शलजम, मूली, गाजर, अरवी, चुकंदर, शकरकंद वगैरह सब्जियां हरी पत्तेदार व जड़ वाली हैं. इन सब्जियों में विटामिन ए, एस्कार्बिक अम्ल, लोहा, कैल्शियम, फास्फोरस, पोटेशियम व अमीनो एसिड की अच्छी मात्रा पाई जाती है. इन चीजों की कमी में भारत की कुल आबादी का एक बड़ा हिस्सा खासकर औरतें व बच्चे कुपोषण के शिकार हैं.

संतुलित आहार में प्रतिदिन इनसान को 285 ग्राम हरी पत्तेदार सब्जियां लेनी चाहिए, जिस में 100 ग्राम जड़ वाली सब्जियां, 115 ग्राम पत्तेदार सब्जियां और 75 ग्राम दूसरी सब्जियां होनी चाहिए.

इन सब्जियों को खाने से कुपोषण की समस्या नहीं होगी और शारीरिक व मानसिक कमजोरी भी दूर होगी. विभिन्न प्रकार की इन सब्जियों में पेट के विकार को दूर करने के साथसाथ खाने को पचाने की ताकत भी होती है.

इन सब्जियों के उत्पादन में रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से मिट्टी की उपजाऊ ताकत कम होने से उर्वरताशक्ति के साथसाथ सब्जियों की क्वालिटी और भंडारण की कूवत प्रभावित हो रही है.

इस की वजह यह है कि इन जड़ वाली सब्जियों व दूसरी खाने की चीजों को उगाने में नाइट्रोजन का इस्तेमाल सब से ज्यादा होता है. ज्यादा नाइट्रेट उर्वरकों के इस्तेमाल होने से मिट्टी और जमीन लगातार प्रदूषित हो रही है जो मनुष्य की सेहत के लिए हानिकारक है इसलिए कार्बनिक खादों के इस्तेमाल से मिट्टी की उर्वरताशक्ति व उत्पादन के टिकाऊपन को बढ़ाया जा सकता है.

इस के अलावा कार्बनिक खादों की कीमत कम होने के अलावा उस के उत्पाद की कीमत ज्यादा मिलती है. इन के इस्तेमाल से कम लागत पर जड़ वाली सब्जियां उगाई जा सकती हैं और सब्जियों की बेहतर क्वालिटी, ज्यादा उत्पादन व जमीन की उर्वरताशक्ति को बनाए रखा जा सकता है.

जड़ वाली सब्जियों में कार्बनिक खादों को बोआई या रोपाई के 10-15 दिन पहले इस्तेमाल करना चाहिए. कार्बनिक खाद अच्छी तरह से तैयार होनी चाहिए वरना कीट व रोग लग सकता है.

कार्बनिक खेती में जैविक उर्वरकों जैसे एजोस्पाइरिलम, एजोटोबैक्टर, राइजोबियम, बायोजाइम (दानेदार व तरल), घुलनशील बनाने वाले सूक्ष्म जीव, वैस्कुलर आरवैस्कुलर कवक वगैरह को बढ़ावा दिया जाता है. इस के इस्तेमाल से क्वालिटी ज्यादा अच्छी न होने, ज्यादा उत्पादन होने के साथसाथ हानिकारक रासायनिक उर्वरकों की मात्रा में भी कटौती की जाती है.

जैविक खेती को कुदरती खेती, कार्बनिक खेती व रसायनविहीन खेती वगैरह नामों से भी जाना जाता है. इस का मकसद इस तरह से फसल उगाना है कि मिट्टी, पानी व हवा को प्रदूषित किए बगैर लंबे समय तक उत्पादन हासिल किया जा सके. इस के लिए कई जैविक स्रोतों का इस्तेमाल किया जाता है. जैसे हरी खाद या कंपोस्ट खाद, जैविक उर्वरक, दलहनी फसलों में फसल चक्र अपनाना, फसल अवशेषों का इस्तेमाल, जैविक कीटनाशक व कवकनाशी का इस्तेमाल शामिल है.

जैविक खेती के घटक

प्राथमिक स्रोत : गोबर की खाद यानी कंपोस्ट, हरी खाद, सनई, ढैंचा, लोबिया वगैरह. जैव उर्वरक राइजोबियम, एजोटोबैक्टर, एजोस्पाइरिलम, पीएसबी, बायोजाइम वगैरह. केंचुए की खाद (वर्मी कंपोस्ट), मुरगी खाद, कीड़े व रोग का जैविक नियंत्रण ट्राइकोग्रामा ट्राइकोडर्मा, एनपीवी, फेरोमोन ट्रेप, नीम उत्पाद, ट्रेप फसल वगैरह.

पूरक स्रोत : वानस्पतिक अवशिष्ट जैसे खली, पुआल, भूसा व फसल अवशेष वगैरह. जानवरों के अवशिष्ट, हड्डी का चूरा, मछली की खाद वगैरह. चीनी मिल की खाद यानी प्रेसमड वगैरह.

बरतें सावधानी

* राइजोबियम जीवाणु फसल विशिष्ट होता है, इसलिए फसल में पैकेट पर लिखी मात्रा का इस्तेमाल करें.

* जैव उर्वरक के पैकेट को धूप व गरमी से दूर किसी ठंडी जगह पर रखें.

* जैव उर्वरक या जैव उर्वरक से उपचारित बीजों को किसी भी रसायन या रासायनिक खाद के साथ न मिलाएं.

* अगर बीजों पर फफूंदनाशी का इस्तेमाल करना हो तो बीजों को पहले फफूंदनाशी से उपचारित करें, फिर जैव उर्वरक से उपचारित करें.

* जैव उर्वरक का इस्तेमाल पैकेट पर लिखी अंतिम तारीख से पहले ही कर लें.

सब्जी उत्पादन में जैविक खेती का महत्त्व

* मिट्टी में ये सालभर ढकी रहती है, जिस वजह से नुकसान कम से कम होता है.

* कम जुताई की वजह से मिट्टी सख्त नहीं हो पाती है.

* जानवरों के अवशिष्ट, फसलों के अवशेषों और दूसरी संपदाओं के चलते मिट्टी की उर्वरता बनी रहती है. मिट्टी में जैविक पदार्थों, अंशों की मात्रा बढ़ जाती है.

* फसल चक्र अपनाने से वैराइटी बढ़ जाती है.

* बेहतरीन प्रबंधन की तकनीकों को अपना कर पौधे को संतुलित पोषक तत्त्वों की आपूर्ति की जाती है, पर इतना ध्यान भी रखा जाता है कि पानी प्रदूषित न होने पाए.

* खेत में दालें और चारे की फसल लगाई जाती है.

* मित्र कीटों और सूक्ष्मजीवियों की तादाद बढ़ाने के लिए खेत के चारों तरफ उगे पौधों और दूसरी वनस्पतियों पर भी ध्यान दिया जाता है.

* मित्र कीटों की सुरक्षा, भोजन, आश्रय पर पूरा ध्यान दिया जाता है.

* वातावरण में रसायनों से होने वाले प्रदूषण में कमी आती है.

जलवायु व मिट्टी

सब्जियों का उत्पादन वैज्ञानिक ढंग से किया जाने वाला काम है. जड़ वाली सब्जियों की अच्छी फसल ठंडी व नम जलवायु में होती है. इस के बीज का अंकुरण 10-15 सैंटीमीटर जमीनी तापमान पर होता है लेकिन छोटी, जल्दी बढ़ने वाली किस्में रेतीली दोमट मिट्टी में और बड़ी पछेती किस्में दोमट, मटियारदोमट मिट्टी में अच्छी पैदावार देती हैं.

खेतों में जल निकास की सही व्यवस्था होनी चाहिए. उन्नतशील किस्मों के बीजों को ही बोएं. बीज विश्वसनीय संस्थान से ही खरीदें. बीज प्रमाणित, शुद्ध, अच्छी तरह जमने व रोगरहित होने चाहिए.

बीज खरीदते समय पैकेट पर पैकिंग तिथि जरूर देख लें. पैकेट पर लिखी आखिरी तारीख से पहले इस्तेमाल कर लें वरना फसल खराब हो सकती है या कीट व रोग का हमला हो सकता है. बोआई के लिए उन्नतशील किस्मों के बीज या संकर बीज सही होते हैं.

खेत की तैयारी

खेत की जुताई 3-4 बार कर मिट्टी को भुरभुरा व समतल बना लें. जुताई के पहले गोबर की सड़ी खाद व उर्वरकों को मिट्टी में अच्छी तरह से मिला देना चाहिए. अच्छे जल निकास वाली जीवांशयुक्त उपजाऊ दोमट जमीन जड़ वाली सब्जियों की खेती के लिए मुफीद होती है.

खेत की अच्छी तरह जुताई कर उस में गोबर की सड़ी खाद मिलानी चाहिए. पूरे खेत को छोटीछोटी क्यारियों में बांट लेना चाहिए. क्यारी 10 मीटर लंबी, 1-1.5 मीटर चौड़ी और जमीन से 15 सैंटीमीटर ऊंची होनी चाहिए, जिस से निराईगुड़ाई में परेशानी न हो और क्यारी में भी 15-20 किलोग्राम सड़ी गोबर की खाद डाल दें.

ऐसे करें बोआई

जिस खेत में इन फसलों को लगाना हो, उस की अच्छी तरह से जुताई कर मिट्टी को भुरभुरा व समतल बना लेना चाहिए. बोआई से पहले ही लाइन बना देनी चाहिए यानी अच्छी पैदावार से बोआई करनी चाहिए.

खरपतवार पर नियंत्रण

जड़ वाली सब्जियों की अच्छी फसल लेने के लिए खेत में नमी का होना जरूरी है. अगर बोते समय जमीन में नमी की कमी है तो पहली सिंचाई बोने के तुरंत बाद करें. दूसरी सिंचाई पहली सिंचाई के 15-20 दिन बाद करें. पूरी फसल में 3-4 सिंचाई करने की जरूरत होती है.

पहली निराईगुड़ाई बोआई के 20 से 25 दिन बाद करनी चाहिए ताकि जड़ों को कोई नुकसान न पहुंचे. पौधों की जड़ों पर मिट्टी भी चढ़ानी चाहिए ताकि पौधे की जड़ मिट्टी पकड़ सके.

खरपतवार नियंत्रण के लिए अंकुरण से पहले खरपतवारनाशी पेंडीमिथेलीन 1200 एमएल प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करते हैं. इस के अलावा 2 लाइनों के बीच व्हील हो का इस्तेमाल भी फायदेमंद होता है.

खाद

उत्पादन व क्वालिटी बढ़ाने के लिए 20-25 किलोग्राम बायोजाइम दानेदार और 200-250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर गोबर की सड़ी खाद खेत की तैयारी के समय इस्तेमाल करें और बायोजाइम वेजीटेबल यानी तरल की 400-500 मिलीलिटर प्रति हेक्टेयर में 3 छिड़काव 20-25 दिन के अंतराल पर करें.

जड़ वाली सब्जियों (Root Vegetables)

कीट व रोग नियंत्रण

किसान 200 ग्राम ट्राइकोडर्मा को 100 किलोग्राम सड़ी व नम गोबर की खाद या कंपोस्ट में अच्छी तरह से मिला लें और उसे 1-2 दिनों तक के लिए छाया में पौलीथिन से ढक कर रखें. इस से ट्राइकोडर्मा में मिली कंपोस्ट को फैला कर 6 इंच मोटी परत बना लें और उस पर बीज बोएं.

इस विधि से पौधे की बढ़वार भी अच्छी होती है और उस में आर्द्रगलन या पौध गलन रोग का हमला भी नहीं होता.

बोआई का समय

बोने से पहले खेत की अच्छी तरह तैयारी कर लें. खेत की तैयारी के समय मिलने वाली व्हाइट ग्रब व कट वर्म की सूंडि़यों को इकट्ठा कर नष्ट करें. बीजों को बोने से पहले ट्राइकोडर्मा की 250 ग्राम मात्रा 10 लिटर पानी में मिला कर पौधों की जड़ों को 10 मिनट के लिए घोल में उपचारित करें.

फसलों में नुकसान पहुंचाने वाली सभी मिट्टी से संबंधित बीमारियों के नियंत्रण के लिए 1-2 किलोग्राम ट्राइकोडर्मा को 500 किलोग्राम नम गोबर की खाद कंपोस्ट में अच्छी तरह मिला लें और 1-2 दिन के लिए छाया में पौलीथिन से ढक दें.

बोआई से पहले ट्राइकोडर्मा और कंपोस्ट के इस मिश्रण को एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में छिड़काव कर दें या फैला दें.

ध्यान दें कि कंपोस्ट के छिड़काव के बाद मिट्टी में समुचित नमी बनी रहे. व्हाइट बटरफ्लाई पीले रंग के अंडे समूहों में देती है. व्हाइट कैटरपिलर के प्रौढ़ भी अपने अंडे समूह में देते हैं जो भूरे रंग की रोएंदार संरचना से ढके रहते हैं.

इन कीटों की सूंडि़यां भी शुरू की अवस्था में समूह में रहती हैं इसलिए किसानों को फसल की निगरानी के समय मिलने वाले अंडों और सूंडि़यों के समूहों को पत्तियों के साथ तोड़ कर नष्ट कर दें. इस से इन कीटों का प्रकोप कम हो जाता है.

फसल की निगरानी के समय अगर काला धब्बा और काला सड़न रोग दिखाई दे तो शुरू की अवस्था में ही ऐसी पत्तियों को तोड़ कर नष्ट कर दें. इस से इन रोगों का प्रकोप कम हो जाता है.

अगर फसल में काला सड़न रोग लगने की आशंका हो तो स्ट्रेप्टोसाइक्लीन 1 ग्राम और कौपर औक्सीक्लोराइड 3 ग्राम प्रति लिटर पानी में मिला कर पौधों की जड़ों में डालें.

फसल की निगरानी के समय यदि जड़ गलन और मृदु रोमिल आसिता में से किसी भी रोग के प्रकोप से नुकसान होने का डर हो तो ट्राइकोडर्मा की 2-3 ग्राम प्रति लिटर पानी में मिला कर फसल पर या जड़ के पास छिड़काव करें. जरूरत पड़ने पर दूसरा छिड़काव 7-10 दिनों के बाद करें.

अगर माहू कीट (एफिड) का हमला हो तो क्राइसोपरला (परभक्षी कीट) को लार्वा अवस्था में बुरादे के साथ मिला कर फसलों में 50,000 प्रति हेक्टेयर की दर से 10 दिनों के अंतराल पर 2-3 बार इस्तेमाल करें.

यदि फसल निगरानी के समय लीफ वेबर, डायमंड बैक माथ, व्हाइट बटरफ्लाई, एफिड, कैबेज बोरर, कैबेज सेमीलूपर या तंबाकू की सूंड़ी में से किसी भी कीट का हमला दिखाई दे तो बेसीलम थूरिनजिएंसिस पर आधारित जैविक कीटनाशकों जैसे हाल्ट, बायोलेप वगैरह में से किसी एक का 2 ग्राम मात्रा का प्रति लिटर पानी में मिला कर छिड़काव करें.

यदि जैविक कीटनाशक के छिड़काव के बाद भी पत्ती खाने वाले कीटों और माहू में से किसी का प्रकोप हो तो जैविक कीटनाशक का दोबारा छिड़काव 10-12 दिनों बाद नीम पर आधारित कीटनाशकों जैसे निंबीसिडीन, बायोनीम वगैरह में से किसी एक का 5 मिलीलिटर पानी में मिला कर छिड़काव करें.

किसी भी प्रकाशस्रोत के नीचे चौड़े मुंह वाले किसी बरतन या टब वगैरह में मिट्टी का तेल मिला हुआ पानी रख देना चाहिए, जिस से प्रकाश की ओर आकर्षित हो कर गुबरैले यानी सड़े गोबर में लगने वाला कीड़ा जमीन पर रखे बरतन में गिर कर नष्ट हो जाएं.

रात के समय खेतों में फसल अवशेषों को जला कर भी गुबरैलों को आकर्षित किया जा सकता है. जलते हुए फसल अवशेषों को ढेर के पास भी चौड़े मुंह के बरतन में मिट्टी का तेल मिला कर पानी रखना चाहिए. इस से आग के प्रकाश की ओर आकर्षित होने वाले गुबरैले बरतन में गिर कर नष्ट हो जाएं. खेतों में पड़े पुराने ठूंठों और जड़ों को इकट्ठा कर नष्ट कर दें. इस से कीट का हमला कम हो जाता है.

इस तरह जैविक विधि से जड़ वाली सब्जियों की खेती किसानों के लिए अच्छे उत्पादन के साथसाथ मिट्टी की उत्पादकता व उर्वराशक्ति को बढ़ाने में मददगार है.

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