सालोंसाल आसानी से मिलने वाला पपीता बहुत ही फायदेमंद फल है और आज के समय में पपीता ज्यादातर लोगों की पसंद भी है क्योंकि यह ऐसा गुणकारी फल है जो पेट की अनेक समस्याओं को दूर करता है.

इस की खेती करना भी आसान है. कम समय में अच्छाखासा मुनाफा देने वाली फसल है. शौकिया तौर पर लोग सालोंसाल अपने घर के बगीचे में भी लगाते आए हैं या खाली पड़ी आसपास की जगह पर इस को उगा कर फायदा लेते रहे हैं.

आज के दौर में अनेक किसान पपीते की खेती कर के अपनेआप को प्रगतिशील किसानों की दौड़ में शामिल कर चुके हैं क्योंकि इसे उगाना आसान, बेचना आसान और मुनाफा ज्यादा है. भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान के कृषि वैज्ञानिकों ने गन्ने की खेती के साथ पपीते की भी खेती करने की खोज की है.

इसी विषय को ले कर हम ने कृषि विशेषज्ञ गंगाशरण सैनी से बात की. उन्होंने हमें पपीते की सघन बागबानी के तहत ऐसी बातों को बताया जो किसान या बागबानों के लिए बड़े फायदे की जानकारी है. उन्होंने हमें पपीते की पौध रोपाई से ले कर खाद, बीज की जानकारी और अंत में फल उत्पादन तक की जानकारी दी.

उन्होंने बताया कि सघन बागबानी पपीता उत्पादकों के लिए एक नई विधि है, जिसे अपना कर वे उत्पादकता और अपनी आमदनी में इजाफा कर सकते हैं. इस विधि का इस्तेमाल पपीता उत्पादकों द्वारा किया जाने लगा है, लेकिन अभी भी अनेक पपीता उगाने वाले किसान इस विधि से अनजान हैं.

सघन बागबानी तकनीक में पौधों की प्रति इकाई संख्या बढ़ा कर जमीन का ज्यादा से ज्यादा उपयोग किया जाता है जिस से अधिक पैदावार ली जा सके.

पपीते की कुछ किस्मों के पौधे बौने होते हैं, जो सघन बागबानी के लिए उत्तम हैं. दिनप्रतिदिन खेती की जोत कम होती जा रही है. ऐसे में पपीते की सघन बागबानी पैदावार बढ़ाने के लिए एक खास तरीका है.

पपीते का इस्तेमाल कच्चे व पके फल के रूप में किया जाता है. इस के अलावा इस से मिलने वाला ‘पपेन’ का भी इस्तेमाल अनेक औद्योगिक कामों किया जाता है.

जमीन : पपीता के सफल उत्पादन के लिए हलकी दोमट या दोमट जमीन, जिस का जल निकास अच्छा हो अच्छी मानी जाती है. जमीन का पीएच मान 6.5-7.5 के मध्य होना चाहिए. मध्यम काली और जलोढ़ जमीन में भी इस की खेती की जा सकती है.

जलवायु : पपीता उष्ण जलवायु का फल है, पर इसे समशीतोष्ण जलवायु में भी उगाया जा सकता है. इस के उत्पादन के लिए अच्छा आदर्श तापमान 27-34 डिगरी सैल्सियस के बीच होना चाहिए. 40 डिगरी सैल्सियस से ज्यादा और 10 डिगरी सैल्सियस से कम तापमान पपीते की बागबानी के लिए नुकसानदायक है. ज्यादा तापमान से पौधे और फल दोनों ही प्रभावित होते हैं.

पपीते की फसल पर पाले का बहुत बुरा असर होता है. पपीते के सफल उत्पादन के लिए उच्च तापमान, कम आर्द्रता और सही नमी की जरूरत है.

पौधशाला की तैयारी

पपीते के पौधों को पौधशाला में लगाने की विधि व समय दोनों बहुत महत्त्व रखते हैं. प्रति हेक्टेयर पौधे तैयार करने के लिए उभयलिंगी किस्मों के लिए बीज की मात्रा 120-150 ग्राम और लिंगी किस्मों के लिए 400-500 ग्राम बीज होता है. सामान्य रूप से पपीते के 1 ग्राम में 50-70 बीज और इन में से 40-50 की तादाद में पौध बन सकती है.

बीजोपचार

बीजों को बोने से पहले 3 ग्राम केप्टान प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित करना चाहिए. ट्राइकोडर्मा का इस्तेमाल मिट्टी रोगों के नियंत्रण के लिए काफी प्रभावी होता है. इस का इस्तेमाल नर्सरी में करना चाहिए. जहां तेज धूप न हो और ज्यादा छाया भी न रहे, पौधशाला के लिए चुनना चाहिए. बीज लगाने के लिए 200 गेज और 20×15 सैंटीमीटर आकार की थैलियों जिन में छेद हों, की जरूरत होती है.

आजकल पपीते की नर्सरी के लिए प्लास्टिक की बनी ट्रे का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर किया जाता है. नर्सरी में 1:1:1:1 अनुपात में पत्ती की खाद, रेत, गोबर की खाद और मिट्टी का मिश्रण बना कर थैलियों या प्लास्टिक ट्रे में भर देते हैं.

पपीते में अंकुरण फीसदी कम होने के कारण हर थैली में पपीते के 2-2 बीज 1.5 सैंटीमीटर की गहराई पर बोते हैं. संकर व उभयलिंगी किस्मों के लिए 1 बीज सही होता है.

सही तापमान होने पर बोने के तकरीबन 15-20 दिन में बीज अंकुरित होने लगते हैं. जब इन पौधों में 4-5 पत्तियां निकल आएं और ऊंचाई 20-25 सैंटीमीटर हो जाए, तब वे खेत में रोपने लिए सही समझे जाते हैं.

रोपाई से पहले थैलियों में लगे पौधों को धूप में रखना चाहिए. ज्यादा सिंचाई करने से पौधों में जड़गलन रोग लग जाता है.

उत्तरी भारत में पौधशाला में बीज मार्चअप्रैल (पौलीहाउस) और जून से अगस्त में खुली जगह पर बोने चाहिए. प्रति रोपण करते समय थैली के नीचे का भाग एक किनारे से काट देना चाहिए.

खाद और उर्वरक

पपीता जल्दी फल देना शुरू कर देता है, इसलिए इसे ज्यादा उपजाऊ मिट्टी की जरूरत होती है. पपीते के एक पौधे को हर साल 250 ग्राम नाइट्रोजन, 300 ग्राम फास्फोरस और 400 ग्राम पोटाश देनी चाहिए. इसे 6 बराबर भागों में बांट कर हर 2 माह के अंतराल से देते हैं.

बाजार में मिलने वाले सूक्ष्म पोषक तत्त्वों के घोल को 2.5 मिलीलिटर मात्रा को 1 लिटर पानी में मिला कर फूल आने के समय पौधों पर 25 दिन के अंतराल पर 3 छिड़काव करना चाहिए. ऐसा करने से फूल और फल पौधों पर निरंतर आते रहते हैं.

यदि दूसरे साल भी फसल लेनी हो तो फिर से उर्वरक डालना चाहिए. इस के अलावा प्रति पौधा 20-25 किलोग्राम की खाद, एक किलोग्राम बोनमील और 1 किलोग्राम नीम की खली जरूर डालनी चाहिए.

गड्ढों की तैयारी

पपीते की सघन बागबानी के लिए पौधे लगाने से पहले खेती की अच्छी तरह से तैयारी कर के खेत को समतल कर लेना चाहिए, ताकि सिंचाई के समय पानी न भरे. फिर 50×50×50 सैंटीमीटर आकार के गड्ढों की खुदाई कर लेनी चाहिए और हर गड्ढे में 25 ग्राम ट्राइकोडर्मा को अच्छी तरह से गोबर की खाद में मिला कर डालें. इस से फफूंद रोग का कम असर होता है. दीमक प्रभावित क्षेत्रों में क्लोरोपाइरीफास की 2 मिलीलिटर मात्रा प्रति लिटर पानी में मिला कर गड्ढे को उपचारित कर लेना चाहिए.

ऐसे रोपें पौध

बौने किस्म के पौधों को 1.2×1.2 मीटर की दूरी पर रोपें. इस तरह एक एकड़ में तकरीबन 2800 पौधे लगाए जा सकते हैं. मध्यम आकार वाली किस्मों के लिए 1.5×1.5 मीटर की दूरी सही होती है. इस तरह एक एकड़ क्षेत्र में तकरीबन 1800 पौधों की रोपाई की जा सकती है.

पपीते की सामान्य खेती के लिए 2.0×1.5 या 2.0×1.8 मीटर की दूरी पर रोपना सही होता है. द्विलिंगी किस्मों के लिए एक गड्ढे में 20-25 सैंटीमीटर की दूरी पर 2 पौधे प्रति गड्ढा लगा देते हैं, जबकि उभयलिंगी किस्मों के लिए प्रति गड्ढा एक पौधा ही लगाना चाहिए. गड्ढा बना कर 20 किलोग्राम गोबर की खाद को मिट्टी में मिला कर पौधा लगाने से 20 दिन पहले भर दें.

पौधा लगाते समय गड्ढ़े को मिट्टी से ढक देना चाहिए ताकि सिंचाई के समय पानी तने पर न लगे और सही जलनिकास हो, वरना फफूंद या तना विगलन नामक रोग लग सकता है.

पौध लगाने का समय पौधशाला में पौध पर निर्भर है. उत्तर भारत में मुख्यत: पौधे रोपने का समय इस तरह है:

वसंत ऋतु : मार्च के दूसरे पखवाड़े से अप्रैल माह के पहले पखवाड़े तक.

मानसून : जूनजुलाई में तना विगलन रोग का प्रकोप ज्यादा होता है, इसलिए जलनिकास का सही प्रबंध होना चाहिए.

सिंचाई और जलनिकास

पपीते की सिंचाई इस बात पर निर्भर करती है कि उसे कब उगाया गया है. उत्तर भारत में अप्रैल से जून तक सप्ताह में 2 बार और जाड़ों में 15 दिन के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए जबकि दक्षिण भारत की जलवायु में जाड़ों में 10-12 और गरमी में 6 दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए.

यह ध्यान रखना चाहिए कि पानी तने को न छूने पाए, वरना पौधे में तना विगलन रोग लगने की आशंका रहती है. पपीता में टपक सिंचाई का इस्तेमाल करना चाहिए. यदि पपीते के खेत में किसी वजह से पानी इकट्ठा हो जाए तो उसे निकालने का तुरंत बंदोबस्त करना चाहिए अन्यथा पौधे पीले पड़ कर मर जाते हैं.

पपीता (Papaya)पाले से पौधों की सुरक्षा

पौधों को पाले से बचाना बहुत ही जरूरी?है. इस के लिए नवंबर के आखिर में 3 तरफ से घासफूस से?भलीभांति ढक दें और पूर्वदक्षिण दिशा में खुला छोड़ दें. बाग के चारों ओर बड़े पौधों वाली फसलों को लगा कर तेज गरम व ठंडी हवा से बचाव हो जाता है.

जनवरी के पहले हफ्ते में समयसमय पर धुआं करना चाहिए. पपीते की सघन बागबानी में सर्दी और पाले का प्रकोप कम होता है.

पौध संरक्षण

खरपतवार नियंत्रण : पपीते के साथ अनेक खरपतवार उग आते हैं जो पौधों के साथ नमी, पोषक तत्त्व, जगह, धूप, हवा वगैरह के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं. इस के चलते पौधों की बढ़वार पर प्रतिकूल असर होता है. जरूरत पड़ने पर निराईगुड़ाई करते रहना चाहिए. साथ ही, पौधों के तनों के आसपास मिट्टी भी चढ़ानी चाहिए.

प्रमुख कीट और रोग

प्रमुख रूप से किसी कीट से नुकसान नहीं होता है, पर विषाणु रोग फैलाने में सफेद मक्खी, चैंपा वगैरह मददगार होते हैं. पपीते में लगने वाले खास रोग इस तरह हैं:

आर्द्र पतन (डंपिंग औफ) : पौधशाला में बीज बोने से पहले उन्हें कैप्टान से उपचारित कर लेना चाहिए. पपीते के पौधों में ज्यादा पानी लगाने से फफूंदीजनित रोगों का प्रकोप हो जाता है. नम मिट्टी में पौधाशाला में ही छोटे पौधे नीचे से गल कर मर जाते हैं.

इस से बचने के लिए बीज को बोने से पहले क्यारी को 2.5 फीसदी फार्मेडिल्डहाइड के घोल से उपचारित कर लेना चाहिए. रोगी पौधों को उखाड़ कर जला देना चाहिए या मिट्टी में दबा देना चाहिए.

विषाणु रोग : पपीते की सभी किस्में विषाणु रोग से प्रभावित होती हैं. विषाणुओं से पपीते में होने वाले रोगों में मोजेक और पर्ण कुंचन प्रमुख हैं. उत्तर भारत में मुख्यत: पर्ण कुंचन विषाणु के रोग का प्रकोप काफी होता है.

पर्ण कुंचन : यह रोग जैमिनी विषाणु के कारण होता है. इस रोग का लक्षण ऊपर की नई पत्तियों पर दिखाई देता है. पत्तियां नीचे की ओर मुड़ जाती हैं और एक प्यालेनुमा आकार बना लेती हैं. पत्ते टेढे़मेढ़े हो जाते हैं.

रोग का प्रकोप होने के बाद पौधों की बढ़वार रुक जाती है. यह रोग सफेद मक्खी यानी बेमिसिया टैबेकाई द्वारा फैलता है. इस रोग की रोकथाम के लिए इमिडाक्लोरोपिड की 2 मिलीलिटर मात्रा को 10 लिटर पानी में घोल कर 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए.

रोग से ग्रसित पौधों को बाग से निकाल कर मिट्टी में दबा देना चाहिए. परपोषी पौधे जैसे मिर्च, टमाटर, तंबाकू को पपीते के बागों के पास नहीं लगाना चाहिए.

फलों की तुड़ाई

उत्तर भारत में अगर पपीते की रोपाई जूनजुलाई तक की जाती है तो अगली वसंत ऋतु तक पौधे फलने लगते हैं और मार्चअप्रैल या बाद में लगे पौधों पर फल सितंबरअक्तूबर में पनपने लगते हैं. अगर फल तोड़ने पर दूध यानी पपेन पानी की तरह निकलने लगता है तब पपीता तोड़ने लायक हो जाता है.

सामान्य रूप से रोपाई के 11-14 महीने बाद फलों की तुड़ाई की जा सकती है. अच्छी देखभाल और टपक सिंचाई तकनीक के साथ प्रति पौधा 40-50 किलोग्राम तक उपज मिल जाती है.

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