बाकला की खेती पूरे भारत में लंबे समय से की जाती रही है. यह मैदानी इलाकों में ठंड के मौसम में उगाई जाती है. यह इनसानों, जानवरों खासकर मुरगियों के भोजन के लिए काफी उपयोगी है.
बाकला में बीज 23-24 फीसदी, क्रूड फाइबर 6-11 फीसदी, कैल्शियम 0.14 फीसदी और फास्फोरस 0.51 फीसदी होता है. प्रोटीन से भरपूर इस की हरी फलियां सब्जी के इस्तेमाल में लाई जाती हैं.
किस्म : वीएच 82-1 है. इसे साल 1999 में हिसार ने ईजाद किया था. यह किस्म तकरीबन 15-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है. यह किस्म मध्यम अवधि में अधिकतम उपज देने वाली है. यह उत्तर भारत के लिए काफी मुफीद है.
जमीन : बाकला की खेती सभी तरह की जमीनों में की जा सकती है. इस के लिए भारी मिट्टी सब से अच्छी पाई गई है.
खेत की तैयारी : एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें व 1-2 जुताइयां देशी हल या कल्टीवेटर से खेत की बोआई के लिए तैयार कर लेनी चाहिए. लवणीय जमीन ठीक नहीं होती है.
बीज दर : बाकला की खेती में तकरीबन 100-125 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर काफी है.
बोआई का समय : अक्तूबर में बोआई करने से अधिकतम पैदावार मिलती है. लाइन से लाइन की दूरी 30 सैंटीमीटर व पौधे से पौधे की दूरी 10 सैंटीमीटर रखी जाती है.
खाद और उर्वरक : 40:40:20 नाइट्रोजन, सल्फर, पोटाश प्रति हेक्टेयर के हिसाब से इस्तेमाल करना चाहिए.
सिंचाई : दूसरी दलहनी फसलों की अपेक्षा इस फसल को सिंचाई की ज्यादा जरूरत नहीं पड़ती है इसलिए क्रांतिक अवस्था में सिंचाई जरूर करनी चाहिए.
खरपतवार नियंत्रण : चूंकि यह फसल बहुत कम इलाकों में लगाई जाती है इसलिए इस में कीटों व रोगों की कोई गंभीर समस्या नहीं है.