फूल वाली फसलों में गेंदे की अपनी एक अलग ही जगह है. यह एस्टेरेसी कुल का पौधा है और टैजेटिस जीनस के तहत आता है. गेंदा बहुपयोगी और सुगमता से उगाया जाने वाला फूलों वाला पौधा है.

भारत में गेंदे को तमाम तरह की भौगोलिक जलवायु और मिट्टी में उगाया जा सकता है. मैदानी इलाकों में साल में गेंदे की 3 फसलें ली जा सकती हैं ताकि पूरे साल फूल मिलते रहें. इस वजह से किसानों को पूरे साल आमदनी होती रहती है.

गेंदे की उत्पत्ति मध्य व दक्षिणी अमेरिका खासतौर पर मैक्सिको को मानी जाती है. 16वीं शताब्दी के शुरू में ही गेंदा मैक्सिको से दुनिया के दूसरे भागों में पहुंचा. इस की मुख्यत: 2 प्रजातियां हैं. पहली, अफ्रीकन गेंदा और दूसरी, फ्रैंच गेंदा, जो काफी प्रचलित हैं. इस की एक और प्रजाति टैजेटिस माइन्यूटा भी कुछ जगहों पर पाई जाती है, जिस से तेल निकाला जाता है.

अफ्रीकन गेंदे का सब से पहले प्रवेश 16वीं शताब्दी में हुआ था और यह ‘रोज औफ दी इंडीज’ नाम से पूरे दक्षिणी यूरोप में प्रसिद्ध हुआ था. भारत में इस का प्रवेश पुर्तगालियों ने कराया था. गेंदे का ज्यादा उत्पादन लेने के लिए इसे वैज्ञानिक विधि से उगाना चाहिए.

जलवायु : इस के ज्यादा फूल लेने के लिए खुली जगह, जहां सूरज की रोशनी सुबह से शाम तक रहती हो, उपयुक्त है. इस के सफल उत्पादन के लिए विशेष रूप से शीतोष्ण व समशीतोष्ण जलवायु सही होती है.

गेंदा उत्पादन के लिए 15-29 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान फूलों की तादाद और क्वालिटी के लिए सही है.

जमीन : गेंदे का पौधा सहिष्णु प्रकृति का होता है. इस की खेती सभी तरह की जमीनों में की जा सकती है. उच्च गुणवत्ता वाली ज्यादा उपज लेने के लिए सही जलनिकास वाली रेतीली दोमट जमीन जिस का पीएच मान 7.5 हो, साथ ही उस में जीवांश पदार्थ भी प्रचुर मात्रा में हो, सही रहता है.

खेत की तैयारी : एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें और 2-3 जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से आरपार करें. उस के बाद ही पाटा लगाएं ताकि मिट्टी भुरभुरी व समतल हो जाए.

पौध का बढ़ना : गेंदे का बढ़ना बीज और कलम (कटिंग) विधियों द्वारा सुगमता से किया जा सकता है, पर बीज द्वारा तैयार पौधे ज्यादा अच्छे व ज्यादा उपज देने वाले होते हैं इसलिए गेंदे की कारोबारी खेती के लिए आमतौर पर बीज द्वारा ही नए पौधे तैयार किए जाते हैं.

पौध तैयार करने का सही समय : गेंदे की पौध तैयार करने का सब से सही समय स्थानीय जलवायु और उगाई जाने वाली किस्म पर निर्भर करता है.

उत्तरी भारत में गेंदे की रोपाई साल के 3 मौसमों (सर्दी, गरमी व वर्षा) में की जा सकती है.

ध्यान रखें कि गेंदे की किस्म का चयन मौसम के अनुरूप ही किया जाए. उत्तरी भारत के मैदानी इलाकों में गेंदा सर्दियों में ही उगाया जाता है और इसी मौसम में ज्यादातर किस्मों का प्रदर्शन उत्तम रहता है, पर इस की मांग के अनुसार इसे दूसरे मौसमों में भी उगाया जा सकता है.

गेंदे (Marigold)

प्रजातियां व किस्में

गेंदे की 2 प्रजातियां बहुत ही प्रचलित हैं.

एक है, अफ्रीकन गेंदा और दूसरी, फ्रैंच गेंदा.

अफ्रीकन गेंदा : यह सालाना पौधा है. इस की ऊंचाई एक या एक से ज्यादा मीटर तक की हो जाती है. पौधा सीधा व बड़ीबड़ी शाखाओं वाला होता है. फूल बड़े आकार (7-10 सैंटीमीटर) वाले, फूलों का रंग पीला, सुनहरी पीला व नारंगी होता है.

इस प्रजाति में द्विगुणित गुणसूत्रों की तादाद 24 होती है. इस की प्रचलित प्रमुख किस्में इस प्रकार हैं:

बड़े फूल वाली : पूसा नारंगी, पूसा बसंती, पूसा बहार, यलो सुप्रीम क्लाइमैक्स, जीबिया गोल्ड, सन जाइंट, गोल्ड कंचन, मैन इन दी मून वगैरह.

मध्यम आकार के फूलों वाली : हैप्पी फेस, लोड़ी, गोल्ड जैलोट, जुबलो सीरीज वगैरह.

छोटे आकार के फूलों वाली : हैप्पीनैस, स्पेसराज सीरीज, अपोलो मून शोट, मैरीनेट, गोल्डन रे, स्पेन पीला. क्यूपिड, जिटेंक डोली वगैरह.

फ्रैंच गेंदा : यह पौधा बौना होता है. तकरीबन 20 सैंटीमीटर से 60 सैंटीमीटर तक की ऊंचाई वाला यह पौधा वार्षिक पौधा है, जिस पर छोटे आकार के फूल (3-5 सैंटीमीटर) के लेमन पीले, सुनहरे पीले या नारंगी रंग के लाल फूल लगते हैं. इस प्रजाति में द्विगुणित गुणसूत्र की तादाद 48 होती है.

इस की प्रमुख किस्में इस प्रकार हैं:

पूसा अर्पिता, पूसा दीप, हिसार ब्यूटी, हिसार जाफरी 2, रस्टी रैड, रैड बोकार्डो फ्लैश, बटर स्कौच, सुकना बालेसिया वगैरह.

खाद और उर्वरक

खाद और उर्वरकों का मुख्य मकसद पौधों की समुचित बढ़वार करना और जमीन में अनुकूल पोषण दशाएं बनाए रखना होता है. उर्वरकों के काम में लेने का सही समय सामान्य तौर पर मिट्टी का स्वभाव, पोषक तत्त्व, जलवायु और फसल के स्वभाव पर निर्भर करता है. इन की मात्रा मिट्टी की उर्वरता और फसल को दी गई जैविक खादों की मात्रा पर निर्भर करता है.

अगर संतुलित मात्रा में खाद और उर्वरक दिए जाएं तो निश्चित ही पौधों का विकास, वृद्धि और ज्यादा से ज्यादा फूल हासिल किए जा सकते हैं इसलिए जहां तक हो सके, मिट्टी की जांच के बाद ही उर्वरकों का इस्तेमाल करना चाहिए.

आमतौर पर खेत की तैयारी के समय 10-15 किलोग्राम नाइट्रोजन, 80 किलोग्राम फास्फोरस व 60 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से डालनी चाहिए. नाइट्रोजन की आधी मात्रा, फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय बेसल ड्रैसिंग के रूप में डालें और बाकी बची नाइट्रोजन की मात्रा को 2 बराबर भागों में पहली रोपाई के 25 दिन बाद और दूसरी 55-65 दिन बाद छिड़काव विधि से डालें.

रोपाई विधि : पौध की रोपाई आमतौर पर बीज बोने के 25-30 दिन बाद जब पौधों पर 3-4 पत्तियां आ जाएं तो तैयार क्यारियों में रोपाई करनी चाहिए.

जांच से पता चला है कि 25 दिन से ज्यादा पुरानी पौध की रोपाई करने से पैदावार में कमी आ जाती है. पौध रोपण की दूरी उगाई जाने वाली किस्म, मिट्टी की भौतिक दशा, रोपण विधि वगैरह पर निर्भर करती है.

अफ्रीकन गेंदे के पौधों की रोपाई 40×40 सैंटीमीटर की दूरी पर करनी चाहिए, जबकि फ्रैंच गेंदे की रोपाई 20×20 सैंटीमीटर की दूरी पर करनी चाहिए.

पौधों की रोपाई हमेशा शाम के समय करनी चाहिए और पौधे के चारों ओर की मिट्टी को भलीभांति दबा देना चाहिए.

सिंचाई : गेंदे की फसल की सिंचाई का सही समय कई कारकों जैसे जमीन की किस्म, मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा, मौसम वगैरह पर निर्भर करती है.

पहली सिंचाई रोपने के तुरंत बाद करें और सर्दियों में 15-20 दिन बाद करनी चाहिए. जबकि गरमियों में 7-10 दिन के बाद सिंचाई करनी चाहिए. बारिश के मौसम में अगर बारिश नहीं होती है तो जरूरत के मुताबिक समयसमय पर सिंचाई करते रहना चाहिए.

पौधों को दें सहारा

अफ्रीकन गेंदे में यह एक अहम प्रक्रिया है जिस पर किसान ध्यान नहीं देते हैं. जब पौधे 15-20 सैंटीमीटर ऊंचे हो जाएं, उस समय पौधों को गिरने से बचाने के लिए मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए, जिस से पौधे तेज हवा या बारिश में नीचे न गिरें. सहारा देने का काम बांस या खपच्ची की मदद से भी किया जा सकता है. समय पर सहारा देने से पौधे सीधे खड़े रहते हैं और फूलों की क्वालिटी भी अच्छी रहती है.

शीर्षनोचन (पिंचिंग) करें

गेंदे से ज्यादा फूल लेने के लिए शीर्षनोचन यानी पिंचिंग करना भी जरूरी काम है, पर ज्यादातर किसान इस पर ध्यान नहीं देते हैं. अफ्रीकन गेंदे में अग्रस्थ यानी आगे के भाग के प्रभाव को कम करने में शीर्षनोचन किया जाना बेहद जरूरी है, अन्यथा पौधे लंबे और पतले हो जाते हैं. काफी कम तादाद में शाखाएं निकलती हैं. इस वजह से फूलों की तादाद भी बहुत कम हो जाती है. पौधे के फैलाव को बढ़ाने के लिए शीर्षनोचन किया जाना जरूरी है.

इस प्रक्रिया में गेंदे के शीर्ष भाग (2-3 सैंटीमीटर) को हाथ से तोड़ देना चाहिए ताकि पौधे के बगल वाली शाखाएं ज्यादा निकलें. नतीजतन, कलियां भी ज्यादा तादाद में बनती हैं और फूलों की उपज में बढ़ोतरी होती है.

शीर्षनोचन का सही समय पौध रोपाई के 30-35 दिनों बाद आता है, जब पौधों में 1-2 पुष्प कलिकाएं बनाना शुरू हो जाती हैं. इस प्रक्रिया से पुष्पन शुरू होने का समय भी प्रभावित होता है.

नोट : फ्रैंच गेंदा में शीर्षनोचन नहीं किया जाता है.

गेंदे (Marigold)

पौध संरक्षण उपाय

खरपतवार नियंत्रण : पौधा रोपने के कुछ समय बाद उन के आसपास अनेक प्रकार के खरपतवार उग आते हैं जो पौधों के साथसाथ पोषक तत्त्वों, नमी, स्थान वगैरह के लिए होड़ करते रहते हैं. इस के अलावा ये विभिन्न प्रकार के कीटों व रोगों को भी पनाह देते हैं इसलिए खरपतवारों को समयसमय पर निराईगुड़ाई कर के निकालते रहें. इस के लिए पहली निराईगुड़ाई रोपने के 25-30 दिन बाद करें और दूसरी उस के 1 महीने बाद करनी चाहिए.

रोग पर नियंत्रण

आर्द्र विगलन : यह रोग राइजोक्टोनिया सोलानी नामक कवक द्वारा फैलता है. इस की समस्या ज्यादातर पौध तैयार करते समय नर्सरीघर में देखने में आती है. रोगग्रस्त पौधे का तना गलने लगता है और जब पौधे को उखाड़ कर देखते हैं तो उस की जड़ भी सड़ी हुई दिखाई देती है. प्रभावित पौधे जमीन की सतह से सड़ कर नीचे गिरने लगते हैं.

इस की रोकथाम के लिए बीजों को बोने से पहले 3 ग्राम कैप्टान या 3 ग्राम कार्बंडाजिम 1 किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर के बोने चाहिए.

सड़ी पौध में समस्या आने पर फफूंदीनाशक दवा कैप्टान को 0.2 फीसदी घोल से ड्रेंचिंग करनी चाहिए.

चूर्णी फफूंदी : यह रोग ओडियम स्पीसीज नामक कवक के द्वारा फैलता है. इस कवक से प्रभावित पौधों की पत्तियों के ऊपर सफेद चूर्ण जैसे चकत्ते दिखाई देते हैं, जिस के चलते फूल उपज पर अलग असर दिखाई पड़ता है.

इस की रोकथाम के लिए घुलनशील गंधक यानी सल्फैक्स 1 लिटर या कैराथेन 40 ईसी 150 मिलीलिटर प्रति हेक्टेयर की दर से 500 लिटर पानी में मिला कर छिड़काव करें. अगर जरूरी हो तो 15 दिन बाद फिर एक छिड़काव और करें.

पत्ती धब्बा रोग : यह रोग आल्टरनेरिया टेजैटिका नामक कवक द्वारा होता है. इस रोग के प्रकोप के चलते पौधों की पत्तियों के ऊपर भूरे रंग के गोल धब्बे बन जाते हैं जो धीरेधीरे पत्तियों को कुरूप बना देते हैं. इस की रोकथाम के लिए बाविस्टिन 2 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल कर छिड़कना चाहिए.

पुष्प कलिका विगलन : यह रोग आल्टरनेरिया डाइएथी नामक कवक के द्वारा फैलता है. इस के प्रकोप से पहले नई बनी कलिकाएं प्रभावित होती हैं और बाद में फूलों की पंखुडि़यों पर काले धब्बे दिखाई देते हैं, जो बाद में पूरे फूल पर फैल जाते हैं.

इस रोग की रोकथाम के लिए रीडोमिल या डायथेन एम 45 का 2 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल बना कर 10-12 दिन के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए.

कीटों पर नियंत्रण

लाल मकड़ी (रैड स्पाइडर माइट) : यह 8 पैरों वाला कीट बहुत ही छोटा, लगभग बिंदु के समान लाल रंग का होता है जो पत्ती के निचले भाग पर रहता है.

गरम मौसम में इस का प्रकोप ज्यादा होता है. यह गेंदे की पत्तियों का रस चूसता है. नतीजतन, पत्तियां हरे रंग से भूरे रंग में बदलने लगती हैं. साथ ही, पौधों का विकास रुक जाता है.

इस की रोकथाम के लिए मैटासिस्टाक्स या रोगर का 1 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.

मोयला : यह कीट हरे रंग का होता है. पत्तियों की निचली सतह से रस चूस कर यह कीट नुकसान पहुंचाता है. यह विषाणु रोग फैलाने में भी मददगार होता है.

इस की रोकथाम के लिए 300 मिलीलिटर डाइमेथोएट (रोगर) 30 ईसी, मैटासिस्टाक्स 25 ईसी को 200-300 लिटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें. अगर जरूरी हो तो अगला छिड़काव 10 दिन बाद फिर करें.

कलिका छेदक कीट : इस कीट की सूंड़ी कलिकाओं में छेद कर देती है. इस वजह पौधे के भोजन बनने पर असर पड़ता है. इस कीट के नियंत्रण के लिए क्यूनालफास या प्रोफेनोफास का 1.5-2.0 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.

फूलों की तुड़ाई

गेंदे की तुड़ाई उस समय करें जब वे पूरी तरह से विकसित हो चुके हों. फूलों की तुड़ाई सुबह या शाम के समय जब ठंडा मौसम हो, उसी समय करें. फूलों की तुड़ाई से एक दिन पहले हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए ताकि फूल तरोताजा बने रहें और उन्हें ज्यादा समय तक महफूज रखा जा सके. फूलों को तोड़ते समय इस बात का ध्यान रखें कि फूल को नीचे से तकरीबन 0.5 सैंटीमीटर लंबा हरा डंठल फूल से जुड़ा रहे.

उपज : गेंदे के फूलों की उपज उस की उगाई जाने वाली किस्म, मिट्टी, पौधे और पंक्तियों के मध्य की दूरी, खाद व उर्वरक की मात्रा और फसल की देखभाल पर निर्भर करती है.

इस विधि से उगाई गई अफ्रीकन गेंदे से 15-20 टन और फ्रैंच गेंदे से 12-15 टन प्रति हेक्टेयर उपज ली जा सकती है.

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