गाजर (Carrots) में होने वाली बीमारियां

गाजर जड़ वाली फसल है और यह खरीफ मौसम में उगाई जाने वाली फसल है. गाजर से सब्जी, अचार व अनेक पकवान बनाए जाते है. यह सेहत के लिए काफी लाभकारी है. गाजर की फसल में भी कई तरह की बीमारियों का प्रकोप होता रहता?है, जिन की वजह से किसानों को काफी नुकसान उठाना पड़ता है. यहां ऐसी ही बीमारियों की जानकारी दी जा रही है.

जड़ों की बीमारियां

जड़ों में दरारें पड़ना : गाजर की खेती वाले इलाकों में ये दरारें ज्यादा सिंचाई के बाद अधिक मात्रा में नाइट्रोजनयुक्त उर्वरकों का इस्तेमाल करने से पड़ती हैं, लिहाजा इन उर्वरकों का इस्तेमाल सोचसमझ कर करना चाहिए.

जड़ों में खाली निशान पड़ना : जड़ों में घाव की तरह आयताकार धंसे हुए धब्बे दिखाई पड़ते हैं, जो धीरेधीरे बढ़ने लगते हैं. इसलिए जरूरत से ज्यादा सिंचाई नहीं करनी चाहिए.

अन्य बीमारियां

आर्द्र विगलन रोग : यह रोग पिथियम स्पीसीज नामक फफूंदी से होता है. इस रोग से बीज अंकुरित होते ही पौधे मुरझा जाते हैं. अकसर अंकुर बाहर नहीं निकलता और बीज सड़ जाता है.

तने का निचला हिस्सा जो जमीन की सतह से लगा होता है, सड़ जाता है. पौधे का अचानक सड़ना व गिरना आर्द्र विगलन का पहला लक्षण है. इस रोग की रोकथाम के लिए बीजों को बोने से पहले 3 ग्राम कार्बेंडाजिम से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए.

जीवाणुज मृदु विगलन रोग : यह रोग इर्वीनिया कैरोटोवोरा नामक जीवाणु से फैलता है, इस रोग का असर खासकर गूदेदार जड़ों पर होता है. जिस से इस की जड़ें सड़ने लगती हैं. ऐसी जमीन जिस में जल निकासी की सही व्यवस्था नहीं होती या निचले क्षेत्र में बोई गई फसल पर यह रोग ज्यादा लगता है. इस रोग की रोकथाम के लिए खेत के पानी की निकासी की सही व्यवस्था करें. रोग के लक्षण दिखाई देने पर नाइट्रोजनधारी उर्वरकों का छिड़काव न करें.

कैरेट यलोज : यह एक विषाणुजनित रोग है, जिस के कारण पत्तियों का बीच का हिस्सा चितकबरा हो जाता है और पुरानी पत्तियां पीली पड़ कर मुड़ जाती हैं. जड़ें आकार में छोटी रह जाती हैं और उन का स्वाद कड़वा हो जाता है. इस रोग की रोकथाम के लिए 0.02 फीसदी मैलाथियान का छिड़काव करना चाहिए, ताकि इस रोग को फैलाने वाले कीडे़ मर जाएं.

सर्कोस्पोरा पर्ण अंगमारी : इस रोग के लक्षण पत्तियों, तनों व फूल वाले भागों पर दिखाई पड़ते हैं. रोगी पत्तियां मुड़ जाती हैं. पत्तियों की सतह व तनों पर बने दागों का आकार अर्धगोलाकार और धूसर, भूरा या काला होता है.

फूल वाले हिस्से बीज बनने से पहले ही सिकुड़ कर बरबाद हो जाते हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए बीज बोते समय थायरम कवकनाशी का उपचार करें. खड़ी फसल में रोग के लक्षण दिखाई देते ही मैंकोजेब 25 किलोग्राम, कापर आक्सीक्लोराइड 3 किलोग्राम या क्लोरोथैलोनिल 2 किलोग्राम का 1000 लीटर पानी में घोल बना कर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़काव करें.

स्क्लेरोटीनिया विगलन : पत्तियों, तनों और डंठलों पर सूखे धब्बे होते हैं. रोगी पत्तियां पीली हो कर झड़ जाती हैं. कभीकभी पूरा पौधा ही सूख कर बरबाद हो जाता है. फलों पर रोग का लक्षण पहले सूखे दाग के रूप में दिखता है, फिर कवक गूदे में तेजी से बढ़ती है और फल को सड़ा देती है.

इस रोग की रोकथाम के लिए फसल लगाने से पहले ही खेत में थायरम 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से मिलाना चाहिए. कार्बेंडाजिम 50 डब्ल्यूपी कवकनाशी की 1 किलोग्राम मात्रा का 1000 लीटर पानी में घोल बनाएं और प्रति हेक्टेयर की दर से 15-20 दिनों के भीतर 3-4 बार छिड़काव करें.

चूर्ण रोग : पौधे के सभी हिस्सों पर सफेद हलके रंग का चूर्ण आ जाता है. चूर्ण के लक्षण आने से पहले ही कैराथेन 50 मिलीलीटर प्रति 100 लीटर पानी या वैटेबल सल्फर 200 ग्राम प्रति 100 लीटर पानी का छिड़काव 10 से 25 दिनों के अंतर पर लक्षण दिखने से पहले करें.

सूत्रकृमि की रोकथाम : सूत्रकृमि सूक्ष्म कृमि के समान जीव है, जो पतले धागे की तरह होते हैं, जिन्हें सूक्ष्मदर्शी से देखा जा सकता है. इन का शरीर लंबा व बेलनाकार होता है. मादा सूत्रकृमि गोल व नर सांप की तरह होते हैं. इन की लंबाई 0.2 से 10 मिलीमीटर तक हो सकती है. ये खासतौर से मिट्टी या पौधे के ऊतकों में रहते हैं. इन का फसलों पर प्रभाव ज्यादा देखा गया है. ये पौधे की जड़ों को नुकसान पहुंचाते हैं, जिस से जड़ों की गांठें फूल जाती हैं और उन की पानी व पोषक तत्त्व लेने की कूवत घट जाती है. इन के असर से पौधे आकार में बौने, पत्तियां पीली हो कर मुरझाने लगती हैं और फसल की पैदावार कम हो जाती है.

रोकथाम : रोकथाम की कई विधियों में से किसी एक विधि से सूत्रकृमियों की पूरी तरह रोकथाम नहीं की जा सकती. इसलिए 2 या 2 से ज्यादा विधियों से सूत्रकृमियों की रोकथाम की जाती है. ये विधियां?हैं :

* गरमियों में गहरी जुताई करनी चाहिए.

* नर्सरी लगाने में पहले बीजों को कार्बोफ्यूरान व फोरेट से उपचारित करना चाहिए.

* फसल लगाने से 20-25 दिनों पहले कार्बनिक खाद को मिट्टी में मिलाना चाहिए.

* रोग प्रतिरोधी जातियों का चयन करें.

* अंत में यदि इन सब से रोकथाम न हो, तब रसायनों का इस्तेमाल करें.

रासायनिक इलाज

कार्बोफ्यूरान व फोरेट 2 किलोग्राम सक्रिय तत्त्व प्रति हेक्टेयर जमीन में मिलाएं या 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज दर से जरूरत के मुताबिक करें. कुछ दानेदार रसायन जैसे एल्डीकार्ब (टेमिक) को 11 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी में मिलाना चाहिए.

खुदाई : गाजर की खुदाई का समय आमतौर पर उस की किस्म पर निर्भर करता है, वैसे जब गाजर की जड़ों के ऊपरी सिरे ढाई से साढे़ 3 सेंटीमीटर व्यास के हो जाएं, तब खुदाई कर लेनी चाहिए.

पैदावार : गाजर की पैदावार कई बातों पर निर्भर करती है, जिन में जमीन की उर्वराशक्ति, उगाई जाने वाली किस्म, बोने की विधि और फसल की देखभाल पर निर्भर करती है, लेकिन बीज उगाने के लिए गाजर के बीजों को घना बोते हैं, ताकि गाजर में 90 से 100 दिन बाद रोपाई के लिए जडें तैयार हो सकें.

तैयार जड़ों को हम खेत से निकाल लेते हैं और पौधों को बढ़ने के लिए छोड़ दिया जाता है, गाजर की उपज में कमी न आए, इस के लिए 30 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से हलकी सिंचाई के बाद इस्तेमाल करना ठीक रहता है. आमतौर पर प्रति हेक्टेयर 200 क्विंटल तक औसतन उपज मिल जाती है.

सब्जियों की खेती में जड़गांठ रोग (Root Knot disease) से बचाव

पौध सूत्रकृमि, जड़गांठ अथवा निमेटोड बहुत महीन सांप जैसा जीव है. इन्हें नंगी आंखों से नहीं देखा जा सकता. ये अधिकतर मिट्टी में रह कर जड़ों को नुकसान पहुंचाते हैं. इन के मुंह में एक सूई के आकार का अंग स्टाइलेट होता है, जिस की मदद से ये पौधों की जड़ों का रस चूसते हैं. इस वजह से पौधे जमीन से खादपानी पूरी मात्रा में नहीं ले पाते हैं और इन की बढ़वार रुक जाती है.

सब्जियों पर जड़गांठ यानी निमेटोड का हमला कुछ ज्यादा ही देखा गया है. सब्जियों में यह एक खास किस्म की बीमारी पैदा कर देते हैं. इस बीमारी के कारण पौधों की जड़ों में गांठें बन जाती हैं. निमेटोड द्वारा किया गया नुकसान इन की तादाद पर निर्भर करता है.

भारत में सब्जियों की औसतन पैदावार में इस निमेटोड हमले से तकरीबन 10-15 फीसदी का नुकसान होता है. खेत में निमेटोड के पहले से मौजूद होने के कारण फसल में जब जड़ों की बढ़वार होने लगती है, तब ये जड़ों में घुस कर जड़ों को गांठों में बदल देते हैं.

सब्जियों में जड़गांठ यानी निमेटोड की 2 प्रजातियां मिलाइडोगाइनी जावनिका व मिलाइडोगाइनी इनकोगनीटा खासतौर से पाई जाती हैं. जड़गांठ गरमी और खरीफ मौसम में ज्यादा सक्रिय रहता है और उगाई जाने वाली फसलों को ज्यादा नुकसान पहुंचाता है.

निमेटोड दूसरे रोगाणुओं, जीवाणुओं, फफूंद, विषाणुओं द्वारा किए जाने वाले नुकसान को और ज्यादा बढ़ा देते हैं. सब्जियों की अच्छी पैदावार लेने के लिए इन की पहचान और रोकथाम करना बहुत जरूरी है.

जीवनचक्र अपनाएं

जड़गांठ यानी निमेटोड की एक मादा निमेटोड 250-400 अंडे देती है. जड़गांठ से लार्वा बच्चे निकल कर पौधों की जड़ों में घुस जाते हैं. ये वहीं पर खाते और बढ़ते रहते हैं. इस के नर सांप के आकार व मादा सुराही के आकार की होती है. इस की मादा नर के बिना ही बच्चा पैदा करने की कूवत रखती है.

यह एक पीढ़ी 20-30 दिनों में अपना जीवनचक्र पूरा कर लेती है. इस तरह इस की एक फसल में कई पीढि़यां बन जाती हैं. कम तापमान यानी सर्दियों में इस की गतिविधियां कम होने से नुकसान भी कम हो जाता है.

फैलाव : सब्जियों में जड़गांठ यानी निमेटोड उन सभी भागों में पाया जाता है, जहांजहां सब्जियों की पैदावार होती है. ये सभी प्रकार की खास सब्जियों, जिन में टमाटर, बैगन, मिर्च, भिंडी, घीया, तुरई, करेला, खीरा, गाजर वगैरह में खासतौर से नुकसान करता है.

जड़गांठ रोग (Root Knot disease)

जड़गांठ रोग की पहचान व लक्षण : जड़गांठ की समस्या ज्यादातर रेतीली मिट्टी में देखने को मिलती है.

पौधों के ऊपरी भाग में निमेटोडजनित लक्षण हमेशा पोषक तत्त्वों की कमी के लक्षणों जैसे ही दिखाई देते हैं. इस की वजह से निमेटोड हमेशा अनदेखे रह जाते हैं.

जिन खेतों में निमेटोड पहले से मौजूद होते हैं, उन खेतों में कहींकहीं पर पौधे पीले पड़ कर धीरेधीरे सूखने लगते हैं.

पौधों को जमीन से पोषक तत्त्वों के लेने की कूवत कम हो जाती है, जड़ों में गांठें बन जाती हैं, निमेटोड से ग्रसित पौधों में फुटाव व बढ़वार कम होती है. पत्तियों का आकार छोटा रह कर सिकुड़ जाता है.

टमाटर, बैगन, भिंडी और मिर्च में जड़गांठ का बहुत ज्यादा प्रकोप होता है जो नर्सरी से ही शुरू हो जाता है, रोगी पौधे पीले पड़ जाते हैं और उन की बढ़वार रुक जाती है. पौधों को उखाड़ कर देखने से इन की जड़ों में गांठें साफ नजर आती हैं. इस रोग को आसानी से पहचाना जा सकता है.

शुरुआत में गांठें छोटी होती हैं, लेकिन बाद में बड़ी हो जाती हैं. बेल वाली सब्जियों पर गांठों का आकार बहुत बड़ा हो जाता है.

निमेटोड द्वारा बनाई हुई गांठें दाल वाली सब्जियों जैसे कि सेम, मटर आदि पर राइजोबियम जीवाणुओं द्वारा बनाई जाने वाली गांठों से अलग होती हैं.

जीवाणुओं द्वारा बनाई गई गांठें फायदेमंद होती हैं और ये जड़ों में अलग से लगी दिखाई देती हैं जबकि निमेटोड की गांठें जड़ के फूलने से बनती हैं.

निमेटोड के प्रकोप से मिट्टी में मौजूद दूसरे रोगाणु फफूंद, जीवाणु आदि भी जड़ों पर हमला कर देते हैं. इस से जड़ें गल जाती हैं और पौधे सूख जाते हैं या फूल कम लगते हैं. इस वजह से पैदावार में भी भारी कमी आ जाती है.

रोकथाम के तरीके

* गरमी के दिनों में यानी मईजून में 2-3 गहरी जुताई करें. फसलों को बदल कर या बोआई का समय बदल कर बोने से इस के संक्रमण को कम किया जा सकता है.

* फसलों के बचे हुए अवशेष को जला कर नष्ट करने से इन की तादाद को कम किया जा सकता है.

* प्याज, लहसुन वगैरह को मुख्य फसल के बीच में बोने से इस के प्रकोप को काफी हद तक कम किया जा सकता है.

* रोगग्रस्त खेतों में लगातार निमेटोड की असर वाली फसलें न ले कर बिना पोषक फसलों का फसलचक्र अपनाएं जैसे ग्वार, प्याज, लहसुन, सरसों, गेहूं वगैरह.

अवरोधी प्रजातियां उगाएं

* मूल गांठ अवरोधी प्रजातियां बोने से होने वाले नुकसान से बचा जा सकता है.

* टमाटर पंजाब एनआर 07, हिसार ललित, बनारस जैंट प्रजातियां उगा कर कुछ हद तक इस का असर कम किया जा सकता है.

* बैगन माइजर हरा, विजय संकरण, ब्लैक ब्यूटी, पूसा पर्पल लोंग.

* भिंडी लोंग ग्रिन स्मूथ, आईसी 9273, आईसी 18960 वगैरह.

* मिर्च पूसा ज्वाला, कैप 63, ज्वाला, लोबिया सी, 152 तंबाकू एनसी 45.

कैमिकल का इस्तेमाल

* जमीन का उपचार डाइजिन, डाइसल्फूटोन और फेनसल्फोसियान फायदेमंद पाया गया है.

* कार्बोफूरो 3 जी एक किलोग्राम खेत में पौध लगाने से पहले बिखेर कर निमेटोड नियंत्रण में फायदेमंद पाया गया है और उपज भी 38-39 फीसदी ज्यादा मिलती है.

* पौध वाली फसलों की नर्सरी को कार्बोफ्यूरोन 3 जी 3 ग्राम या 0.3 ग्राम प्रति लिटर से उपचारित करना चाहिए.

* सीधे खेत में बोने वाली फसलों जैसे भिंडी, कद्दू, लोबिया के बीजों को कार्बोफ्यूरोन 2-3 ग्राम प्रति किलोग्राम से उपचारित करना चाहिए.

* बैगन व टमाटर की पौध को 0.1 फीसदी इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल या 0.05 फीसदी ट्राइजोफास के घोल में जड़ों को खेत में लगाने से 6 घंटे पहले भिगो लेना चाहिए.

* खेत में सही मात्रा में लैविक करंज, महुआ और नीम की खली 2.5 टन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से डालना फायदेमंद पाया गया है.

जैविक नियंत्रण अपनाएं

* फंगस पेसीलोकमाइसस लिलासीनस और जीवाणु पस्टुरिया पनीटरंस मूल गांठ का खास जैविक नियंत्रण है.

गेहूं फसल में निमेटोड: पहचान और बचाव

निमेटोड बहुत ही छोटे आकार के सांप जैसे जीव होते हैं, जिन्हें नंगी आंखों से नहीं देखा जा सकता. ये माइक्रोस्कोप से ही दिखाई देते हैं. ये अधिकतर मिट्टी में रह कर पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं. इन के मुंह में एक सुईनुमा अंग स्टाइलेट होता है. इस की सहायता से ये पौधों की जड़ों का रस चूसते हैं, जिस के कारण पौधे भूमि से खादपानी पूरी मात्रा में नहीं ले पाते. इस से इन की बढ़वार रुक जाती है और पैदावार में भारी गिरावट आ जाती है.

बीज गाल (पिटिका) निमेटोड (एंगुनिया ट्रिटीसाई) : इस निमेटोड की मादा 6 से 12 दिनों के अंदर 1,000 अंडे नए गाल (पिटिका) के अंदर देती है. जब फसल पकने वाली होती है, तो पिटिका भूरे रंग की हो जाती है. दूसरी अवस्था वाले लार्वे पिटिका में भर जाते हैं.

फसल की कटाई के समय स्वस्थ बीज के साथ पिटिका से ग्रसित बीज भी इकट्ठा कर लिए जाते हैं. जब अगले साल की फसल की बोआई की जाती है, तो अगला जीवनचक्र फिर शुरू हो जाता है.  जब ये लार्वे नमी वाली भूमि के संपर्क में आते हैं, तो नमी सोखने के कारण मुलायम हो जाते हैं. ये पिटिका को फाड़ कर बाहर निकल आते हैं. लार्वे की दूसरी अवस्था हानिकारक होती है इस अवस्था के लार्वे भूमि से 10 से 15 दिनों में बाहर आ जाते हैं और बीज के जमने के समय हमला कर देते हैं.

लार्वे बीज के जमने वाले भाग से ऊपर पौधे के चारों ओर बढ़ने वाले क्षेत्र में और पत्ती की सतह में पानी की पतली परत के सहारे ऊपर चढ़ जाते हैं. ये पत्ती के बढ़ने वाले भाग से पत्ती की चोटी पर चढ़ जाते हैं. पौधे की बढ़वार अवस्था में फूल के बीज बनने वाले स्थान पर निमेटोड हमला करते हैं और लार्वे फूल के अंदर चले जाते हैं. इस अवस्था में निमेटोड बीज बनने वाले भाग में रहते हैं और संख्या बढ़ने के कारण फूल पिटिका में बदल जाते हैं. लार्वे 3 से 5 दिनों में फूलों पर आक्रमण कर के नर व मादा में परिवर्तित हो जाते हैं. बहुत से नर व मादा हरी पिटिका में मौजूद रहते हैं. नुकसान के लक्षण निमेटोड से ग्रसित नए पौधे का नीचे का भाग हलका सा फूल जाता है.

इस के अलावा बीज के जमाव के 20-25 दिनों बाद नए पौधे के तने पर निकली पत्ती चोटी पर से मुड़ जाती है. रोग ग्रसित नए पौधे की बढ़वार रुक जाती है और अकसर पौधा मर जाता है. रोग ग्रसित पौधा सामान्य दिखाई देता है. उस में बालियां 30-40 दिनों पहले निकल आती हैं. बालियां छोटी व हरी होती हैं, जो लंबे समय तक सामान्य बाली के मुकाबले हरी रहती हैं. बीज पिटिका में बदल जाते हैं.

इस रोग का मुख्य लक्षण यह है कि बीज गाल यानी पिटिका में बदल जाते हैं. गाल (पिटिका) छोटा व गहरा होता है, जो स्वस्थ बीज के मुकाबले भूरा और अनियमित आकार का हो जाता है. गाल (पिटिका) के आकार के अनुसार एक गाल में 800 से 3,500 की संख्या में लार्वे पाए जाते हैं. इस निमेटोड के कारण पीली बाल या टुंडा रोग हो जाता है. निमेटोड बीजाणु फैलाने का काम करते हैं.

इस रोग के कारण नए पौधों की पत्तियों व बालियों पर हलका पीला सा पदार्थ जमा हो जाता है. रोग ग्रसित पौधों से बालियां ठीक से नहीं निकल पातीं और न ही उन में दाने बनते हैं.

रोकथाम बीज की सफाई : टुंडा रोग या बाल गांठ रोग या निमेटोड से रहित बीज लेने चाहिए. बीजों को छन्नी से छान कर पानी में 20 फीसदी के बराइन घोल में डाल कर तैरते हुए बीज अलग कर लेने चाहिए.

गरम पानी से उपचारित करना : बीजों को 4 से 6 घंटे तक ठंडे पानी में भिगोना चाहिए. इस के बाद 54 डिगरी सैंटीग्रेड गरम पानी में 10 मिनट तक उपचारित करना चाहिए.

फसल को हेरफेर कर बोना : निमेटोड को खेत से बाहर करने के लिए प्रभावित फसल की 2 या 3 सालों तक बोआई नहीं करनी चाहिए.

रोगरोधी किस्म : निमेटोड अवरोधी प्रजातियां ही खेत में बोनी चाहिए.

संक्रमित पौधे निकालना : निमेटोड से संक्रमित पौधे पता लगा कर अगेती अवस्था में ही नष्ट कर देने चाहिए.

सूप से फटकना या हवा में उड़ाना : यह विधि भी सहायक गाल को बाहर करने के लिए कारगर है, पर इस विधि से गाल (पिटिका) पूरी तरह से बाहर नहीं होते हैं.

सिस्ट गांठ निमेटोड (हेटरोडेरा एविनी) : यह गांठ निमेटोड नीबू के आकार की गांठ के अंदर अंडे देता है, जो कई सालों तक जीवित रहते हैं. ये गांठ से अलग हो कर भूमि में निकल आते हैं. मार्चअप्रैल और अक्तूबरनवंबर माह तक गांठ में तकरीबन 400 अंडे रहते हैं. इस समय अंडों में दूसरी अवस्था के लार्वे बेकार अवस्था में रहते हैं.

फसल की अगली बोआई के समय नवंबर से जनवरी माह के दौरान रोग ग्रसित लार्वे गांठ से निकलने शुरू हो जाते हैं. एक सीजन में 50 फीसदी अंडे फूट जाते हैं और बाकी अगले सीजन तक महफूज रहते हैं. जब फसल 4 से 5 सप्ताह पुरानी व ताप 16 से 18 डिगरी सैंटीग्रेड हो जाता है, तब दूसरी अवस्था के लार्वे जड़ की चोटी से घुसते हैं. शरीर विकसित होने में 4 हफ्ते लगते हैं. भोजन लेने के बाद दूसरी अवस्था चौड़ाई में बढ़ती है. मादा नीबू का आकार लेती है और सफेद रंग की होती है. जड़ में घुसने के 4-5 हफ्ते बाद लार्वा को जड़ से बाहर निकलते देखा जा सकता है. मादा तभी मर जाती है. उस के शरीर का कठोर व गांठ से भरा अवशेष अगले सीजन को संक्रमित करने के काम आता है. नर वयस्क गोलाकार केंचुए जैसा होता है. नर का विकास लार्वे में होता है. लार्वे वयस्क में बदलते हैं. इन का जीवनचक्र 9 से 14 हफ्ते में पूरा होता है और साल में 1 पीढ़ी पाई जाती है. यह निमेटोड गेहूं और जौ में मोल्या रोग फैलाता है.

नुकसान के लक्षण:

इस निमेटोड के लक्षण शुरू में खेत में टुकड़ों में दिखाई देते हैं, जो 3-4 सालों में पूरे खेत में फैल जाते हैं.

इस के शुरुआती लक्षण फसल के जमाव के समय दिखने लगते हैं. इस की वजह से पौधों की जमीन से पोषक तत्त्वों को लेने की कूवत कम हो जाती है और जड़ों में गांठें बन जाती हैं. इस के अलावा पौधों की बढ़वार रुक जाती है और रोगग्रस्त पौधे हरेपीले रंग के दिखाई देते हैं. ऐसे रोगग्रसित पौधों की बालियों में बहुत कम दाने बनते हैं. पौधों के आधार पर मूसला जड़ें विकसित हो जाती हैं. जड़ों पर फरवरी के मध्य में निमेटोड का आक्रमण दिखाई पड़ता है. रेशे वाली जड़ें भूमि से आसानी खींची जा सकती हैं. इस के प्रकोप से रेतीली मिट्टी में 45 से 48 फीसदी नुकसान होता है.

रोकथाम:

कृषि क्रियाएं विधि : गांठ निमेटोड अवरोधी और सूखा न सहने वाला है. फसलचक्र व गरमी की जुताई से इस की रोकथाम की जा सकती है. पोषक अवरोधी फसलें जैसे सरसों, चना, गाजर व फ्रैंचबीन वगैरह से इस की रोकथाम कर सकते हैं.

मईजून महीनों में 2-3 बार गरमी की जुताई करने पर निमेटोड की संख्या कम की जा सकती है. गरमी के महीनों में गांठें कम हो जाती हैं. गेहूं की अगेती बोआई करने पर नुकसान को कम किया जा सकता है.

अवरोधी प्रजातियां : भारत में गेहूं की निमेटोड अवरोधी प्रजातियां सीसीएनआरवी 1 व राज एमआर 1 उगाई जाती हैं. जौ की अवरोधी प्रजातियां राज किरन, आरडी 2035, आरडी 2052 और सी 164 संक्रमित क्षेत्र में उगाई जाती हैं. इन प्रजातियों में मादा के अंडे देने में असफल होने के कारण निमेटोड की तादाद कम हो जाती है. रासायनिक विधि : खेत में कार्बोफ्यूरान 3 फीसदी 65 किलोग्राम या फोरेट 10जी 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से डालने से निमेटोड पर काबू पाया जा सकता है.

एकीकृत इलाज : मईजून के महीनों में गरमी की जुताई कर के और अवरोधी फसलों जैसे चना व सरसों की बोआई कर के निमेटोड की तादाद को कम करने में सफलता पाई जा सकती है.