जीरो फॉर्मिंग के जरिए किसान होगा आत्मनिर्भर

बस्ती : खेती में रसायनों के अधिक प्रयोग से अधिक पानी की आवश्यकता होती है, लगातार रासायनिक खाद के उपयोग से उपजाऊ से उपजाऊ भूमि के उपज क्षमता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है.

रासायनिक खाद से उपजे अनाज से मनुष्य के अंदर के कहीं न कहीं धीमा जहर भी पहुंच रहा है. इससे लोग तरह-तरह की बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं. अगर स्वस्थ जीवन जीना है, तो प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहन करना जरूरी है.

भारत सरकार ने “नेशनल मिशन ऑन नेचुरल फॉर्मिंग” के अंतर्गत किसानों की आर्थिक हालत में सुधार के लिए कई कदम उठाए जाने का ऐलान किया है, जिसमें जीरो बजट खेती मुख्य बिन्दु है.

जीरो फॉर्मिंग के जरिए कृषि के पारंपरिक और मूलभूत तरीके पर लौटने पर जोर दिया जा रहा है. जीरो बजट फॉर्मिंग में किसान जो भी फसल उगाएंगे उसमें फर्टिलाइजर, कीटनाशकों के स्थान पर प्राकृतिक खेती के तरीकों को अपनाएंगे. इसमें रासायनिक खाद के स्थान पर खरपतवार से बनी देशी खाद, गोबरखाद, गौमूत्र, चने के बेसन, गुड़ और मिट्टी से बनी खाद आदि का इस्तेमाल किया जाता है.
देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की अधिकांश आबादी आजीविका के लिए कृषि पर आधारित हैं . कृषि क्षेत्र से ही सबसे ज्यादा रोजगार मिलता हैं .

प्रदेश में किसानों के हित से जुड़ी अनेकों योजनाएं संचालित की जा रही हैं. किसान को आत्मनिर्भर बनाने के लिए गोवंश आधारित जीरो बजट प्राकृतिक को प्रोत्साहित किया जा रहा है, जिससे कम लागत में अधिक उत्पादन हो और किसानों की आय बढ़ सके. जीरो बजट की प्राकृतिक खेती किसान की आय दोगुनी करने का सबसे सस्ता माध्यम है. प्रदेश में निराश्रित गोवंश पशुशालाओं को गौ आधारित प्राकृतिक कृषि एवं अन्य गौ उत्पादों को प्रशिक्षण केन्द्र में विकसित किया जा रहा है, जो बुंदेलखण्ड को जीरो बजट खेती के माध्यम से संभव हो सकेगा. प्राकृतिक कृषि को बढ़ावा देने के लिए विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में भी शामिल किया गया है.

गोवंश आधारित प्राकृतिक खेती का मुख्य आधार देसी गाय है. गोबर, गौमूत्र और कुछ कृषि उत्पादों को मिलाकर बनने वाले जीवामृत और घनजीवामृत में जमीन को उपजाऊ बनाने और फसल को पोषण देने की पर्याप्त क्षमता होती है. निराश्रित गायों के पालनपोषण के लिए गोपालकों को प्रति माह प्रति गाय 1500 रूपये की सहायता राशि प्रदान की जा रही है. देसी गायों के पालन और उनके गोबर के इस्तेमाल से बेहतर खेती की जा सकती है और काफी पानी बचाया जा सकता है. ऐसे में सूखे का दंश झेलने वाले बुंदेलखण्ड में प्राकृतिक खेती किसी अचंभे से कम नहीं है.

कम खर्च में अधिक पैदावार प्राकृतिक खेती का मुख्य उद्देश्य है. किसानों को महंगे बीज, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों की खरीद के चंगुल से मुक्त कराना है. किसान प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग कर खेती कर आत्मनिर्भर हो जायेंगे. कम लागत लगने से खेती करने पर किसानों को अधिक मुनाफा प्राप्त होता है.

सोने पे सुहागा यह है कि इस विधि से जो भी फसल उगाई जाती है वह सेहत के लिए काफी लाभदायक होती है, क्योंकि इसे उगाने के लिए किसी भी तरह के रासायनिक पदार्थाे का इस्तेमाल नहीं किया जाता. इन्हीं विशेषताओं के कारण योगी सरकार प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहित कर रही है.

प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए केन्द्र पोषित “नेशनल मिशन ऑन नेचुरल फॉर्मिंग” के अंतर्गत प्रदेश सरकार ने प्रदेश के 49 जनपदों की 85710 हेक्टेयर भूमि पर प्राकृतिक खेती कराने की व्यवस्था की है ,जिसे भारत सरकार ने स्वीकृति सहित धनराशि दे दी है.

राज्य सेक्टर से बुंदेलखण्ड के समस्त जनपदों में 23500 हेक्टेयर क्षेत्र में गौ-आधारित प्राकृतिक खेती कार्यक्रम संचालित करते हुए कार्य शुरू हो गए है.

गंगातट के 1038 ग्राम पंचायतों में व्यापक रूप से प्राकृतिक खेती 27 जिलों, 21 नगर निकाय, 1038 ग्राम पंचायतों और 1648 राजस्व ग्रामों में आयोजित गंगा यात्रा के दौरान प्राकृतिक खेती के प्रति किसानों को विशेष रूप से जागरूक किया गया.

गंगा के तटवर्ती दोनों ओर नमामि गंगे परियोजना के तहत व्यापक रूप से प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहित किया जा रहा है. गंगा किनारे कुल 4909 क्लस्टरों के 92180 हेक्टेयर क्षेत्र में प्राकृतिक खेती कराई जा रही है. पहले चरण में 1038 ग्राम पंचायतों में मास्टर ट्रेनर तैयार किये जा रहे हैं, जो गांवों में जाकर किसानों को गो आधारित खेती का प्रशिक्षण दे रहे हैं.

गंगा किनारे गंगा मैदान, गंगा उद्यान, गंगा वन तथा गंगा तालाब को विकसित किया जा रहा है, जो प्राकृतिक खेती के लिए काफी सहायक होंगे.

कृषि विज्ञान केन्द्रों और विश्वविद्यालयों के माध्यम से न सिर्फ प्राकृतिक कृषि का प्रशिक्षण दिया जा रहा है, बल्कि अधिक से अधिक किसानों को इसके प्रति प्रोत्साहित भी किया जा रहा है. मुख्य उद्देश्य प्राकृतिक खेती का रकबा बढ़ाना है. प्राकृतिक कृषि उत्पाद मूल्यों का उचित मूल्य मिल सकें, इसके लिए भी सरकार द्वारा व्यापक कार्य किये गये हैं.

प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने गो आधारित प्राकृतिक खेती के लिए बुंदेलखण्ड के 07 जनपदों के 47 विकासखण्डों में योजना की शुरूआत कर दी है. प्रत्येक ब्लाक में 500 हेक्टेयर क्षेत्र में चरणबद्ध ढंग से विकसित किया जा रहा है. प्रथम चरण में (वर्ष 2022-23 से 2025-26) में 23500 क्लस्टर व दूसरे चरण में (वर्ष 2023-24 से 2026-27) में 235 क्लस्टर कुल 2350 हेक्टेयर भूमि में प्राकृतिक खेती किये जाने का प्राविधान किया गया है. प्रत्येक क्लस्टर 50 हेक्टेयर क्षेत्रफल का होगा.

जनपद स्तर पर समस्त कृषि कर्मी, कृषि वैज्ञानिकों, प्राकृतिक खेती से जुड़े कृषकों को प्रशिक्षण दे रहे है. प्रदेश सरकार द्वारा प्राकृतिक खेती हेतु किसानों को प्रोत्साहन स्वरूप आवश्यक सहयोग भी दिया जा रहा है.

जीरो बजट खेती (Zero budget farming) : लागत कम अधिक मुनाफा

किसानों को खेती में इसलिए ज्यादा नुकसान होता है, क्योंकि कृषि लागत दिनोंदिन बढ़ती जा रही है. अगर इस लागत को कम कर दिया जाए तो उन्हें पहले की अपेक्षा ज्यादा फायदा मिलने लगेगा. इस के लिए देश के मशहूर कृषि विशेषज्ञ सुभाष पालेकर ने जीरो बजट खेती नाम दिया है.

क्या है जीरो बजट खेती

‘हींग लगे न फिटकरी रंग आए चोखा’. जीरो बजट खेती का मतलब है कि चाहे कोई भी फसल हो, उस की लागत का मूल्य जीरो होगा. मुख्य फसल का लागत मूल्य अंतर्वर्तीय फसलों या सहफसली उत्पादन से निकाल लेना और मुख्य फसल को बोनस के रूप में लेना.

फसलों को बढ़ने और अधिक उपज लेने के लिए जिनजिन संसाधनों की जरूरत होती है, वे सभी घर में ही उपलब्ध करना. किसी भी हालत में मंडी या बाजार से खरीद कर नहीं लाना.

हमारा नारा है, गांव का पैसा गांव में. गांव का पैसा शहरों में नहीं बल्कि शहर का पैसा गांव में लाना ही जीरो बजट खेती है.

इस तरह की खेती में कीटनाशक, कैमिकल खाद या हाईब्रिड बीज किसी भी आधुनिक उपाय का इस्तेमाल नहीं होता है. यह पूरी तरह से प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है. इस तकनीक में किसान भरपूर फसल उगा कर फायदा कमा रहे हैं, इसलिए इसे जीरो बजट खेती नाम दिया गया है.

किसान कैमिकल के स्थान पर घर पर खुद से तैयार की हुई देशी खाद बनाते हैं जिस का नाम ‘घन जीवामृत’ है. यह खाद गाय के गोबर, गौमूत्र, बेसन, गुड़, मिट्टी और पानी से बनती है.

फसल में कीटों के प्रकोप से बचाव के लिए अभी तक किसान कैमिकल कीटनाशकों का भरपूर इस्तेमाल करते थे, लेकिन इस में कैमिकल कीटनाशक न इस्तेमाल कर के घर पर बनाया गया कीटनाशक इस्तेमाल किया जाता है. इस में नीम, गोबर और गौमूत्र होता है, इसे ‘नीमास्त्र’ कहते हैं. इस से फसल को कीड़ा नहीं लगता है. संकर प्रजाति के बीजों के स्थान पर देशी बीज डालते हैं.

देशी बीज चूंकि हमारे खेतों की पुरानी फसल के ही होते हैं इसलिए हमें उस के लिए पैसे नहीं खर्च करने पड़ते हैं जबकि हाईब्रिड बीज हमें बाजार से खरीदने पड़ते हैं जो काफी महंगे होते हैं.

जीरो बजट खेती में खेतों की सिंचाई, मड़ाई और जुताई का सारा काम बैलों की मदद से किया जाता है. इस में किसी भी तरह के डीजल या ईंधन से चलने वाले संसाधनों का इस्तेमाल नहीं होता है. इस से काफी बचत होती है.

एक तरफ बैलों से जुताई करने में पैसे बचते हैं तो वहीं दूसरी ओर उस के गोबर से उपले और देशी खाद बना कर खेतों में इस्तेमाल की जाती है. ऐसे में किसानों को बाजार से ऊंची कीमत पर डीएपी या यूरिया नहीं खरीदना होता.

कृषि विशेषज्ञ सुभाष पालेकर बताते हैं कि हमें फसलों को बढ़ने के लिए अलग से कुछ देने की जरूरत नहीं है, क्योंकि जो संसाधन चाहिए वह उन की जड़ों के पास जमीन में और पत्तों के पास वातावरण में ही सही मात्रा में मौजूद हैं, क्योंकि हमारी भूमि अन्नपूर्णा है. हमारी फसलें जमीन से बमुश्किल 1.5 से 2.0 फीसदी जरूरी चीजें लेती हैं, बाकी का 98 से 98.5 फीसदी तो हवा, सूरज की रोशनी और पानी से लेती हैं.

जीरो बजट खेती का मकसद

* खेती की लागत कम करना और फायदा बढ़ाना.

* मिट्टी की उर्वराशक्ति बढ़ाना.

* कैमिकल खाद और कीटनाशकों का इस्तेमाल कम कर के घरेलू खाद का इस्तेमाल करना.

* कम सिंचाई से ज्यादा उत्पादन लेना.

* किसानों की बाजार निर्भरता में कमी लाना.

ये हैं मुख्य घटक

आच्छादन : हम जब 2 बैलों से खींचने वाले हल या कुलटी (जोत) से खेत की जुताई करते हैं, तब मिट्टी का आच्छादन ही करते हैं ताकि नमी और उष्णता वातावरण में उड़ कर नहीं जाती, बची रहती है.

फसलों की कटाई के बाद दाने छोड़ कर फसलों के जो अवशेष बचते हैं, अगर उसे जमीन पर आच्छादन यानी ढकने के लिए डालते हैं, तो मित्र कीट, जीवजंतु और केंचुए जमीन के अंदरबाहर लगातार चक्कर लगाते रहते हैं. इस से जमीन बलवान, उर्वरा और समृद्ध बनने लगती है. इस से फायदा यह होता है कि आप के खेत में फसल का उत्पादन पहले की तुलना में बढ़ जाता है.

बाफसा : कृषि विशेषज्ञ डाक्टर अरविंदर खरे कहते हैं कि जमीन में हर 2 मिट्टी के कणों के बीच जो खाली जगह होती है, उन में पानी का वजूद बिलकुल नहीं होना ही बापसा है. उन में हवा और वाष्प कणों का समान मात्रा में मिश्रण बनता है.

वास्तव में जमीन में पानी नहीं, बाफसा चाहिए यानी हवा 50 फीसदी और वाष्प 50 फीसदी होना चाहिए, क्योंकि कोई भी पौधा या पेड़ अपनी जड़ों के जरीए जमीन से पानी नहीं लेता, बल्कि वाष्प के कण और हवा के कण लेता है.

जमीन में केवल उतना ही पानी देना है, जिस से उष्णता से उस पानी का भाप बन जाए. यह तभी हो सकता है, जब आप पौधों या फल के पेड़ों को उन के दोपहर की छांव के बाहर पानी देते हो.

कोई भी पेड़ या पौधे की खादपानी लेने वाली जड़ें छांव के बाहरी सरहद पर होती हैं तो पानी और पानी के साथ जीवामृत पेड़ की दोपहर को 12 बजे जो छांव पड़ती है, उस छांव की आखिरी सीमा के बाहर 1-1.5 फुट अंतर पर नाली निकाल कर उस नाली में से पानी देना चाहिए.

बीजामृत या बीज शोधन 100 किलोग्राम बीज के लिए  सामग्री :

5 किलोग्राम गाय का गोबर, 5 लिटर गाय का गौमूत्र, 20 लिटर पानी, 50 ग्राम चूना, 50 ग्राम मेड़ की मिट्टी.

बनाने की विधि : इन सारी चीजों को 24 घंटे के लिए पानी में डाल कर रखें और दिन में 2 बार लकड़ी से घोल को हिला दें. बाद में बीजों पर इस घोल यानी बीजामृत का छिड़काव करें. छाया में सुखाएं और बाद में बीज बोएं.

इस से किसानों को यह फायदा होगा कि बीज जल्दी और ज्यादा तेजी से उगते हैं. जड़ें तेजी से बढ़ती हैं और जमीन से पेड़ों पर जो बीमारियां फैलती  हैं, वह नहीं हो पाती हैं. इस में यह ध्यान देने की बात है कि बीज शोधन बोआई के 24 घंटे पहले करना चाहिए.

जीवामृत

सामग्री : 100 किलोग्राम गाय का गोबर, 1 किलोग्राम गुड़ या फलों के गूदे की चटनी, 2 किलोग्राम बेसन (चना, उड़द, अरहर, मूंग), 50 ग्राम मेड़ या जंगल की मिट्टी, 1 लिटर गौमूत्र.

बनाने की विधि

सब से पहले आप 100 किलोग्राम गाय के गोबर को किसी पक्के फर्श या पौलीथिन पर फैलाएं, फिर इस के बाद 1 किलोग्राम गुड़ या फलों के गूदे की चटनी व 1 किलोग्राम बेसन डालें. इस के बाद खेत की मेंड़ या जंगल की मिट्टी डाल कर और 1 लिटर गौमूत्र सभी चीजों को फावड़ा से मिलाएं. इस के बाद 48 घंटे के लिए किसी छायादार जगह पर जूट के बोरे से ढक कर रख दें. 48 घंटे बाद उस का चूर्ण बना कर भंडारण करें.

इस जीवामृत का इस्तेमाल 6 महीने तक कर सकते हैं. इस में इस बात की सावधानी रखनी है कि 7 दिन तक छाया में सूखा हुआ गोबर ही इस्तेमाल करना है. इस के अलावा गौमूत्र को किसी धातु के बरतन में न लें या रखें. एक बार खेत की जुताई के बाद इस घोल का छिड़काव कर के अपने खेत तैयार करें.

नीमास्त्र

सामग्री : 5 किलोग्राम नीम की टहनियां, 5 किलोग्राम नीम फल या नीम खरी, 5 लिटर गौमूत्र, 1 किलोग्राम गाय का गोबर.

बनाने की विधि

प्लास्टिक के बरतन में 5 किलोग्राम नीम की पत्तियों की चटनी, 5 किलोग्राम नीम के फल पीस कर या कूट कर डालें.

5 लिटर गौमूत्र व 1 किलोग्राम गाय का गोबर डालें. अब सभी चीजों को डंडे से चला कर जालीदार कपड़े से ढक दें. यह घोल 48 घंटे में तैयार हो जाएगा. इस दौरान 4 बार लकड़ी के डंडे से चलाएं.

नीमास्त्र का इस्तेमाल 6 महीने तक किया जा सकता है. इसे बनाने में इस बात का खास खयाल रखें कि सारी चीजों को छायादार जगह पर रखें और धूप से बचाएं.

गौमूत्र को प्लास्टिक के बरतन में रखें. 100 लिटर पानी में तैयार नीमास्त्र को छान कर मिलाएं और स्प्रे मशीन से छिड़काव करें.

फफूंदनाशक दवा 100 लिटर पानी में 3 लिटर खट्टी छाछ को अच्छी तरह से मिला कर फसल पर छिड़काव करें.

किसान अगर अपनी लागत को कम कर के ज्यादा मुनाफा कमाना चाहते हैं तो उन्हें जीरो बजट खेती करनी चाहिए. इसे आम बोलचाल में प्राकृतिक यानी कुदरती खेती भी कहा जाता है.

आज के समय में ज्यादातर किसान अच्छे उत्पादन के लिए हाईब्रिड बीजों पर निर्भर हैं, जो काफी महंगे होने के साथ ही नकली होने का डर बना रहता है. साथ ही, ज्यादातर सिंचाई, कैमिकल खाद, कीटनाशक वगैरह से लागत भी काफी ज्यादा होती है, जिस से मुनाफा नहीं कमाया जा सकता और किसानों को नुकसान हो जाता  है.

कृषि क्षेत्र में रोजगार की कमी नहीं

उदयपुर : पाताल से आकाश तक ही नहीं, बल्कि इस से आगे अंतरिक्ष तक कृषि का साम्राज्य है. कृषि वैज्ञानिक दिनरात इस सच को मूर्त रूप देने में जुटे हैं. युवा और कृषि भारत के लिए चुनौती नहीं, बल्कि एक सुअवसर है. शून्य बजट प्राकृतिक कृषि, कार्बनिक कृषि और व्यापारिक कृषि कुछ ऐसे कृषि के चुनिंदा प्रकार हैं, जो युवाओं को खूब आकर्षित कर रहे हैं. युवा इस क्षेत्र में उद्यमशीलता और नवाचार के द्वारा आमूलचूल परिवर्तन ला रहे हैं.

यदि किसान पढ़ेलिखे हों, तो मौसम, मिट्टी, जलवायु, बीज, उर्वरक, कीटनाशक और सिंचाई संबंधी सटीक जानकारी रखते हुए भरपूर पैसा कमा सकते हैं यानी कृषि एक ऐसा क्षेत्र है, जहां रोजगार की कोई कमी नहीं है और नवागंतुक बच्चों को 10वीं-12वीं में ही कृषि विषय ले कर अपनी और अपने देश की तरक्की का रास्ता अपनाना चाहिए.

यह बात पिछले दिनों यहां शेर-ए-कश्मीर कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, जम्मू के पूर्व कुलपति डा. जेपी शर्मा राजस्थान कृषि महाविद्यालय के नूतन सभागार में एकदिवसीय कृषि शिक्षा मेले में आए कृषि छात्रों को संबोधित कर रहे थे.

महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर के तत्वावधान में राष्ट्रीय कृषि उच्च शिक्षा परियोजना के तहत आयोजित इस मेले में 20 स्कूलों के छात्रछात्राओं के अलावा उन के प्राचार्य व स्टाफ ने भी भाग लिया, ताकि उच्च माध्यमिक स्तर पर विषय चयन में विधार्थियों का बेहतर मार्गदर्शन कर उन्हें कृषि जैसे रोजगारपरक विषय से जोड़ा जा सके.

Agrieducationउन्होंने आगे कहा कि कृषि छात्र आईआईटी, आईआईएम, सिविल सर्विसेज, आईसीएआर, एसएयू, राज्य सरकार एवं बैंकों आदि में अपना भविष्य बना सकते हैं.

उन्होंने कहा कि कोरोना काल हो या आर्थिक मंदी का दौर भारत कृषि आधरित देश होने की वजह से कभी पिछड़ा नहीं, बल्कि इन संकटकालीन स्थितियोें में जहां तकनीकी आधरित देशों में जीडीपी माइनस में चली गई, वहीं भारत ने कृषि में 3.4 फीसदी वृद्धि की.

कृषि में नई क्रांति की जरूरत

उन्होंने कहा कि भारत की 50 फीसदी आबादी कृषि से ही जीविकोपार्जन करती है. कृषि को फिर से एक नई क्रांति की जरूरत है और देश के युवाओं द्वारा कृषि क्रांति का आधार भी तैयार हो चुका है. आज का पढ़ालिखा युवा फूड प्रोसैसिंग, वेल्यू एडिशन, टैक्नोलौजी और मार्केटिंग को भलीभांति जानता है. गांव में ही प्रोसैसिंग हो, पैकेजिंग हो और वहीं से सीधे बाजार तक सामान पहुंचे तो युवाओं को खेतीकिसानी से कोई परहेज नहीं होगा.

अनेक कृषि क्षेत्र हैं युवा किसानों के लिए

युवा किसान ऐसे हैं, जिन का अंतर्राष्ट्रीय बाजार में लिंक स्थापित है और वे अच्छाखासा मुनाफा कमा रहे हैं. उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे युवा, जो कि आईआईटी, आईआईएम आदि के छात्र भी कृषि आधरित उद्योगों की ओर बढ़ रहे हैं.

उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता करते हुए महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने कहा कि कृषि में पढ़ेलिखे युवाओं के आने से युवा आत्मनिर्भर बनेंगे, युवाओं के आत्मनिर्भर होने से देश आत्मनिर्भर होगा और अंततः राष्ट्र का कल्याण होगा.

उन्होंने आगे कहा कि फलफूलों की खेती, मशरूम की खेती, पशुपालन एवं दुग्ध उत्पादन, मिल्क प्रोडक्ट तैयार करना, ग्राफ्टेड फलों की पौध तैयार करना, खादबीज की दुकान लगाना, कुक्कटपालन, मधुमक्खीपालन, सजावटी पौधों की नर्सरी खोलना, खाद्य प्रसंस्करण और आंवला, तिलहन, दहलन की प्रोसैसिंग यूनिट लगा कर शिक्षित युवा अपना, परिवार का और देश का भविष्य संवार सकते हैं. यही नहीं, कई लोगों को रोजगार भी मुहैया कर सकते हैं.

कृषि विश्वविद्यालयों की अहम भूमिका

Agrieducationकृषि क्षेत्र में अनुसंधान भी बहुत जरूरी है. युवाओं को कृषि से जोड़ने के लिए देशभर में वर्तमान में 73 कृषि विश्वविद्यालय प्रयासरत हैं, जहां कृषि की पढ़ाई गुणवत्तापूर्ण तरीके से हो रही है. भारत का इजरायल के साथ कृषि शोध को ले कर करार हुआ है.

डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने कहा कि आज भारत की कुल जनसंख्या में 27.3 फीसदी युवा आबादी है यानी 37.14 करोड़ युवाओं के साथ भारत सब से अधिक युवाओं वाला देश है. यदि वैज्ञानिक पद्दति से कालेज स्तर पर प्रशिक्षण दिया जाए, कुटीर एवं घरेलू उद्योगों को बढ़ावा मिले तो पैसों की चाहत में युवा वर्ग भी कृषि क्षेत्र में पूरे जुनून से जुड़ेगा.

विशिष्ट अतिथि राजस्थान राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद, उदयपुर की निदेशक कविता पाठक ने भी विधार्थियों को कृषि विषय रोजगारपरक बताते हुए अधिकाधिक विद्यार्थियों को कृषि विषय में अपना भविष्य संवारने का आह्वान किया.

उन्होंने स्कूली पाठ्यक्रम निर्धारण में भी कक्षा-7 व 8 से कृषि संबंधी पाठ का समावेश करने पर जोर दिया, ताकि छात्रछात्राओं को विषय चयन की प्रेरणा शुरू से ही मिल सके.

डा. पीके सिंह, समन्वयक एनएएचईपी ने बताया कि इस वर्ष विश्वविद्यालय के 71 छात्र एवं 11 प्राध्यापकों को प्रशिक्षण हेतु अमेरिका, आस्ट्रेलिया एवं थाईलैंड भेजा गया व दिसंबर, 2023 तक 50 और विद्यार्थियों को भेजा जाएगा.

कार्यक्रम के आरम्भ में डा. मीनू श्रीवास्तव, अधिष्ठाता ने सभी का स्वागत किया और मेले के महत्व को बताया