भारत में पूरे साल समय के साथ मौसम बदलता रहता है. कभी सर्दी होती है तो कभी तेज गरमी और फिर झमाझम बारिश. इस तरह से तीनों मौसम यहां पाए जाते हैं.
गरमी आते ही लोगों को तपती धूप झुलसाने लगती है. इस दौरान इनसानों का गला सूखना लाजिमी है. इस समय सभी के दिमाग में बस एक ही खयाल आता है कि काश, कहीं से ठंडा पानी मिल जाए.
पहले के समय में आज की तरह तकनीक नहीं थी, अब तो शहरों से ले कर गांवदेहातों तक में बिजली लग गई है. इस का नतीजा यह हुआ है कि वहां भी लोगों ने ठंडे पानी के लिए फ्रिज खरीदना शुरू कर दिया. लेकिन आप जरा सोचिए, आज से 25-30 साल पहले तक लोगों के पास फ्रिज नहीं होते थे, तब भीषण गरमी में प्यास बुझाने के लिए लोग मिट्टी के घड़ों पर निर्भर रहते थे. ये घड़े बनाने का काम गांवों में कुछ लोग किया करते थे, जिन्हें कुम्हार या कुंभकार कहा जाता है.
समय गुजरा, विज्ञान ने तरक्की की और दिन ब दिन नईनई खोजें कीं. नतीजा यह हुआ कि हजारोंलाखों लोगों का पुश्तैनी रोजगार हमेशाहमेशा के लिए छिन गया. कुछ ने अपनेआप को बचाए रखा, लेकिन इस के लिए हर दिन कमाना जरूरी है, तभी उन के घरों का चूल्हा जलता है.
हमारे बुजुर्ग बताते हैं कि हमारे दौर में शादीब्याह के कई महीने पहले ही कुम्हारों को मिट्टी के बरतन बनाने के लिए कह दिया जाता था. इस में घड़े, प्याले, सुराही, तंदूर, गिलास, तसले, देगचियां वगैरह सभी कुम्हार ही बनाते थे, लेकिन अब लोगों ने सारा सामान बाहर से खरीदना शुरू कर दिया. इस वजह से कुम्हारों की रोजीरोटी छिन गई और वे लोग बेरोजगार हो कर दूसरे कामों में हाथ आजमाने लगे.
उत्तर प्रदेश के जिला फतेहपुर कसबा खैरई के रहने वाले अर्जुन कुम्हार हैं और पेशे से मिट्टी के बरतन एक अरसे से बना रहे हैं. उन्होंने बताया कि एक समय था जब समाज में किसी भी शुभ कामों में सब से पहले हमें ही बरतन बनाने के लिए कहा जाता था. हम लोग कई तरह के बरतन उन्हें बना कर देते थे. इसी से हमारे घरों का गुजारा होता था, लेकिन अब क्या बताएं, एकएक पैसे के लिए मुहताज बना दिया गया.
अब सभी के घरों में फ्रिज है. अगर किसी के यहां नहीं भी है तो वह पड़ोसी के यहां से ठंडा पानी ले कर काम चला लेते हैं. अब तो मुश्किल से गुजारा हो पा रहा है. किसी तरह की मदद भी हमें नहीं मिल पा रही है.
इन की इस हालत के पीछे फ्रिज एक वजह हो सकती है, लेकिन सिर्फ वही वजह नहीं है. मिट्टी के बरतन बनाने के लिए मिट्टी का होना बेहद जरूरी है, लेकिन बढ़ती आबादी के दबाव में शहरों से ले कर छोटेछोटे गांवों में भी रहने के लिए जमीन के लाले पड़ गए हैं. जहां लोगों के लिए झोंपड़ी बनाने के लिए एक अदद जमीन न मिल रही हो, वहां कुम्हारों को कोई बरतन बनाने के लिए अपनी जमीन क्यों देगा.
खैरई गांव के ग्राम प्रधान महमूदुल हसन उर्फ बब्बू भाई का कहना था, ‘‘देखिए, पहले के समय में कुम्हारों के लिए हर गांव में ग्राम समाज की कुछ जगह मिट्टी के लिए छोड़ी जाती थी ताकि उन का रोजगार चलता रहे, लेकिन काफी अरसे तक ग्राम समाज की जमीनों को चहेतों को पट्टे पर दिया जाने लगा. इस का नतीजा यह हुआ कि जमीन बची नहीं और कुम्हारों को तमाम परेशानियां होने लगीं.
‘‘हमारी कोशिश है कि एक बार फिर से उन के लिए जमीन का इंतजाम किया जाए और उन्हें पुश्तैनी पेशे से जोड़ा जाए.’’
मिट्टी के बरतनों का एक अलग ही मजा होता है, चाहे घड़ा हो या फिर खाना बनाने की हांड़ी, सभी अपनेआप में खाना और पानी का मजा बढ़ा देते हैं. घड़े में पानी तो ठंडा होता ही है, साथ ही उस का मजा फ्रिज के पानी से एकदम अलग होता है.
घड़े का पानी ठंडा होने पर भी नुकसान नहीं करता, जबकि फ्रिज में ऐसा नहीं होता. घड़े में पानी ठंडा करने में कोई खर्च नहीं लगता, इस में सोंधापन, मिठास के साथ तमाम मिनरल्स होते हैं. अगर घड़े में बराबर साफसफाई रखी जाए तो इस का पानी आज भी सेहत के लिए काफी फायदेमंद है.
हमारी जिंदगी में जैसेजैसे नईनई तकनीकों का इस्तेमाल बढ़ता जाता है, वैसेवैसे परंपरागत चीजें आप की जिंदगी से हमेशा के लिए दूर होती जाती हैं, फिर इतिहास बन कर आप की यादों में रह जाते हैं.
हमारी और आप की उम्र के लोगों ने बचत का पहला तरीका भी मिट्टी की गुल्लक से सीखा होगा. लेकिन मिट्टी के ये बरतन अब धीरेधीरे हमारे घरों से दूर होते जा रहे हैं, जो अब सिर्फ पुरानी कहानियों में सुनने को मिलते हैं.
मिट्टी के बरतन चलन से बाहर क्यों हो गए या इन का इस्तेमाल अब गिनती के लोग क्यों करते हैं? काफी जटिल सवाल है.
एक ऐसा भी समय था, जब गरमियों की आहट आते ही गांवों में कुम्हार के चाकों पर पहिया ज्यादातर घूमता मिलता था, लेकिन जो जितनी तेजी से पहिया घूमता था, वो अब कमोबेश हमेशा के लिए थम चुका है. कभी अपनी तेजी पर इतराने वाले चाक आज घरों के आंगन में पड़े हैं, तो कहीं भूसे की कोठरियों में समय की धूल फांक रहे हैं. वह इसलिए कि अब इन चाकों को हमेशा के लिए चाक कर दिया गया है.
अर्जुन कुम्हार बताते हैं कि चाक पर किसी भी तरह का बरतन बनाना बहुत मेहनत का काम था. मुझे यह काम विरासत में मिला है. मैं ने इसे पिताजी से सीखा है जो अपने साथ काम करवाते थे. हमारे बनाए गए घड़ों की दूरदूर तक मांग होती थी, लेकिन अब सब खत्म हो गया.
उन्होंने आगे बताया कि शादीब्याह का समय आते ही हमें खानेपीने तक की फुरसत नहीं मिलती थी, लेकिन अब तो फुरसत में ही रहते हैं. पहले काम के साथ पैसे और शुभ कामों में खाना भी मिलता था, लेकिन धीरेधीरे समाज में बढ़ते फैशन ने हमारे प्रति सभी का नजरिया बदल दिया. अब कुल्हड़ की जगह फाइबर के सस्ते गिलास बाजार में आ गए हैं. अब तो हम लोग खुद भी शादीबरात में फाइबर के गिलास और पत्तल का ही इस्तेमाल करते हैं.
महात्मा गांधी ने कुटीर उद्योग पर काफी जोर दिया था ताकि देश के हर हाथ को काम मिल सके, लेकिन आज के समय में कुटीर उद्योग तकरीबन खत्म सा हो चुके हैं. अब उन की जगह पर बड़ेबड़े कारखानों में उद्योग चल रहे हैं, जिन का सामना छोटे कुटीर उद्योग किसी भी हाल में नहीं कर सकते. इस के पीछे समाज में अमीरगरीब के बीच बढ़ती खाई भी जिम्मेदार है, जो गरीबों को और गरीब दिखाने के लिए ऐशोआराम की चीजों पर लाखों रुपए खर्च किए जा रहे हैं. इस के चलते परंपरागत काम करने वाले कम लोग ही बचे हैं. यही वजह है कि जो चाक बिजली की तेजी से चलते थे, आज उसी तेजी से बिजली ने उन की रफ्तार थाम दी है.