Para Grass : भारत की कुल खेती की जमीन का 8.3 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल जलभराव या बाढ़ से प्रभावित रहता है, जिस में फसल उत्पादन संभव नहीं हो पाता है. ऐसे क्षेत्रों में पशुओं को खिलाने के लिए चारे की कमी हो जाती है. ऐसे क्षेत्रों में पत्तेदार पैरा घास को उगा कर पशुओं के लिए सही मात्रा में पौष्टिक चारा हासिल किया जा सकता है.

पैरा घास या अंगोला (ब्रैकिएरिया म्यूटिका) एक बहुवर्षीय चारा है. इसे अंगोला घास, बफैलो पान घास, भैंस घास, कैलीफोर्निया घास, कारिग्रास, कोरी घास, डच घास, विशाल सोफे, मारीशस घास, न्यूमिडीयन घास,  पैनिकम घास, पैरा ग्रास, पैरा घास, पेनहलगा घास, स्काच ग्रास, जलयात्रा या वाटर ग्रास भी कहा जाता है. यह नमी वाले स्थानों पर अच्छी तरह उगती है.

पैरा घास चारे के लिए स्वादिष्ठ प्रजाति है, जिस का इस्तेमाल उच्च गुणवत्ता वाले चारे के लिए किया जाता है. इस के तने की लंबाई 1 से 2 मीटर होती है और पत्तियां 20 से 30 सेंटीमीटर लंबी और 16-20 मिलीमीटर चौड़ी होती हैं. इस के तने की हर गांठ पर सैकड़ों की संख्या में जड़ें पाई जाती हैं, जिन से इस की बढ़वार में सहायता मिलती है. इस का तना मुलायम और चिकना होता है, जिस की गांठों पर रोएं पाए जाते हैं. पैरा घास एक सीजन में 5 मीटर की लंबाई तक बढ़ सकती है. गांठों से आगे की ओर बढ़ने वाली तमाम शाखाएं भी निकलती हैं. पैरा घास काफी संख्या में फूलों के बावजूद बहुत कम बीज उत्पादक होती है. इस के बीजों में अंकुरण क्षमता कम होने के कारण उन्हें बोआई के काम में कम इस्तेमाल करते हैं.

पैरा घास को ज्यादातर वानस्पतिक भागों द्वारा लगाया जाता है. इस के तनों की गांठों से जड़ें निकल कर स्थापित हो जाती हैं, जिस से नएनए पौधे बनते रहते हैं. पैरा घास का इस्तेमाल पशुओं को चरा कर किया जा सकता है या फिर सायलेज बनाया जा सकता है. पानी का इंतजाम होने पर यह ऊसर जमीन में भी सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है. इस के चारे में 7 फीसदी प्रोटीन, 0.76 फीसदी कैल्शियम, 0.49 फीसदी फास्फोरस और 33.3 फीसदी रेशा होता है.

जलवायु व जमीन : इस घास को गरम व नम वातावरण में उगाया जाता है. यह खाड़ी, नदियों, बाढ़ के मैदानों, झीलों और जल निकासी चैनलों, सड़कों और बांधों के आसपास, सड़क के किनारों और अन्य नम जगहों पर उगाई जा सकती है. अच्छी बारिश वाले इलाकों में इसे आसानी से उगाया जा सकता है. पाले से इस घास को नुकसान होता है. उत्तर भारत में जाड़े के दिनों में तापमान कम होने पर इस की वृद्धि नहीं होती है, पर मार्चअप्रैल में तापमान बढ़ने पर वृद्धि होने लगती है.

पैरा घास को सभी तरह की मिट्टी में विभिन्न जलमग्न क्षेत्रों में आसानी से पैदा किया जा सकता है. इस के लिए ज्यादा जलधारण कूवत वाली दोमट व मटियार दोमट मिट्टी सब से अच्छी होती है. पैरा घास अम्लीय मिट्टी (पीएच 4,5) में सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है. नदीनालों, तालाबों व गड्ढों के किनारे की नम जमीन व निचली जमीन में जहां पानी भरा रहता है, यह घास आसानी से उगती है.

खेत की तैयारी : ज्यादा उपज के लिए खेत की तैयारी अच्छी तरह से करनी चाहिए. खेत की तैयारी के लिए 2-3 जुताइयां देशी या मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए. खेत को खरपतवार से मुक्त रखना चाहिए. नदीनालों व तालाबों के किनारे की नम जमीन या निचली जमीन में जहां जुताईगुड़ाई करना संभव न हो, वहां पर खरपतवारों व झाडि़यों को जड़ सहित निकाल कर इस घास को लगाना चाहिए.

रोपाई : सिंचित क्षेत्रों में भारत के दक्षिणी, पूर्वी व दक्षिणीपश्चिमी प्रदेशों में दिसंबरजनवरी को छोड़ कर पूरे साल इस की रोपाई की जा सकती है. उत्तर भारत के सिंचित क्षेत्रों में रोपाई का सही समय मार्च से अगस्त और असिंचित क्षेत्रों में बारिश का मौसम है. इसे बीज व वानस्पतिक भागों द्वारा लगाया जाता है. बीज की पैदावार बहुत कम होने से इसे ज्यादातर वानस्पतिक भागों जैसे जड़दार कल्लों या तने के टुकड़ों द्वारा ही लगाया जाता है. बीजों से पैरा घास बोई जा सकती है, पर बीजों से इसे लगाना मुकिश्ल है. वे महंगे होते हैं और उन की अंकुरण कूवत कम होती है.

पैरा घास को वानस्पतिक फैलाव की सहायता से भी बोया जा सकता है. वानस्पतिक फैलाव (कायिक जनन) के लिए 3-4 गांठों के साथ 25-30 सेंटीमीटर की लंबाई के पौधे की गांठ काट कर हाथ से लगाई जाती है. रोपाई के लिए तनों के टुकड़ों में 2 या 3 गांठें होनी चाहिए. इन टुकड़ों की 1 या 2 गांठें मिट्टी के अंदर दबा देनी चाहिए और 1 गांठ जमीन के ऊपर होनी चाहिए. रोपाई के लिए लाइन से लाइन व पौधे से पौधे की दूरी 50 सेंटीमीटर होनी चाहिए. अंत: फसल लेने पर लाइन से लाइन की दूरी 1 से 2 मीटर रखी जाती है. 50×50 सेंटीमीटर की दूरी पर रोपाई करने के लिए प्रति हेक्टेयर 40000 टुकड़ों की जरूरत होती है.

खाद व उर्वरक : घास की अच्छी उपज के लिए पोषक तत्त्वों की जरूरत होती है, खासकर नाइट्रोजन के इस्तेमाल से पौधों की बढ़वार अच्छी होती है और पत्तियों के आकार व संख्या में बढ़ोतरी होती है. बोआई से पहले व हर साल बारिश होने पर 5-10 टन गोबर की खाद या कंपोस्ट खाद, 40-50 किलोग्राम नाइट्रोजन व 30 किलोग्राम फास्फोरस व पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए. इस के अलावा चारे की कटाई के तुरंत बाद 20-25 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए. जल भराव वाले इलाकों में नाइट्रोजन का इस्तेमाल बेहद सावधानीपूर्वक करना चाहिए. नाइट्रोजन की पूरी मात्रा को 1 बार में न दे कर इसे रोपाई के समय और विभिन्न कटाइयों के तुरंत बाद देना चाहिए. फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा घास की रोपाई के समय खेत में डाल देनी चाहिए.

सिंचाई: घास की रोपाई के तुरंत बाद सिंचाई की जरूरत होती है. सर्दी व गरमी के मौसम में 10-15 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए. यह घास जलमग्न और जलभराव वाले इलाकों में उगाई जाती है, इसलिए आमतौर पर बरसात के मौसम में सिंचाई की जरूरत नहीं होती है. यह ऐसे क्षेत्रों में ज्यादा उपज देती है, जहां ज्यादातर पानी भरा रहता है. सूखे के हालात में इस की पैदावार कम हो जाती है.

निराईगुड़ाई : भरपूर मात्रा में पौष्टिक चारा प्राप्त करने के लिए खेत को हमेशा खरपतवार रहित रखना चाहिए. घास लगाने के 2 महीने तक कतारों के बीच निराईगुड़ाई कर के खरतपवारों को काबू में रखना चाहिए. दूसरे साल से हर साल बारिश के बाद घास की कतारों के बीच खेत की गुड़ाई कर देनी चाहिए. इस से जमीन में हवा का संचार अच्छी तरह होता है और चारे की पैदावार में बढ़ोतरी होती है.

कटाई व उपज : इस घास की पहली कटाई बोआई के करीब 70-75 दिनों बाद करनी चाहिए. इस के बाद बरसात के मौसम में 30-35 दिनों और गरमी में 40-45 दिनों के अंतर पर कटाई करनी चाहिए. इस की ऊंचाई 60 से 75 सेंटीमीटर होने पर कटाई में देरी होने पर इस की पौष्टिकता में कमी आ जाती है. कटाइयों की संख्या भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अलगअलग होती है. ठंडे क्षेत्रों में इस की

बढ़ोतरी दिसंबरजनवरी में रुक जाती है. उत्तर भारत में इस की 5-6 कटाइयां और दक्षिण भारत में 8-9 कटाइयां की जा सकती हैं. इस घास से उत्तर भारत में करीब 600-800 क्विंटल और दक्षिण भारत में 1000-1200 क्विंटल हरा चारा प्रति हेक्टेयर हासिल किया जा सकता है.

हरा चारा और सायलेज : पैरा घास कछार क्षेत्रों में एक उम्दा हरा चारा है. वहां यह नम जगहों पर बढ़ता रहता है. पशुओं को गीले चारागाह में नहीं जाने देना चाहिए, क्योंकि इसे खींचने से नए कल्ले नष्ट हो जाते हैं.

पैरा घास पत्तेदार व रसीली होने की वजह से इस का सायलेज बनाया जा सकता है.

चारागाह प्रबंधन : पैरा घास मुख्य रूप से गीले और बाढ़ वाले इलाकों में चराई के लिए बोई जाती है. यह दूसरी अर्द्धजलीय घासों जैसे कि जर्मन घास (इचिनोक्लोआ पालीस्टाच्य) और दाल घास (हायमेनचने एंपलेक्सिकालिस) के साथ उगाई जा सकती है. वैसे इसे आमतौर पर अकेले ही बोया जाना बेहतर माना जाता है. पैरा घास एक मौसम में 5 मीटर तक फैल सकती है. जमीन से 30-70 सेंटीमीटर तक पहुंचने से पहले इसे नहीं चराया जाना चाहिए और 20 सेंटीमीटर से नीचे कटाई नहीं करनी चाहिए ताकि बढ़ते कल्ले नष्ट न हों.

अधिक जानकारी के लिए क्लिक करें...