हमारे देश में टर्कीपालन तेजी से बढ़ रहा है. महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर के अंतर्गत पशु उत्पादन विभाग द्वारा टर्की की केरी विराट नस्ल का पालन किया जा रहा है.
टर्की पालने का काम आमतौर पर मांस, अंडा और खाद के लिए किया जाता है. इस के मांस में 25 फीसदी और अंडे में 13 फीसदी तक प्रोटीन पाया जाता है, वहीं इस की खाद में नाइट्रोजन 5 से 6 फीसदी और पोटाश 2 से 3 फीसदी तक पाई जाती है.
टर्की के मांस में कम चरबी, स्वाद और सुगंध के कारण अधिक लोकप्रिय है. टर्कीपालन खासकर गांव के लोगों को रोजगार के अवसर प्रदान करने में सक्षम है. यह व्यवसाय छोटे और सीमांत किसानों के लिए भी एकदम सही है.
टर्कीपालन है आसान
टर्की को फ्रीरेंज प्रणाली यानी खुले स्थान में जैसे खेत या घर पर आसानी से पाला जा सकता है. इस को खाने में दाना या घर/खेत में खुले स्थान पर छोटे कीड़े, घोंघे, दीमक, रसोई अवशिष्ट, केंचुए व घास आदि खिलाई जा सकती है, जिस से इस के प्रबंधन में कम खर्चा होने के कारण लघु व सीमांत किसानों द्वारा पाला जा सकता है.
टर्कीपालन से रोजगार
टर्की पक्षी के शरीर की वृद्धि तेजी से होती है, जिस की वजह से 7 से 8 माह में इस का वजन 10 से 12 किलोग्राम हो जाता है. इस के अंडे का वजन भी मुरगी के अंडे से अधिक होता है. टर्की से हर साल 100 से 120 अंडे हासिल किए जा सकते हैं.
मांस व अंडे की पौष्टिकता
टर्की मांस का ग्लाईसैमिक इंडैक्स कम होने के कारण मधुमेह रोगी के लिए काफी उपयोगी है. टर्की मांस में अमीनो अम्ल के साथ ही साथ नियासिन, विटामिन बी जैसे विटामिन भी पाए जाते हैं. इस में असंतृप्त वसीय अम्ल और वसा जरूरी मात्रा में पाई जाती है.
डा. शांति कुमार शर्मा, निदेशक अनुसंधान ने बताया कि टर्कीपालन के लिए दक्षिणी राजस्थान की जलवायु माकूल है और आदिवासी इलाकों में टर्कीपालन आजीविका का एक अच्छा जरीया हो सकता है, जिस से आदिवासी इलाकों के किसानों के माली लैवल पर बढ़ोतरी होगी.
मेवाड़ संभाग में टर्कीपालन से सीमांत एवं लघु किसानों की आय में वृद्धि होने के नए मौके हासिल होंगे. साथ ही, लोगों की खाद्य और पोषण सुरक्षा में इस से सहयोग मिलेगा.