तकरीबन पिछले एक दशक में औषधीय पौधों की कारोबारी खेती की ओर देश के किसानों का रुझान तेजी से बढ़ा है. विभिन्न राज्यों में अनेकों प्रगतिशील किसानों ने इन फसलों की खेती में कामयाबी पाई है, जिस से प्रेरित हो कर बड़ी तादाद में किसान इन फसलों की खेती की नई तकनीक, इन के बीज, रोपण सामग्री, इन के बाजार व इन से हासिल फायदे वगैरह के बारे में जानकारी लेने के लिए लगातार कोशिश में रहते हैं.
क्षेत्र विशेष के लिए किस औषधीय फसल को चुना जाए, इस की खेती में आने वाली दिक्कतों, परंपरागत फसलों की अपेक्षा इन फसलों को अपनाने की वजह व अपेक्षाकृत ज्यादा फायदा वगैरह ऐसे पहलू हैं जिन के बारे में किसान लगातार जानकारी चाहते रहते हैं.
सतावर जो न केवल एक महत्त्वपूर्ण औषधीय फसल है, बल्कि इस की खेती आसान व कम जोखिम भरी है. सतावर की खेती के बारे में जरूरी जानकारी इस प्रकार है:
पौधे का ब्योरा : सतावर लिलिएसी कुल का आरोही पौधा है. इस की सालभर तक उपज ली जा सकती है. आमतौर पर 3 से 5 फुट लंबाई वाले इस पौधे की शाखाएं पतली और पत्तियां बारीक सूई की तरह होती हैं. इस की कंदीय जड़ें गुच्छों में 15-40 सैंटीमीटर तक लंबी और भूरी व सफेद रंग की होती हैं. इस के फूल सफेद व गुच्छों में लगते हैं.
सतावर के फल छोटेछोटे गोल व पकने पर लाल हो जाते हैं. इन के पकने पर काले रंग के बीज बनते हैं. औषधीय फसल के साथसाथ इसे सजावटी पौधों की तरह गमलों व बगीचों की क्यारियों में भी लगाया जाता है.
औषधीय महत्त्व : सतावर की सूखी जड़ों का इस्तेमाल कई तरह के रोगों को दूर करने के लिए किया जाता है. ये पुष्टिदायक, बलकारक, माताओं में दूध बढ़ाने वाली, आंखों के लिए हितकारी, शुक्रवर्धक, शीतवीर्य, मेघाकारक, अतिसार, वात, पित्तरक्त व शोध दूर करने वाली होती हैं. इन से बलवर्धक टौनिक, सैक्स टौनिक, ल्यूकोरिया व एनीमिया के उपचार व दिमागी तनाव को दूर करने के लिए कई तरह की दवाएं बनाई जाती हैं.
रासायनिक संघटन : सतावर की जड़ों व पौधों के दूसरे भागों में 100 से भी ज्यादा कार्बनिक और अकार्बनिक योगिक तत्त्व पाए जाते हैं.
कार्बनिक समूह के उपसमूह सैपोनिन चिकित्सीय गुणों के कारण महत्त्वपूर्ण हैं. इस में पाए जाने वाले सतावरिन, एलेनाइन, कोनिफेरिन, आर्जीनीन सार्सपोजिनि, अनेक शर्करा व वसीय अम्ल महत्त्वपूर्ण योगिक हैं.
जलवायु और जमीन : सतावर की खेती के लिए उष्ण आर्द्र जलवायु उत्तम रहती है. सतावर के पौधे समुद्रतल से 1200 मीटर की ऊंचाई तक बहुतायत में मिलते हैं.
मैदानी क्षेत्रों में इस की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है. इस के लिए अच्छे जल निकास वाली रेतीली दोमट मिट्टी, जिस का पीएच मान 7-8 के बीच हो, सही रहती है.
खेती की तैयारी : जून महीने में 1 गहरी जुताई कर 2-3 बार दोबारा जुताई व पाटा लगा कर खेत को समतल कर लें और आखिरी जुताई के समय खेत में 200 से 250 क्विंटल सड़ी गोबर की खाद मिला दें. वर्मी कंपोस्ट या नाडेप कंपोस्ट का भी इस्तेमाल किया जाना चाहिए.
बीज और पौध की उपलब्धता : सतावर के बीज और पौधे सीमैप, लखनऊ, कृषि विश्वविद्यालयों के हर्बल गार्डन, एनवीपीजीआर, पूसा, नई दिल्ली या क्षेत्रीय प्रगतिशील किसानों या हर्बल नर्सरियों से हासिल किए जा सकते हैं.
प्रवर्धन : सतावर के पौधे तैयार करने के लिए बीज और पुरानी फसल के मुख्य तने के पास से अंकुरित नए पौधों का इस्तेमाल किया जाता है. आमतौर पर बीजों का अनुकरण 40 फीसदी से ज्यादा नहीं होता. इस तरह 1 एकड़ के लिए तकरीबन 5 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है.
बीजों को मईजून में उठी हुई क्यारियों या पौलीथिन की थैलियों में बोया जाना चाहिए. पौधे रोपने का सही समय बरसात का मौसम है.
वैसे, सिंचाई सुविधा होने पर जून में भी इस की रोपाई की जा सकती है. रोपाई 60 सैंटीमीटर की दूरी पर बनी मेंड़ों पर करनी चाहिए. पौधे से पौधे की दूरी जमीन की उर्वरता के अनुसार 45 से 60 सैंटीमीटर रखनी चाहिए.
सिंचाई और खरपतवार पर नियंत्रण : पौध रोपने के तुरंत बाद हलकी सिंचाई जरूर करें. बारिश शुरू होने के बाद सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती, बल्कि ज्यादा व लगातार बारिश होने पर पानी के निकलने का सही इंतजाम होना चाहिए.
पौध रोपने के बाद की गई सिंचाई के चलते खरपतवार तेजी से उगते हैं इसलिए रोपने के 20-25 दिन बाद एक निराई जरूरी है. बाद में खरपतवार समयसमय पर निकालते रहें. गरमियों में 10-15 दिन में और सर्दियों में एक माह पर पानी लगाना सही रहता है.
कीट और बीमारियां : सतावर की फसल में ग्राह हापर, जड़ गलन व रूटनाट निमेटोड का हमला हो सकता है. जड़ गलन के लिए पानी के निकास का सही प्रबंध करें और स्वस्थ पौध का रोपण करें.
जमीन को ट्राइकोडर्मा से भी उपचारित किया जा सकता है. ग्राह हापर के लिए खेत में सफाई रखें.
ज्यादा प्रकोप होने पर ही कीटनाशी का इस्तेमाल करें. रूटनाट निमेटोड के लिए नीम की खली व निमेटिसाइड का इस्तेमाल करना चाहिए. जड़ सड़न व निमेटोड की समस्या होने पर अगली फसल के लिए नए खेत का चयन करें.
जड़ों की खुदाई : जड़ों की खुदाई डेढ़ से 3 साल के बाद की जा सकती है. आमतौर पर रोपने के डेढ़ साल बाद जब पौधा पीला पड़ने लगे तब जड़ें खुदाई लायक हो जाती हैं. फसल को ज्यादा समय तक जमीन में रखने से उपज में बढ़वार कम हो जाती है और जड़ों में अधिक रेशे होने के कारण क्वालिटी भी प्रभावित हो जाती है.
खुदाई के समय मिट्टी ज्यादा सख्त नहीं होनी चाहिए. जड़ों को सावधानी से खोदना चाहिए. साथ ही, अगली फसल के लिए डिस्क भी अलग कर लेनी चाहिए.
खोदने के तुरंत बाद जड़ों की मिट्टी साफ कर छिलाई करने के बाद छोटेछोटे टुकड़ों में काट कर व सुखा कर बाजार में भेजना चाहिए. सूखी जड़ों को सामान्य हालत में भी काफी समय तक रखा जा सकता है.
उपज : सतावर की अच्छी फसल से तकरीबन 60-70 क्विंटल प्रति हेक्टेयर सूखी जड़ें आसानी से हासिल की जा सकती हैं.
इन का विक्रय मूल्य 1500 रुपए प्रति क्विंटल हासिल हो जाने पर 50,000 से 75,000 रुपए तक का खालिस मुनाफा लिया जा सकता है.
शुद्ध लाभ बाजार मूल्य व जड़ों की क्वालिटी से प्रभावित होता है इसलिए इस में उतारचढ़ाव होने की संभावना ज्यादा रहती है. लिहाजा, फसल को बड़े पैमाने पर उगाने से पहले बाजार का सर्वे करना जरूरी है.
जड़ों की बिक्री के लिए विभिन्न प्रदेशों में अनेक प्राइवेट कंपनियां सक्रिय हैं. उत्तर भारत में दिल्ली की खारी बावली बाजार में बड़े पैमाने पर इस की खरीदफरोख्त की जाती है.