Artificial Insemination : भारत में मुख्य रूप से गायों और भैंसों से ही दूध का उत्पादन होता है. यहां साहिवाल, हरियाणा, गिर, रेड सिंधी जैसी देशी नस्लों की गायें और जाफरावादी, मुर्रा और मेहसाना नस्ल की भैंसें पाई जाती हैं. सभी देशी नस्लों के दुधारू पशुओं की दूध उत्पादन कूवत विदेशी नस्ल के पशुओं की तुलना में काफी कम है. इस से पशुपालकों को उन की मेहनत और लागत के हिसाब से मुनाफा नहीं हो पाता है. पशुपालकों की माली हालत में सुधार तभी मुमकिन है, जब वे उम्दा नस्ल के शुक्राणुओं से कृत्रिम गर्भाधान द्वारा अपनी गायभैंसों को गाभिन कराएं.

कृत्रिम गर्भाधान (Artificial Insemination) के बारे में ज्यादातर किसानों और पशुपालकों के मन में यह शंका होती है कि इस से मवेशी को गर्भ नहीं ठहरता है और पैसे व समय की बरबादी होती है. वेटनरी डाक्टर सुरेंद्र नाथ कहते हैं कि अगर मवेशी को सही समय पर ट्रेंड मुलाजिम के द्वारा कृत्रिम गर्भाधान कराया जाए तो गर्भ ठहरने की गारंटी 100 फीसदी होती है. मवेशी अगर सुबह गरम हुआ हो तो शाम को और शाम को गरम हुआ हो तो सुबह के वक्त कृत्रिम गर्भाधान कराना चाहिए. मादा मवेशी का जोरजोर से रंभाना, पेशाब के रास्ते से चिपचिपा स्राव आना, बारबार पेशाब करना, दूसरे पशुओं पर चढ़ने की कोशिश करना, बेचैनी बढ़ना आदि उस के गरम होने के लक्षण हैं.

कृत्रिम गर्भाधान से गायभैंसों के गर्भधारण की उम्मीद काफी बढ़ जाती है. पशुओं के डाक्टर की मदद और देखरेख में शुक्राणुओं को गर्भाशय में डालना चाहिए. पाल खिलाने यानी शुक्राणु डालने के 60 दिनों बाद गर्भधारण हुआ या नहीं इस की जांच हाथ से की जा सकती है. 4 से 8 साल तक के भैंसे के शुक्राण सब से अच्छा नतीजा देते हैं. इस आयु में कम समय में अच्छे किस्म के शुक्राणु मिल जाते हैं. ध्यान रखें कि गरमी के दिनों में प्राप्त शुक्राणु अच्छे नतीजे नहीं देते हैं. भैंस को पहला पाल खिलाने के समय उस का वजन 321 से 360 किलोग्राम के बीच होना चाहिए. इस से कम या ज्यादा वजन होने से गर्भधारण में दिक्कतें आती हैं.

कृत्रिम गर्भाधान एक ऐसी विधि है, जिस में उन्नत नस्ल के सांड़ के वीर्य को कृत्रिम उपकरणों की मदद से मादा पशुओं के जनन अंगों में सही समय पर सही जगह डाला जाता है.

Artificial Insemination

कुदरती गर्भाधान में सांड़ अपने वीर्य को मादा पशु की योनि में सीधे छोड़ता है, जबकि कृत्रिम गर्भाधान में पहले सांड़ के वीर्य को कृत्रिम योनि में डाल कर जमा किया जाता है, उस के बाद उस वीर्य की जांच कर के उसे संरक्षित कर लिया जाता है. मादा पशु की योनि में कृत्रिम तरीके से यानी उपकरण की मदद से जमा किए गए वीर्य को डाल दिया जाता है.

कृत्रिम गर्भाधान का चलन शुरू हुए काफी समय हो चुका है, इस के बाद भी लोगों के मन में इसे ले कर कई तरह की शंकाएं बैठी हुई हैं. पशुपालकों का पढ़ालिखा नहीं होना और पोंगापंथी होना कृत्रिम गर्भाधान के रास्ते की सब से बड़ी रुकावट है.

कृत्रिम गर्भाधान के जरीए अपने मवेशियों की नस्लें सुधारने में कामयाबी हासिल करने वाले बिहार के नालंदा जिले के नूरसराय गांव के रहने वाले पशुपालक रामखेलावन कहते हैं कि अब पशुपालकों को यह जानना और समझना जरूरी है कि कृत्रिम गर्भाधान के कई फायदे हैं. इस के जरीए कम दूध देने वाली देशी नस्ल की गायों और भैंसों की नस्लों में सुधार किया जा सकता है. इस से गायभैंसों की दूध देने की कूवत पहले के मुकाबले 2-3 गुना ज्यादा हो जाती है.

कृत्रिम गर्भाधान का एक फायदा यह भी है कि उन्नत नस्ल के सांड़ से 1 बार इकट्ठा किए गए वीर्य को संरक्षित कर के कई सालों तक रखा जा सकता है. इसे कहीं भी आसानी से ले जाया जा सकता है. विदेशों से भी उम्दा नस्ल के सांड़ों के वीर्य को आयात किया जा सकता है.

कृत्रिम गर्भाधान के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले वीर्य में एंटीबायोटिक दवा मिली होती है, जिस से मादा पशुओं के जननांगों में बीमारी फैलने का खतरा भी नहीं होता है. कृत्रिम गर्भाधान केंद्र पर कृत्रिम  गर्भाधान की सुविधा होने की वजह से पशुपालकों को अपने पशुओं को गाभित करने के लिए इधरउधर भटक कर समय बरबाद नहीं करना पड़ता है.

देश भर में दुधारू मवेशियों की नस्लों को सुधारने की मुहिम शुरू की गई है. इस के लिए कृत्रिम गर्भाधान केंद्र की संख्या बढ़ाने की कवायद चल रही है. बिहार जैसे पिछड़े राज्य में फिलहाल 800 कृत्रिम गर्भाधान केंद्र चल रहे हैं. इन्हें बढ़ा कर 1400 करने की योजना है.

बिहार सरकार के कृषि रोड मैप के मुताबिक हर साल 50 लाख पशुओं का कृत्रिम गर्भाधान किया जाना है और बचौर, गिर, साहीवाल, रेड सिंघी, देवौनी आदि नस्लों की गायभैंसों की नस्लों को बेहतर बनाया जाना है.

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