किसानों ने सीखी उन्नत बीज उत्पादन तकनीक

मऊ : भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद – भारतीय बीज विज्ञान संस्थान, कुशमौर, मऊ में 2 सितंबर से 6 सितंबर, 2024 तक पांचदिवसीय कृषक प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किया गया. यह कार्यक्रम कृषि प्रौद्योगिकी प्रबंध अभिकरण (ATMA), भोजपुर, बिहार द्वारा प्रायोजित था.

निदेशक डा. संजय कुमार के मार्गदर्शन में 3 सितंबर, 2024 को इस कार्यक्रम के अंतर्गत प्रधान वैज्ञानिक डा. अंजनी कुमार सिंह से किसानों ने गुणवत्तायुक्त बीज उत्पादन के सामान्य सिद्धांतों के बारे में जानकारी प्राप्त की. किसानों ने वैज्ञानिक डा. बनोथ विनेश से संकर बीज उत्पादन तकनीक के गुर सीखे.

संस्थान के क्षेत्रीय केंद्र बेंगलुरु से वैज्ञानिक डा. मंजनगौड़ा ने औनलाइन माध्यम से प्रमुख फसलों के गुणवत्तायुक्त बीज उत्पादन के लिए कृषि संबंधी पद्धतियों के बारे में किसानों को बताया. वैज्ञानिक डा. कल्याणी कुमारी ने बीज के गुणवत्ता निर्धारण के लिए प्रायोगिक तकनीकें जैसे भौतिक शुद्धता, नमी, व्यवहार्यता आदि की जानकारी दी. किसानों ने बीज प्रौद्योगिकी प्रयोगशाला में बीज गुणवत्ता निर्धारण की प्रायोगिक तकनीकें सीखीं.

वैज्ञानिक डा. आलोक कुमार ने किसानों को बीज गुणवत्ता अवलोकन, बीज प्रबंधन के विभिन्न चरणों के दौरान प्रभावित करने वाले घटक, कारक और इस के रखरखाव के बारे में बताया. संस्थान के अन्य वैज्ञानिकों के साथ किसानों ने चर्चा की और लाभान्वित हुए.

फसलों (Crops) की 109 उच्च उपज देने वाली किस्में जारी

नई दिल्ली : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नई दिल्ली स्थित भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में फसलों की 109 उच्च उपज देने वाली, जलवायु अनुकूल और जैव अनुकूल किस्मों को जारी किया.

इस अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों और वैज्ञानिकों से परस्पर बातचीत भी की. इन नई फसल किस्मों के महत्व पर चर्चा करते हुए उन्होंने कृषि में मूल्य संवर्धन के महत्व पर बल दिया. किसानों ने कहा कि ये नई किस्में अत्यधिक लाभकारी होंगी, क्योंकि इन से उन का खर्चा कम होगा और पर्यावरण पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा.

प्रधानमंत्री मोदी ने मोटे अनाजों के महत्व पर चर्चा की और इस बात को रेखांकित किया कि कैसे लोग पौष्टिक भोजन की ओर बढ़ रहे हैं. उन्होंने प्राकृतिक खेती के लाभों और जैविक खेती के प्रति आम लोगों के बढ़ते विश्वास के बारे में भी बात की.

उन्होंने कहा कि लोगों ने जैविक खाद्य पदार्थों का सेवन और मांग करना शुरू कर दिया है. किसानों ने प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए सरकार द्वारा किए गए प्रयासों की सराहना की.

किसानों ने जागरूकता पैदा करने में कृषि विज्ञान केंद्रों (केवीके) द्वारा निभाई गई भूमिका की भी सराहना की. प्रधानमंत्री ने सुझाव दिया कि केवीके को हर महीने विकसित की जा रही नई किस्मों के लाभों के बारे में किसानों को सक्रिय रूप से सूचित करना चाहिए, ताकि उन के लाभों के बारे में जागरूकता बढ़ाई जा सके.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन नई फसल किस्मों के विकास के लिए वैज्ञानिकों की भी सराहना की. वैज्ञानिकों ने बताया कि वे प्रधानमंत्री द्वारा दिए गए सुझाव के अनुरूप काम कर रहे हैं, ताकि अप्रयुक्त फसलों को मुख्यधारा में लाया जा सके.

प्रधानमंत्री मोदी द्वारा जारी की गई 61 फसलों की 109 किस्मों में 34 प्रक्षेत्र फसलें और 27 बागबानी फसलें शामिल हैं. प्रक्षेत्र फसलों में मोटे अनाज, चारा फसलें, तिलहन, दलहन, गन्ना, कपास, रेशा और अन्य संभावित फसलों सहित विभिन्न अनाजों के बीज जारी किए गए. बागबानी फसलों में फलों, सब्जियों, रोपण फसलों, कंद फसलों, मसालों, फूलों और औषधीय फसलों की विभिन्न किस्में जारी की गईं.

फसलों (Crops)

69 फसलों की इन 109 किस्मों में 69 फील्ड फसलें और 40 बागबानी फसलें शामिल हैं :

खेत फसलें (69)

अनाज (23 किस्‍में): चावल-9, गेहूं-2, जौ 1, मक्‍का-6, सोरगम-1, बाजरा-1, रागी-1, चीना-1, सावां-1.
दलहन (11 किस्‍में): चना-2, अरहर- 2, मसूर-3, मटर- 1, फबाबीन-1, मूंग -2.
तिलहन (7 किस्‍में): कुसुम- 2, सोयाबीन- 2, मूंगफली- 2, तिल- 1.
चारा फसलें (7 किस्‍में): चार

किसानों को मिले उन की भाषा में जानकारी

साल 1967 में देश में पड़े भीषण अकाल में बड़ी मात्रा में खाद्यान्न आयात करना पड़ा था. इस वजह से सरकार द्वारा कृषि क्षेत्र में अनुसंधान के काम पर जोर दिया गया. इस से एक तरफ सिंचित जमीन का क्षेत्रफल बढ़ने लगा, तो वहीं दूसरी तरफ कृषि क्षेत्र में विविधता लाने की कोशिश की जाने लगी.

इस काम को संगठित रूप देने के लिए साल 1929 में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का गठन हुआ. केंद्र सरकार से जुड़े सभी संस्थानों को इस के तहत लाया गया. धीरेधीरे खाद्यान्न, फलसब्जी के साथ ही जानवरों के लिए भी अनुसंधान संस्थान खोले गए. लगातार अनुसंधान द्वारा खाद्यान्नों, फलों, सब्जियों की नई उपजाऊ किस्मों का विकास हुआ.

किसी काम को संगठित रूप देने से अधिक पैसा बनाने में कामयाबी मिली. परिषद की अगुआई में देश में हरित क्रांति आई. देश में खाद्यान्नों का रिकौर्ड उत्पादन शुरू हो गया, तेज गति से बढ़ती आबादी के बावजूद भी न सिर्फ खाद्यान्न, फलसब्जी के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता आई, बल्कि कुछ उत्पादों के निर्यात में भी हमें कामयाबी मिली.

इस समय देश की आबादी 135 करोड़ के पार हो चुकी है. इतनी विशाल आबादी को भी भोजन के लिए खाद्यान्न उपलब्ध है. ऐसी हालत तब है, जब खेती की जमीन धीरेधीरे घटती जा रही है.

शहरों का क्षेत्रफल आजादी के समय 7 फीसदी से बढ़ कर 35 फीसदी हो गया है. यह वृद्धि क्षेत्र में व्यापक काम के चलते हुई है.

देश में किसानों का अनुसंधान संस्थानों से सीधा जुड़ाव हुआ है. इन संस्थानों के वैज्ञानिक नियमित अंतराल पर इलाके और गांवों का दौरा करते रहते हैं और किसानों से रूबरू हो कर उन को तकनीकी जानकारी देते हैं.

इस तरह के अनुसंधान और प्रसार के काम में भाषा की अहम भूमिका होती है. तकरीबन 200 सालों के ब्रिटिश राज के होने की वजह से भाषा के रूप में अंगरेजी का बोलबाला देश के सभी क्षेत्रों में अभी तक गहराई से बना हुआ है. शिक्षा विशेष रूप से कृषि शिक्षा व अनुसंधान के क्षेत्र में आज भी अंगरेजी महत्त्वपूर्ण भाषा बनी हुई है.

अनुसंधान के काम और लेखनी में लगभग अंगरेजी का ही प्रयोग हो रहा है, जिस का साहित्यिक महत्त्व है, पर इस की जांच खेत में और किसानों के बीच में होती है.

ऐसी स्थिति में भारतीय भाषाएं खासकर मान्याताप्राप्त भाषाओं का महत्त्व काफी बढ़ जाता है. अगर इन भाषाओं के जरीए बातचीत नहीं की जाएगी, तो किसानों को जो फायदा होना चाहिए, वह नहीं मिल सकेगा. यदि उन की भाषा में किसानों को जानकारी दी जाती है, तो वे अच्छी तरह से सम झ सकेंगे और तकनीक अपनाने में भी उन को कोई हिचक नहीं होगी.

भारतीय संविधान की 8वीं अनुसूची में मान्यताप्राप्त भाषाओं की संख्या 22 है. हिंदी देश के तकरीबन 57 फीसदी भूभाग में बोली व सम झी जाने वाली भाषा है.

भारत में हिंदीभाषी राज्यों का निर्धारण भाषा के आधार पर हुआ है और उन सभी राज्यों में राज सरकार के काम स्थानीय भाषा में ही होते हैं. इन सभी मान्यताप्राप्त भाषाओं का अपनाअपना प्रभाव क्षेत्र में है और इस में साहित्य का काम भी लगातार हो रहा है. इन में से ज्यादातर भाषाओं के अपने शब्दकोश हैं और फिल्में भी बनाई जा रही हैं, खासतौर पर तमिल, बंगला, मलयालम, मराठी व तेलुगु फिल्म उद्योग अपनेअपने क्षेत्र में बहुत ही लोकप्रिय है.

इस के अलावा उडि़या, असमी, पंजाबी भोजपुरी, नागपुरी वगैरह भाषाओं में भी फिल्में लगातार बन रही हैं और पसंद भी की जा रही हैं.

ऐसी हालत में कृषि अनुसंधान को स्थानीय भाषा से जोड़ना समय की जरूरत है, ताकि हम अपनी उपलब्धियों को किसानों तक आसानी से पहुंचा सकें. हालांकि मान्यताप्राप्त भाषाओं में कुछ भाषाएं ऐसी हैं, जिन का प्रभाव क्षेत्र बहुत ही सिमटा हुआ है, लेकिन ज्यादातर भाषाएं बड़े क्षेत्रों में फैली हैं और कार्यालय के काम से ले कर दिनभर के काम तक निरंतर प्रयोग की जा रही हैं.

अगर हमें अनुसंधान की उपलब्धियों से किसानों को जोड़ना है तो यह जरूरी है कि अपनी बातों को उन की भाषा और बोली में उन तक पहुंचाया जाए, यह बहुत कठिन नहीं है.

देश में सब से पहले हिंदी का नाम आता है और कृषि से जुड़े साहित्य भी हिंदी में लगातार तैयार हो रहे हैं. भारतीय किसान संघ परिषद के ज्यादातर संस्थानों में प्रशिक्षण सामग्री और संबंधित फसल से जुड़ी अनुसंधान संबंधी उपलब्धियां हिंदी में ही मौजूद हैं. इसे और भी बढ़ावा देने की जरूरत है. हमेशा यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि प्रस्तुतीकरण और भी सुगम भाषा में हो.

परिषद के सभी संस्थानों में राजभाषा प्रकोष्ठ की मदद से भी काम किया जा रहा है. हिंदी भाषी वैज्ञानिक शोध भी सराहनीय योगदान दे रहे हैं. इस के बावजूद हिंदी में छपने वाले शोध साहित्य कम हैं.

कुछ वैज्ञानिक संगठनों, संस्थानों द्वारा हिंदी में शोध पत्रिकाएं छप रही हैं और कुछ एक और काम करने के लिए लगातार संघर्षरत हैं और आगे बढ़ रही हैं.

इस क्षेत्र में प्रगति संतोषजनक है, पर हिंदी के प्रभाव क्षेत्र को देखने के बाद यह काफी कम प्रतीत होता है. इस के लिए कृषि वैज्ञानिकों को पहल करनी होगी. उन्हें मौलिक अनुसंधान में हिंदी व भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देना होगा, तभी किसान उस का फायदा उठा सकेंगे.

इसी तरह कई अन्य मान्यताप्राप्त भारतीय भाषाएं ऐसी हैं, जिन का प्रभाव अपने क्षेत्र में तो बड़ा है ही, साथ ही, वे अपने क्षेत्र में लोगों की जिंदगी से सांस्कृतिक व भावनात्मक रूप से बहुत गहराई से जुड़ी हैं. जिस तरह से हिंदीभाषियों के पास हिंदी में अनुसंधान संबंधी किसी सामग्री के साथ अपनी बातें पहुंचाई जा सकती हैं, वैसे दूसरी भारतीय भाषाओं में भी धान की उपलब्धियों को रूपांतरित कर उसी प्रभाव क्षेत्र तक पहुंचाया जा सकता है.

कृषि अनुसंधान के क्षेत्र में भी व्यापक रूप से अंगरेजी का ही प्रयोग हो रहा है, पर प्रशासन का मकसद किसान हैं और किसानों की आबादी कई गुना ज्यादा है. वे गंवई इलाके में रहते हैं. इसलिए कृषि अनुसंधान संगठनों को इसे गंभीरता से लेने की जरूरत है. अगर मौलिक रूप से इन भाषाओं के काम करने में थोड़ी कठिनाई हो, तो अनुवाद एक बेहतर साधन है. इस के द्वारा हम उन भाषाओं में बेहतरीन साहित्य तैयार कर सकते हैं, जिन का फायदा किसानों को मिले.

कृषि वैज्ञानिकों को चाहिए कि वे हिंदी भाषा के साथ सकारात्मक सोच से काम करें, जिस से हिंदी में साहित्य को आगे बढ़ने का मौका तो मिलेगा ही और अपनी बात को किसानों तक आसानी से पहुंचाया जा सकेगा. इस से प्रदेश व देश की उत्पादकता में काफी अंतर देखने को मिलेगा.

हमारा मानना है कि हिंदी साहित्य अभी भी किसानों के अंदर बहुत अच्छी पैठ बनाए हुए है, इसलिए वैज्ञानिकों को अपनी करनी और कथनी में अंतर करना होगा. किसानों तक आसान भाषा में साहित्य को पहुंचाने के लिए अपना समर्थन करना होगा. इस के लिए जरूरत केवल सामाजिक क्रांति के साथसाथ वैज्ञानिकों को वैचारिक क्रांति में बदलाव लाने की है. यदि हम अपनी वैचारिक क्रांति में बदलाव लाएंगे, तो हिंदी साहित्य को आसानी से किसानों में लोकप्रिय बना सकेंगे.

किसान बदलाव को गले लगाएं, टैक्नोलौजी अपनाएं

जोधपुर/भोपाल/नई दिल्ली : 6 अक्तूबर, 2023. उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के अंतर्गत आने वाले केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान (काजरी), जोधपुर में किसानों व वैज्ञानिकों से संवाद किया. केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर कार्यक्रम से वर्चुअल जुड़े, वहीं उपराष्ट्रपति की पत्नी डा. सुदेश धनखड़, केंद्रीय जल शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत, कृषि राज्य मंत्री कैलाश चौधरी व सांसद राजेंद्र गेहलोत विशेष रूप से उपस्थित थे.

इस अवसर पर उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कहा कि किसानों के बिना देश में बदलाव संभव नहीं है. वे अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं, बदलाव किसानों को लाना है और उस के अनुरूप बदलना भी है.

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कहा कि कृषि उत्पाद आज सब से बड़ा व्यापार है. उन्होंने आह्वान किया कि युवाओं को कृषि व्यापार में लगाया जाए, जो किसानों का एरिया है, लेकिन इस पर उन का ध्यान केंद्रित नहीं हुआ. आज कई उच्च शिक्षित युवा उन कृषि उत्पादों का व्यापार कर रहे हैं, जो किसानों की कड़ी मेहनत से उपजते हैं. किसानों द्वारा कृषि उत्पादों के व्यापार को अपने दायरे में लेने पर बहुत बड़ा बदलाव आएगा.

उन्होंने आगे यह भी कहा कि किसान परिवारों के लिए जरूरी है, वह है एक आर्थिक कारिडोर- भारत, मिडिल र्ईस्ट और यूरोप. हजारों साल पहले यह कारिडोर था, जिस की दोबारा शुरुआत हो रही है. किसान बदलाव को गले लगाएं, टैक्नोलौजी अपनाएं. किसान अपने उत्पादों को सीधे न दे कर उस में कुछ न कुछ वैल्यू एडिशन करें, तो इस से क्रांतिकारी बदलाव आएगा. यह आसान है, संभव भी है, क्योंकि सरकार की नीतियां सकारात्मक हैं व दूरगामी परिणाम देने वाली हैं. इस से किसानों की आर्थिक स्थिति काफी बेहतर होगी. निर्यात के लिए भी किसानों के बेटेबेटियां आगे आएं, क्योंकि वे ही इसे पैदा करते हैं. दूर की सोच कर अपनी भागीदारी निभाएं. कृषि के साथ कृषि व्यापार एवं कृषि निर्यात भी किसानों द्वारा करने से बड़ा अवसर कोई हो नहीं सकता.

किसानों की कड़ी मेहनत के कारण आज शुष्क क्षेत्र में भी अनार, खजूर, अंजीर, जीरा जैसे उत्पाद उगाए जा रहे हैं, जिस का और ज्यादा फायदा किसानों को स्वयं व्यापार व निर्यात करने से मिलेगा.

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उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने अपने स्तर पर किसानों के लिए हर सकारात्मक सहयोग का भरोसा दिलाया. उन्होंने कहा कि वर्ष 2047 तक देश को विकसित बनाने में हमारे किसानों का बहुत बड़ा योगदान होगा.

कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा कि कृषि क्षेत्र हमारे देश के लिए आज बहुत महत्वपूर्ण है. यह कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी कि जैसे जल ही जीवन है, वैसे कृषि ही जीवन है.

उन्होंने आगे कहा कि काजरी संस्थान के कार्यों को देख कर गौरव का अनुभव होता है, जहां के वैज्ञानिकों ने इस पूरे रेतीले इलाके में कृषि क्षेत्र में खास काम किया है, वहीं आईसीएआर के वैज्ञानिकों ने खाद्यान्न, बागबानी, पशुपालन व मत्स्यपालन की दृष्टि से जो बेहतर काम किया है, उस के कारण हमारा देश आज अग्रणी अवस्था में खड़ा हुआ है.

कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा कि आज हमारे सामने चुनौतियां भी हैं कि खेती में लागत कैसे कम करें, इस के लिए टैक्नोलौजी का उपयोग करें एवं स्वाइल हेल्थ कार्ड का उपयोग किसानों की आदत में आएं. सामूहिक रूप से पोषक तत्व, कीट प्रबंधन आदि से खेती की लागत कम होगी एवं फसलों की गुणवत्ता भी बढ़ेगी.

कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने बताया कि जैविक व प्राकृतिक खेती वर्तमान समय की आवश्यकता बनती जा रही है, जिसे बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार ने अनेक उपाय किए हैं, योजनाएं बनाई हैं, जिन्हें हमारे किसानों को अपनाना चाहिए और इस खेती को प्रोत्साहित करना चाहिए.

उन्होंने आगे यह भी कहा कि राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में मिलेट्स (श्री अन्न) की खेती हो रही है. श्री अन्न का उपयोग बढ़े, इस के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरी दुनिया को एक सूत्र में पिरोया है, जैसेजैसे इस का उपभोग बढ़ेगा, तो मांग वृद्धि के साथ छोटे किसानों की उपयोगिता व इन की आय भी बढ़ेगी. इस दिशा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आह्वान असरकारक हो रहा है, पूरी दूनिया के देश मिलेट्स मांग रहे हैं, जिस के लिए हिंदुस्तान के किसानों को उत्पादन भी बढ़ाना पड़ेगा, उन्हें इस दिशा में प्रवृत्त होना पड़ेगा.

कार्यक्रम में केंद्रीय जल शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत व कृषि राज्य मंत्री कैलाश चौधरी ने भी संबोधित किया. काजरी के निदेशक डा. ओपी यादव ने संस्थान की गतिविधियों एवं उपलब्धियों के बारे में जानकारी देते हुए स्वागत भाषण दिया. कार्यक्रम में कृषि प्रौद्योगिकी अनुप्रयोग अनुसंधान संस्थान (अटारी), जोधपुर के निदेशक डा. जेएस मिश्रा, जनप्रतिनिधि और क्षेत्र के किसान, वैज्ञानिक व अधिकारी उपस्थित थे