुआ है.
इस के बावजूद किसानों को तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. कर्ज पर सूद की मार, खराब मौसम, खराब बीज, मिलावटी खाद, नकली दवा, जानवरों से नुकसान, कीड़े व बीमारी के बहुत से जोखिम किसानों को तबाह करने में लगे हैं. किसानों के आड़े वक्त में फसल बीमा का मुआवजा भी ऊंट के मुंह में जीरा की तरह नाकाफी साबित होता है.
बड़े किसान अपनी हैसियत के चलते किसी तरह मुश्किलें पार कर जाते हैं, लेकिन छोटी जोत वाले किसान अपने मसलों में ही उलझ कर उन से जूझते रहते हैं और कई बार खुदकुशी करने को मजबूर हो जाते हैं. ज्यादातर किसानों को पैसों की तंगहाली, उन में तालीम व जागरूकता की कमी भी आग में घी का काम करती है.
समस्याएं बहुत सी हैं
जराजरा से काम के लिए परेशान किसान सरकार से यह उम्मीद लगा बैठते हैं कि वह उन्हें मुश्किलों से नजात दिलाएगी, उन की उपज के वाजिब दाम दिलाएगी और उन के बाकी के मसले हल करेगी, लेकिन ज्यादातर किसानों को इस मोरचे पर कामयाबी नहीं मिलती. निकम्मे, भ्रष्ट सरकारी मुलाजिम किसानों को उन के फायदे की बातें नहीं बताते.
खेती में भी बहुत सी समस्याएं हैं, लेकिन सिर्फ उन का रोना रोते रहने या सरकार के भरोसे रहने से कुछ नहीं हासिल होता. समस्याओं को हल करने के लिए खुद ही अपनी कोशिशें करनी होंगी. माहिरों का मानना है कि हर मसले का कोई न कोई हल जरूर होता है. इसलिए कुछ भी मुश्किल नहीं है अगर ठान लीजिए.
बात दीगर है कि हर आम किसान खेती से अपनी आमदनी बढ़ाने में जल्दी कामयाब नहीं हो पाता, फिर भी खेती के जानकारों से रायमशवरा, नए तौरतरीकों की ट्रेनिंग व सही जानकारी से इस में काफी मदद मिलती है. किसानों को नई तकनीक, तजरबे व सूझबूझ से अपने रोजमर्रा के मसले हल करने की राह पर आगे बढ़ना चाहिए.
ठान लें तो सब मुमकिन है
किसानों का सब से अहम मसला यह है कि सीजन में पैदावार बढ़ जाने से अकसर उपज की कीमतें गिर जाती हैं और उन की मेहनत पर पानी फिर जाता है. मंडी में काबिज आढ़तिए सस्ती कीमतों पर उपज खरीद कर फिर उसे महंगे दामों पर बेच कर खुद मोटा मुनाफा कमाते हैं और किसान हाथ मलते रह जाते हैं.
फसलों की बंपर पैदावार के साइड इफैक्ट व माली नुकसान से बचने के लिए अकसर अतिरिक्त उपज की प्रोसैसिंग यानी डब्बाबंदी करने की इकाई लगाने की भी सलाह दी जाती है, लेकिन तकनीकी जानकारी, ट्रेनिंग, बिक्री व पूंजी वगैरह न होने से यह काम हर आम किसान के बस की बात नहीं होती है.
उपज को सीधे फुटकर ग्राहकों को बेच कर किसान इस मसले को हल कर सकते हैं. हरियाणा व पंजाब के बहुत से फलसब्जी उत्पादक यही करते हैं. कटाई के बाद वे अपनी उपज खेतों से ट्रकों में भर कर चंडीगढ़, जालंधर, पटियाला के बड़े शहरों की मंडी में पहुंच जाते हैं. वहां हर तीसरे दिन लगने वाली पैठ में सुबह 6 बजे से रात 10 बजे तक बिक्री होती है.
खुद करें मार्केटिंग
अहम बात यह है कि इन बाजारों में किसान अपना माल बेचते समय कीमतों को ले कर आपस में कभी कंपटीशन नहीं करते. वे खुद ही अपनी उपज की कीमतें तय करते हैं और उन का ब्योरा बाजार के बाहर लगे बोर्ड पर लिख देते हैं, फिर ग्राहकों को दुकान पर एक ही दाम सुनाई देते हैं. इसलिए भावताव तय करने में समय फुजूल में जाया नहीं होता. इस तरह किसान व ग्राहक दोनों ही फायदे में रहते हैं.
किसानों ने मिल कर लोकल टैंट हाउस वालों से एग्रीमेंट कर रखा है .वे सुबह 5 बजे आ कर पहले ही बड़ीबड़ी मेजें, कुरसियां, बारिश व धूप से बचने के लिए बड़ी छतरी व रात को रोशनी के लिए बैटरी से जलने वाली एलईडी लाइटों का बंदोबस्त कर देते हैं व अगले दिन सुबह को खुद ही उसे उठा ले जाते हैं इसलिए किसानों को कोई दिक्कत नहीं होती.
तकनीक से तरक्की
उपज की वाजिब कीमत हासिल करने के अलावा खेती से आमदनी बढ़ाने का एक और कामयाब तरीका फसली कचरे का बेहतर इस्तेमाल करना भी है, लेकिन इस तरफ ज्यादातर किसानों का ध्यान ही नहीं जाता है. इसलिए वे खेती का सारा कचरा अपने खेतों व घरों में जला कर खत्म कर देते हैं. इस से आसमान में धुएं के बादल छा जाते हैं व प्रदूषण बढ़ता है.
दक्षिण कोरिया में किसान कभी भी अपने खेतों में पराली नहीं जलाते हैं. वे उसे काटने के बाद उस के गट्ठर बना कर खेत में ही छोड़ देते हैं. एक फोन करते ही खाद, गत्ता व बिजली वगैरह बनाने वाली निजी, सहकारी व सरकारी कारखानों के वाहन आ कर उन्हें ले जाते हैं. हमारे देश में यह कामधंधा किया व बढ़ाया जा सकता है.
हाईटैक तरीके
खेती से जुड़े मसले खुद सुलझाने व खेती से आमदनी बढ़ाने के बहुत से तरीके हैं. ज्यादातर किसान अपनी आमदनी व खर्च ब्योरा नहीं रखते. इस वजह से वे अपने खर्च का अंदाजा नहीं लगा पाते. यही वजह है कि कम आमदनी में बचत करना दूर उन के खर्च भी पूरे नहीं हो पाते. खेती में हुए खर्च व आमदनी का हिसाब दिमाग की जगह कागज पर रखना जरूरी है.
सारी बातें वक्त पर याद आ सकें, उन के मुताबिक काम किया जा सके, इस के लिए यह जानना बेहद जरूरी है कि कब किस फसल से कितना पैसा आ रहा है व कितना पैसा किधर खर्च किया जा रहा है? किसी भी नुकसान या बुरे तजरबे की खटास को सबक मान कर आगे के लिए सुधार व बदलाव करना जरूरी है.
गांव छोड़ कर शहरों की ओर आना भी किसानों के लिए अब एक बड़ा मसला है. नई उम्र की नई फसल गांव में रह कर खेती नहीं करना चाहती, लेकिन अगर गांव में होने वाली तकलीफों में कमी कर ली जाए तो हालात बदल सकते हैं.