बहुत से किसान पपीते  फसल का उत्पादन करने लगे हैं, पर इन की देखभाल बहुत जरूरी होती है, वरना इस में लगने वाले कीट और रोग फसल को तो बरबाद करते ही हैं, किसान का भी माली नुकसान कर देते हैं.

आइए, जानते हैं किसानों के इन दुश्मनों के बारे में. पहले पपीता में लगने वाले कीटों और रोगों को लेते हैं :

सफेद मक्खी कीट

इस कीट के शिशु और प्रौण दोनों ही पत्तियों का रस चूसते हैं, जिस से पत्तियां पीली पड़ जाती हैं और सिकुड़ जाती हैं. इन में फूल और फल कम लगते हैं. छोटे पौधों पर प्रकोप होने पर फल बिलकुल ही नहीं आते हैं.

प्रबंधन : इस कीट पर नियंत्रण पाने के लिए नवंबरदिसंबर के महीने में बागों में की गई जुताईगुड़ाई से भी इन की  सूंडि़यां जो जमीन के अंदर चली जाती हैं, उन का खात्मा हो जाता है.

यदि कीट का प्रकोप अधिक हो तो इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल की 1.0 मिलीलिटर दवा प्रति लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें.

पौध गलन रोग

नर्सरी अवस्था में पौधा पीला हो कर मर जाता है.

प्रबंधन :

बीज को 2 ग्राम थिरम प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित कर नर्सरी डालें.

जल निकास की उचित व्यवस्था करें

कौपर औक्सीक्लोराइड 2.0 ग्राम को प्रति लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

विषाणु रोग

पत्ती का रंग पीला पड़ जाता है. पत्ती पर पड़े धब्बे पीले हो कर सिकुड़ने लगती है. पौधों की बढ़वार रुक जाती है और फूलफल जमीन पर गिरने लगते हैं.

प्रबंधन :

रोग ग्रसित पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए.

अधिक प्रकोप होने पर इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल की 7.0 मिलीलिटर दवा और स्ट्रिपोसाइक्लिन की 3 ग्राम दवा प्रति 15 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें

वहीं दूसरी ओर केले में लगने वाले कीट और रोग इस तरह हैं :

भृंग कीट

इस कीट के भृमक और मिथपा तनों में छेद कर के अंदर सुरंग बनाते हैं. इस प्रकार पौधे बीमार दिखाई देते हैं. बढ़वार कम होती है. गुच्छों में केलों की संख्या कम हो जाती है.

प्रबंधन : क्षतिग्रस्त पौधों को प्रकंद सहित नष्ट कर देना चाहिए.

पौधों के आसपास सफाई रखें.

फल काटने के बाद तने को तुरंत काट कर नष्ट कर दें.

बहुत अधिक प्रकोप होने पर क्विनालफास 25 ईसी की 2.0  मिलीलिटर दवा प्रति लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें.

पनामा उकठा रोग (पनामाविल्ट)

यह रोग एक प्रकार के कवक से उत्पन्न होता है. कवक सब से पहले पौधे की पतली जड़ों में प्रवेश करता है और बाद में पूरे संबहानी तंत्र में फैल जाता है, जिस से पौधे सूखने लगते हैं. निचली पत्तियां लटक कर मुर झा जाती हैं, केवल बीच की पत्ती सीधी रहती है. प्रभावित पौधे बाद में सूख जाते हैं.

प्रबंधन : स्वस्थ पौधों को रोपना चाहिए.

प्रभावित पौधों को उखाड़ कर मिट्टी में दबा देना चाहिए.

जल निकास का प्रबंध अच्छा होना चाहिए.

रोग रोधी प्रजाति उगानी चाहिए.

आखिरी जुताई के समय 4 से 5 किलोग्राम ट्राइकोडर्मा और 50 से 60 किलोग्रामगोबर की सड़ी हुई खाद में मिला कर प्रति हेक्टेयर इस्तेमाल करना चाहिए.

कंद को लगाने से पहले ट्राइकोडर्मा से शोधित करना चाहिए.

शीर्ष गुच्छा रोग (बंची टौप)

यह विषाणुजनित रोग है, जो माहू कीट से फैलता है. रोगी पौधों की पत्तियां छोटी हो कर गुच्छों का रूप धारण कर लेती हैं. पत्तियों के शीर्ष व किनारे अंदर की ओर मुड़ जाते हैं और पत्तियां मोटी हो जाती हैं. पत्तियों के निचले भाग में मध्य शिरा के साथ गहरी हरी पट्टियां बन जाती हैं.

प्रबंधन : स्वस्थ पौधों के कंदों का चुनाव करना चाहिए.

बाग को स्वच्छ रखना चाहिए.

कद्दूवर्गीय सब्जियों को अंत:फसल के रूप में प्रयोग नहीं करना चाहिए.

प्रभावित पौधे को गड्ढ़ा खोद कर मिट्टी में दबा देना चाहिए.

माहू कीट के नियंत्रण के लिए इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल की 10 मिलीलिटर दवा प्रति 15 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.

पर्ण लांछन रोग

इस रोग में पत्तियों पर भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं, जिस से पत्तियां सूखने लगती हैं. यह एक कवकजनित रोग है.

प्रबंधन : इस रोग की रोकथाम के लिए ताम्रयुक्त रसायन जैसे कौपर औक्सीक्लोराइड 3 ग्राम दवा को प्रति लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.

एंथ्रेक्नोज रोग

इस रोग में फलों के गुच्छे और डंठल काले हो जाते हैं व बाद में सड़ने लगते हैं.

प्रबंधन : इस रोग के प्रबंधन के लिए कौपर औक्सीक्लोराइड का 3 ग्राम दवा प्रति लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.

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