मानसून आते ही खरीफ का सीजन शुरू हो जाता है. इस सीजन में किसान धान, गन्ना, दलहन की फसलों के साथसाथ तिल या तिल्ली की खेती भी करते हैं. तिल सफेद और काले रंग की भी होता है. किसान अपने हिसाब से बीज को चुनते हैं.

तिल की खेती करने से किसानों को यह फायदा होता है कि उन की लागत बचती है, क्योंकि इस में सिंचाई की जरूरत नहीं होती. साथ ही, बीज की मात्रा भी काफी कम लगती है. लेकिन, जहां इस में फायदा अधिक नजर आता है, वहीं ज्यादा बारिश में फसल खराब होने का खतरा भी सताता है.

भूमि : तिल की खेती के लिए हलकी रेतीली, दोमट मिट्टी सही मानी गई है. अगर मिट्टी में अच्छी नमी है तो फसल ज्यादा बेहतर होती है.

जुताई : फसल अच्छी होने के लिए खेतों की अच्छी तरह से जुताई करें. मिट्टी भुरभुरी करने के लिए 2 जुताई हल से, एक बखरनी और एक पाटा लगाना जरूरी है, जिस से जमीन बोआई के लिए तैयार हो जाती है.

बोने की विधि : वैसे तो तिल की बोआई छिटकवां विधि से करते हैं, लेकिन इस में उन का बीज ज्यादा लगता है. कम लागत और ज्यादा उत्पादन के लिए तिल की बोआई कतारों में करनी चाहिए, जिस से खेत में खरपतवार हटाने में आसानी होती है.

तिल की बोआई 30 सैंटीमीटर कतार से कतार की दूरी और 15 सैंटीमीटर पौध से पौध की दूरी व बीज की गहराई 2 सैंटीमीटर रखी जाती है.

बोने का समय : तिल की खेती के लिए जून के आखिरी हफ्ते से ले कर जुलाई महीने के मध्य तक अच्छा माना जाता है. कुछ किसान जुलाई के आखिरी हफ्ते तक भी बोवनी करते हैं.

उन्नत बीज : किसानों को चाहिए कि वे उन्नत किस्म के बीज का ही इस्तेमाल करें. आमतौर पर देखा जाता है कि पिछले साल के बीज जो घर में रखे होते हैं, उन्हीं को बीज के तौर पर इस्तेमाल कर लिया जाता है. हालांकि ऐसा करना गलत नहीं होता, पर बीज खराब न हों.

वैज्ञानिक विधियों से उत्पादित सफेद तिल के बीज एचटी-1, एचटी-2 और टी-78 किसानों को बेहतर परिणाम दे सकते हैं. तिल की सभी किस्में अधिक उत्पादन देने वाली, कम समय में पकाव और जीवाणु व फाइलौडी रोगरोधी हैं.

इन किस्मों की बोआई 15 जुलाई तक करने से अच्छा उत्पादन हासिल किया जा सकता है. इस किस्म के बीज से अधिक पैदावार मिलती है. सरसों की बोआई से पहले ये तिल की किस्में पक कर तैयार हो जाती हैं.

दूसरी प्रजातियां : तिल की कई प्रजातियां हैं जैसे टाइप 4, टाइप 12, टाइप 13, टाइप 78, शेखर, प्रगति, तरुण, कृष्णा और बी 63.

बीज दर : बीज की कितनी मात्रा 1 एकड़ या हेक्टेयर में लगेगी, यह आप के बोवनी पर निर्भर करता है. अगर छिटकवां विधि से बोते हैं तो एक हेक्टेयर में 5 किलोग्राम बीजों की जरूरत होती है, जबकि कतारों में बोने के लिए सीड ड्रिल का प्रयोग करने से बीज दर घटा कर प्रति हेक्टेयर 4 किलोग्राम हो जाती है.

अगर एकड़ की बात करें तो यह मात्रा 1-1.20 किलोग्राम प्रति एकड़ बीज की जरूरत होती है. बोने के समय बीजों का समान रूप से वितरण करने के लिए बीज को रेत (बालू), सूखी मिट्टी या अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद के साथ 1:20 के अनुपात में मिला कर बोना चाहिए.

वहीं, मिश्रित पद्धति में तिल की बीज दर 1 किलोग्राम प्रति एकड़ से ज्यादा नहीं होनी चाहिए. कतार से कतार और पौधे से पौधे के बीच की दूरी 30×10 सैंटीमीटर रखते हुए तकरीबन 3 सैंटीमीटर की गहराई पर बोना चाहिए.

बीज का उपचार : थिरम दवा 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज एजडो स्पाइरिलम और पीएसबी कल्चर 20 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर के ही बीज को बोना चाहिए.

उर्वरक की मात्रा : तिल में 60 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस, 20 किलोग्राम पोटाश देने की जरूरत होती है. इस की जरूरत के लिए 130 किलोग्राम यूरिया, 240 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट और 32 किलोग्राम पोटाश की जरूरत होती है.

उर्वरक देने का समय : फास्फोरस, पोटाश की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी मात्रा बोने के समय, नाइट्रोजन की बाकी मात्रा बोआई के 30 दिन बाद या 45 दिन पर देनी चाहिए.

खरपतवार प्रबंधन : एलाक्लोर 10 फीसदी दानेदार 2 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर सक्रिय तत्त्व अंकुरण से पहले डालना चाहिए. उस के साथ टरगासुपर 1 लिटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव कर सकते हैं. बोआई के 20-25 दिन पर संकरी पत्ती वाले खरपतवार के लिए कर सकते हैं.

बीमारी : फसल चाहे जितनी भी अच्छी क्यों न हो, अगर उसे बीमारी और खरपतवार से नहीं बचाया गया तो आप की पूरी मेहनत खराब हो जाएगी इसलिए आप समय रहते पौधों को देखते रहें और किसी भी तरह की बीमारी के लक्षण दिखने पर उस में दवा का छिड़काव करें.

पौध अंगमारी : इस रोग के प्रभाव से पौधों पर बड़ेबड़े चकत्ते दिखाई देने लगते हैं. इस की रोकथाम के लिए एक साल का फसल चक्र अपनाएं. बोने से पहले बीजों को थाइरम दवा से उपचार करें. बीमारी देखते ही पत्तियों पर 0.25 फीसदी कौपरऔक्सीक्लोराइड या 0.25 फीसदी मेंकोजेब का छिड़काव करें.

जीवाणु अंगमारी : पत्तियों पर जल कण जैसे छोटे बिखरे हुए धब्बे धीरेधीरे बढ़ कर भूरे हो जाते हैं. यह बीमारी 4 से 6 पत्तियों की अवस्था में देखने को मिलती है.

बीमारी नजर आते ही स्ट्रेप्टोसाइक्लीन (500 पीपीएम) पत्तियों पर छिड़काव करें. इस तरह 15 दिन के अंतर पर 2 बार छिड़काव करने से रोग पर काबू पाया जा सकता है.

तना और जड़ सड़न : यह रोग किसी भी पौधे के लिए सब से खतरनाक होता है क्योंकि इस में रोग का प्रकोप होने पर पौधे सूखने लगते हैं और उस का तना ऊपर से नीचे की तरफ सड़ने लगता है. इस रोग की रोकथाम के लिए बीजोपचार जरूरी है.

चूर्णी फफूंद : जब फसल 45 से 50 दिन की हो जाती है तो पत्तियों पर सफेद चकत्ते पड़ जाते हैं. इस से पत्तियां गिरने लगती हैं.

इस रोग के नियंत्रण के लिए पत्तियों पर 0.2 घुलनशील सल्फर का छिड़काव फूल आने पर और फली बनने के समय करें.

पत्ती मोड़क और फली छेदक कीट : शुरुआती अवस्था में यह कीट कोमल पत्तियों को खाता है और बाद में फूल, फली और दाने को खाता है. इस के नियंत्रण के लिए फूल आने की अवस्था में 15 दिन के अंतराल पर मोनोक्रोटोफास 36 एसएल 750 मिलीलिटर प्रति हेक्टेयर 750 लिटर पानी में घोल कर 3 बार छिड़काव करें.

रोमिल केटरपिलर : शुरुआती अवस्था में इस कीट के लार्वा कुछ पौधों पर इकट्ठा हो कर पत्तियों को खाते हैं. इस के बाद बड़े हो कर ये कीट पूरे पौधों को खत्म कर देते हैं. इस के नियंत्रण के लिए क्विनालफास 25 ईसी 1 लिटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

फसल की कटाई और गहाई : यह ऐसा समय होता है, जब फसल खेतों में पक कर पीली पड़ने लगती है. ऐसे में फसल की कटाई खुद करना शुरू करें या फिर मजदूरों से करवा सकते हैं.

अगर समय रहते कटाई नहीं की गई तो फलियों से दाने चटक कर जमीन पर गिर जाते हैं. इस से किसानों को काफी नुकसान होता है.

कटाई करने के बाद तिल को कुछ दिन के लिए खुली जगह में अच्छी तरह से सुखा लेना चाहिए ताकि गहाई या मड़ाई करने में पूरे दाने निकल आएं. इस के बाद आप साफ बोरे या बोरी में उसे रख सकते हैं.

इस बात का खयाल रखें कि अगर उन्हें जल्दी फसल बेचनी है तो किसी भी तरह के बोरे में रख सकते हैं, लेकिन ज्यादा समय के लिए स्टोर करना हो तब उस के लिए अलग से इंतजाम करना होता है ताकि तिल में कीड़े या नमी की वजह से फफूंद न लग जाए.

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