हमारे देश में केला एक लोकप्रिय फल है. यह लाभदायक होता है और आसानी से ज्यादा पैदावार होने से किसानों में काफी लोकप्रिय है. देश में केले की सभी किस्मों में गुच्छे के निचले हिस्से के फलों का कमजोर होना सब से बड़ी समस्या है, पर इस का अभी तक कोई इलाज नहीं है. कार्बनिक, जैविक, रासायनिक खादों और सूक्ष्म पोषक तत्त्वों के छिड़काव के बावजूद इस समस्या से नजात नहीं मिल पाई है. दक्षिणपूर्वी देशों में गुच्छे के निचले आधे भाग को गुच्छा बनने के तुरंत बाद काट देते हैं, लेकिन भारत की जलवायु की वजह से यह संभव नहीं है.

भारत में (2013-14 के अनुसार) केले की खेती 802.6 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में की जाती है. क्षेत्रफल के हिसाब से आम व नीबू के बाद केले का तीसरा स्थान है, जबकि 29724.6 हजार मीट्रिक टन (2013-14 के अनुसार) उत्पादन के साथ यह पहले स्थान पर है.

मिट्टी : केला सभी तरह की मिट्टी में उग जाता है, लेकिन व्यावसायिक रूप से खेती करने के लिए अच्छे जल निकास वाली गहरी दोमट मिट्टी जिस का पीएच मान 6.5 से 7.5 के बीच हो, फायदेमंद रहती है. ज्यादा रेतीली मिट्टी जो देर तक पोषक तत्त्वों को रोकने में असमर्थ रहती है और ज्यादा चिकनी मिट्टी जिस में पानी की कमी से दरारें पड़ जाती हैं, केले की खेती के लिए अच्छी नहीं होती हैं.

जलवायु : केला उष्ण जलवायु का पौधा है. गरम और नमी वाली जलवायु में इस की अच्छी पैदावार होती है. केले की खेती के लिए 20 से 35 डिगरी सेल्सियस तापमान अच्छा रहता है. 500 से 2000 मिलीमीटर वर्षा वाले इलाकों में इस की खेती की जा सकती है. केले को पाला और शुष्क तेज हवाओं से नुकसान होता है.

किस्में

ड्वार्फ कैवेंडिस (एएए) : यह सब से ज्यादा उगाई जाने वाली एक व्यावसायिक प्रजाति है. पौधे लगाने के 250-260 दिनों बाद इस में फूल आने शुरू हो जाते हैं. फूल आने के 110-115 दिनों बाद घार (फलों का गुच्छा) काटने लायक हो जाती है. इस तरह पौधे लगाने के 12-13 महीने बाद घार तैयार हो जाती है. फल 15 से 20 सेंटीमीटर लंबे और 3.0-3.5 सेंटीमीटर मोटे पीले व हरे रंग के होते हैं. घार का वजन 20 से 27 किलोग्राम तक होता है, जिस में औसतन 130 फल होते हैं.

यह प्रजाति पनामा रोग प्रतिरोधी है, लेकिन शीर्ष गुच्छा रोग के प्रति संवेदनशील होती है.

रोवस्टा (एएए) : इस किस्म के पौधे मध्यम ऊंचाई के होते हैं. फल 12-13 महीने में पक कर तैयार हो जाते हैं. फल आकार में 20 से 25 सेंटीमीटर लंबे और 3-4 सेंटीमीटर मोटे होते हैं. घार का भार औसतन 25 से 30 किलोग्राम तक होता है. यह प्रजाति पनामा रोग प्रतिरोधी है और सिगाटोका रोग के प्रति संवेदनशील होती है.

रसथली (एएबी) : इस किस्म के फल आकार में बड़े तथा पकने पर सुनहरेपीले रंग के होते हैं. घार का भार 15 से 18 किलोग्राम तक होता है. फसल 13 से 15 महीने में पक कर तैयार हो जाती है. इस किस्म में फल फटने की समस्या आती है.

पूवन (एएबी) : यह दक्षिण और उत्तरपूर्वी राज्यों में उगाई जाने वाली एक लोकप्रिय प्रजाति है. इस के पौधों की लंबाई ज्यादा होने से उन्हें सहारे की जरूरत नहीं होती है. पौधा लगाने के 12 से 14 महीने बाद घार काटने लायक हो जाती है. घार में मध्यम लंबाई वाले फल ऊपर की तरफ लगते हैं.

फल पकने के बाद पीले और स्वाद में हलका सा खट्टापन लिए मीठे होते हैं. फलों की भंडारण कूवत अच्छी है, इसलिए फल एक जगह से दूसरी जगह आसानी से भेजे जा सकते हैं. घार का औसत वजन 20 से 24 किलोग्राम तक होता है. यह प्रजाति पनामा रोग प्रतिरोधी है और स्ट्रीक विषाणु रोग से प्रभावित होती है.

नेंद्रेन (एएबी) : इस किस्म का इस्तेमाल मुख्य रूप से चिप्स और पाउडर बनाने के लिए किया जाता है. इसे सब्जी केला भी कहा जाता है. इस के फल लंबे, मोटी छाल वाले थोड़े मुड़े हुए होते हैं. फल पकने पर पीले हो जाते हैं. घार का भार 8 से 12 किलोग्राम तक होता है. हर घार में 30-35 फल होते हैं. इस की खेती केरल और तमिलनाडु के कुछ हिस्सों में की जाती है.

मांथन (एएबी) : इस किस्म के पौधे ऊंचे और मजबूत होते हैं. घार का भार 18 से 20 किलोग्राम होता है. प्रति घार औसतन 60-70 फल होते हैं. यह किस्म पनामा उकटा रोग से प्रभावित होती है, लेकिन पत्ती धब्बा और सूत्रकृमि रोगों की प्रतिरोधी होती है.

गें्रड नाइन (एएए) : इस किस्म के पौधों की ऊंचाई मध्यम और उत्पादकता ज्यादा होती है. फसल की अवधि 11-12 महीने की होती है. घार का भार 25 से 30 किलोग्राम होता है. सारे फल समान लंबाई के होते हैं.

कपूराबलि (एबीबी) : इस किस्म के पौधों की बढ़ोतरी काफी अच्छी होती है. घार का भार 25 से 35 किलोग्राम होता है. प्रति घार करीब 200 फल लगते हैं. फलों में मिठास और पेक्टिन की मात्रा दूसरी किस्मों के मुकाबले ज्यादा पाई जाती है. फलों की भंडारण क्षमता काफी अच्छी होती है. यह किस्म पनामा मिल्ट रोग और तना छेदक कीट के प्रति संवेदनशील और पत्ती धब्बा रोग की प्रतिरोधी होती है. यह तमिलनाडु और केरल की एक महत्त्वपूर्ण किस्म है.

संकर किस्में

एच 1 : इस किस्म के पौधे मध्यम ऊंचाई के होते हैं. घार का भार 14 से 16 किलोग्राम होता है. फल लंबे और पकने पर सुनहरेपीले होते हैं. इस किस्म से 3 साल के फसलचक्र में 4 बार फसलें ली जा सकती हैं.

एच 2 : इस के पौधे मध्यम ऊंचाई (2.13 मीटर से 2.44 मीटर) के होते हैं. फल छोटे, गसे हुए और गहरे हरे रंग के थोड़ा खट्टापन लिए हुए मीठी खुशबू वाले होते हैं.

को 1 : इस के फल में खास अम्लीय महक होती है. यह किस्म ज्यादा ऊंचाई वाले क्षेत्रों के लिए ज्यादा कारगर होती है.

एफएचआर 1 (गोल्ड फिंगर) : इस किस्म की घार का वजन 18 से 20 किलोग्राम होता है. यह किस्म सिगाटोका और फ्यूजेरियम बिल्ट के प्रति अवरोधी होती है.

केले की खेती मुख्य रूप से अंत: भूस्तारी से की जाती है. केले की जड़ों से 2 तरह के सकर निकलते हैं यानी तलवार सकर और जलीय सकर. व्यावसायिक नजरिए से तलवार सकर खेती के लिए सब से सही हैं. इन की पत्तियां तलवार की तरह पतली और ऊपर की तरफ उठी रहती हैं. 0.5 से 1 मीटर ऊंचे और 3-4 महीने पुराने तलवार सकर रोपाई के लिए सही होते हैं. सकर ऐसे पौधों से लेने चाहिए, जो अच्छे और पूरी तरह विकसित हों और किसी रोग से पीडि़त न हों.

वर्तमान दौर में केले की खेती शूट टोप कल्चर, इन विट्रो, ऊतक प्रवर्धन विधि से भी की जाती है. इस विधि से तैयार पौधे विषाणु रोग से बचे रहते हैं.

banana production

रोपाई का समय

रोपाई का सही समय जलवायु, प्रजाति के चयन और बाजार की मांग आदि पर निर्भर करता है. तमिलनाडु में ड्वार्फ कैवेंडिश और नेंद्रेन किस्मों को फरवरी से अप्रैल, जबकि पूवन और कपूरावली किस्मों को नवंबरदिसंबर में रोपा जाता है. महाराष्ट्र में साल में 2 बार यानी जूनजुलाई और सितंबरअक्तूबर में रोपाई की जाती है.

रोपाई की विधि : खेत को 2-3 बार कल्टीवेटर चला कर समतल कर लें. रोपाई के लिए 60×60×60 सेंटीमीटर आकार के गड्ढे खोदें. हर गड्ढे में मिट्टी, रेत और गोबर की खाद 1:1:1 के अनुपात में भरें. सकर को गड्ढे के बीच में रोप कर उस के चारों तरफ मिट्टी को अच्छी तरह से दबाएं. पौधों की दूरी, किस्म, जमीन की उर्वराशक्ति पर निर्भर करती है. सामान्य रूप से केले के पौधों की दूरी किस्मों के अनुसार सारणी में दिखाई गई है.

घनी रोपाई : घनी रोपाई विधि आर्थिक नजरीए से खास है. इस विधि में खरपतवारों की बढ़ोतरी कम होती है और तेज हवाओं से नुकसान कम होता है.

बौनी या मध्यम ऊंचाई वाली किस्मों जैसे कैवेंडिश, बसराई और रोबस्टा आदि घनी रोपाई के लिए सही होती हैं. रोबस्टा और ग्रेंड नाइन को 1.2×1.2 मीटर की दूरी पर रोप कर क्रमश: 68.98 और 94.07 टन प्रति हेक्टेयर की उपज हासिल होती है.

खाद व उर्वरक : केला अधिक पोषक तत्त्व लेने वाली फसल है. खाद और उर्वरक की मात्रा मिट्टी की उर्वराशक्ति, किस्म, उर्वरक देने की विधि और जलवायु पर टिकी रहती है. सामान्य वृद्धि और विकास के लिए 100 से 250 ग्राम नाइट्रोजन, 20 से 50 ग्राम स्फुर और 200-300 ग्राम पोटाश प्रति पौधा जरूरी है. नाइट्रोजन और पोटाश को 4-5 भागों में बांट कर देना चाहिए और स्फुर की पूरी मात्रा को रोपण के समय ही देनी चाहिए.

सिंचाई : केले की रोपाई से ले कर तोड़ाई के समय तक 1800 से 2200 मिलीमीटर पानी की जरूरत होती है. केले में खासकर कूंड़, थाला और टपक सिंचाई विधि से सिंचाई की जाती है. केले को गरमियों में 3-4 दिनों और सर्दियों में 8-10 दिनों के भीतर सिंचाई की जरूरत पड़ती है. ड्रिप विधि से सिंचाई किसानों के बीच लोकप्रिय हो रही है. इस विधि से सिंचाई करने पर 40-50 फीसदी पानी की बचत के साथ ही उत्पादन भी ज्यादा हासिल होता है.

मल्च का इस्तेमाल : मल्च के इस्तेमाल से जमीन में नमी बनी रहती है. साथ ही खरपतवारों की बढ़ोतरी भी रुकती है. गुजरात कृषि विश्वविद्यालय, नवसारी में ड्रिप सिंचाई विधि से गन्ने की खोई या सूखी पत्तियों द्वारा 15 टन प्रति हेक्टेयर की दर से मल्चिंग करने से केले के उत्पादन में 49 फीसदी तक बढ़ोतरी दर्ज की गई है और इस के साथ ही 30 फीसदी पानी की बचत भी होती है. इस के अलावा पौलीथीन शीट द्वारा मल्चिंग से भी अच्छे नतीजे हासिल हुए हैं.

देखभाल

मिट्टी चढ़ाना : पौधों पर मिट्टी चढ़ाना जरूरी होता है, क्योंकि इस की जड़ें उथली होती हैं. कभीकभी कंद जमीन से बाहर आ जाते हैं, जिस की वजह से उन की बढ़ोतरी रुक जाती हैं.

बेकार सकर हटाना : केले के पौधों में पुष्प गुच्छ निकलने से पहले तक बेकार सकर्स को हटाते रहना चाहिए. जब 3/4 पौधों में फूल आ जाएं तब 1 सकर को छोड़ कर अन्य को काटते रहें.

सहारा देना : केले के फलों का गुच्छा भारी होने से पौधे नीचे झुक जाते हैं. पौधों को गिरने से बचाने के लिए बांस की बल्ली या 2 बांस आपस में बांध कर कैंची की तरह बना कर फलों के गुच्छों को सहारा दें.

गुच्छों को ढकना : गुच्छों को सूरज की सीधी रोशनी से बचाने और फलों का आकर्षक रंग हासिल करने के लिए गुच्छों को छेद वाले पौलिथीन बैगों या सूखी पत्तियों से ढकना चाहिए.

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